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Tuesday, May 26, 2020

हाथ रख कर जो वो पूछे दिल-ए-बेताब का हाल
हो भी आराम तो कह दूँ मुझे आराम नहीं
- दाग़ देहलवी

Thursday, September 26, 2019

हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं
-दाग़ देहलवी

Tuesday, February 13, 2018

ये काम नहीं आसाँ, इंसाँ को, मुश्किल है
दुनिया में भला होना, दुनिया का भला करना
-दाग़ देहलवी

Saturday, June 18, 2016

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात बताते भी नहीं

 (उज़्र = आपत्ति, विरोध, क्षमा-याचना, बहाना), (बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात = मिलना छोड़ देने का कारण)

मुंतज़िर हैं दम-ए-रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (दम-ए-रुख़सत = विदा के समय)

सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही
नश्शा-ए-मय भी नहीं, नींद के माते भी नहीं

(नश्शा-ए-मय = शराब का नशा), (माते = आदतें)

क्या कहा फिर तो कहो, हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं

ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

(चिलमन = बांस की फट्टियों का पर्दा, चिक)

मुझ से लाग़र तेरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझसे नाज़ुक मेरी नज़रों में समाते भी नहीं

(लाग़र = दुबला-पतला)

देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं

(इरशाद = आदेश, हुक्म)

हो चुका क़त्अ तअल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं

(क़त्अ तअल्लुक़ = संबंध-विच्छेद), (जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार)

ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं

(ज़ीस्त = जीवन, ज़िंदगी)

-दाग़ देहलवी


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन 







Begum Akhtar/ बेगम अख़्तर 



Farida Khanum/ फ़रीदा ख़ानुम



Runa Laila/ रूना लैला


Saturday, June 4, 2016

दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे
जो रंज की घड़ी भी ख़ुशी से गुज़ार दे
-दाग़ देहलवी

(रंज = कष्ट, दुःख, आघात, पीड़ा)

Saturday, January 23, 2016

ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया

ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आपका ईमान तो गया

दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिक़ायतें रहीं एहसान तो गया

डरता हूँ देख कर दिल-ए-बेआरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया

(दिल-ए-बेआरज़ू = बिना इच्छाओं का दिल)

क्या आई राहत आई जो कुंज-ए-मज़ार में
वो वलवला वो शौक़ वो अरमान तो गया

(कुंज-ए-मज़ार = कब्र का कोना, कब्र का एकांत स्थान), (वलवला = उत्साह, उमंग, जोश)

देखा है बुतकदे में जो ऐ शेख कुछ न पूछ
ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया

(बुतकदा = मंदिर)

इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया जान तो गया

(इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ = प्रेम के रहस्य को प्रकट या ज़ाहिर करना), (ज़िल्लतें = तिरस्कार, अपमान, अनादर)

गो नामाबर से कुछ न हुआ पर हज़ार शुक्र
मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया

(नामाबर = पत्रवाहक, संदेशवाहक)

बज़्म-ए-अदू में सूरत-ए-परवाना मेरा दिल
गो रश्क़ से जला तिरे क़ुर्बान तो गया

(बज़्म-ए-अदू = दुश्मन की महफ़िल), (रश्क़ = ईर्ष्या, जलन)

होश-ओ-हवास-ओ-ताब-ओ-तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया

(ताब-ओ-तवाँ = तेज और बल)

-दाग़ देहलवी



Thursday, May 14, 2015

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया

किसी तरह जो न उस बुत ने ऐतबार किया
मेरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मशार किया

हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया

(शब-ए-वस्ल = मिलन की रात), (अश्क-बार = आँसू बहानेवाला)

ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा, हाए बेक़रार किया

(सर-ए-मज़ार = मज़ार पर)

सुना है तेग को क़ातिल ने आबदार किया
अगर ये सच है तो बे-शुबह हम पे वार किया

(तेग = तलवार), (आबदार = धारदार), (बे-शुबह = बिना शक़)

न आए राह पे वो इज़्ज़ बे-शुमार किया
शब-ए-विसाल भी मैंने तो इन्तिज़ार किया

(इज़्ज़ = नम्रता, विनय), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात)

तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ को उम्मीदवार किया

(वादा-ए-दीदार = दर्शन का वादा)

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआलअन्देश
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया

(ताब = सहनशक्ति, आभा, बल), (मआलअन्देश = दूरदृष्टा)

कहाँ का सब्र कि दम पर है बन आई ज़ालिम
ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आशकार किया

(आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं
आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया

मिले जो यार की शोख़ी से उसकी बेचैनी
तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया

(दिल-ए-मुज़्तरिब = व्याकुल/ बेचैन दिल)

भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
छिपा छिपा के मोहब्बत को आशकार किया

(राज़-ए-निहां = छिपा हुआ रहस्य), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

न उसके दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता
सबा ने ख़ाक़ परेशां मेरा ग़ुबार किया

(सबा = बयार, पुरवाई, हवा)

हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया

(मह्व = निमग्न, तल्लीन), (मह्व-ए-नज़ारा = दृश्य की सुंदरता देखने में तल्लीन), (तग़ाफ़ुल = उपेक्षा, बेरुख़ी)

हमारे सीने में रह गई थी आतिश-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल भी उसको न हम-कनार किया

(आतिश-ए-हिज्र = विरह की चिंगारी), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात), (हम-कनार = बाँहों में भरना)

रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है
वो और इश्क़ भला तुमने एतबार किया

(शेवा-ए-उल्फ़त = प्यार की आदत)

ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह
जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया

(ज़बान-ए-ख़ार = काँटों भरी ज़ुबान), (सदा-ए-बिस्मिल्लाह = ख़ुदा के नाम से शुरू करने की आवाज़), (सर-ए-शोरीदा = उन्मुक्तता)

तेरी निगह के तसव्वुर में हमने ए क़ातिल
लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया

(तसव्वुर = कल्पना, ख़याल)

गज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैंने धोके में
हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया

(कसरत-ए-महफ़िल = सभा की भीड़), (रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी), (हम-कनार = गले लगाना)

हुआ है कोई मगर उसका चाहने वाला
कि आसमां ने तेरा शेवा इख़्तियार किया

(शेवा = आदत, तरीक़ा)

न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया

उन को तर्ज-ए-सितम आ गए तो होश आया
बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होशियार आया

(तर्ज-ए-सितम = अत्याचार, ज़ुल्म करने का तरीक़ा)

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया

(फ़साना-ए-शब-ए-ग़म = दुःख भरी रात की कहानी)

असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही
तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया

(असीरी = क़ैद), (दिल-ए-आशुफ़्ता = आतुर/ बेचैन दिल), (तुर्रा-ए-तर्रार = बल खाए हुए बाल), (तार तार = छिन्न-भिन्न)

कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया

(दावर-ए-महशर = ख़ुदा)

किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बदगुमानी थी
कि डरते डरते खुदा पर भी आशकार किया

(इश्क़-ए-निहाँ = छुपा हुआ प्यार), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे
आख़िर अब मुझे आशोब-ए-रोज़गार किया

(फ़लक = आसमान), (आशोब-ए-रोज़गार = रोज़गार की हलचल/ उपद्रव)

वो बात कर जो कभी आसमां से हो न सके
सितम किया तो बड़ा तूने इफ़्तिख़ार किया

(इफ़्तिख़ार = गौरव, मान)

बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी खाल-ए-सियाह
जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आशकार किया

(मेहर-ए-क़यामत = क़यामत के दिन का सूरज), (खाल-ए-सियाह = काला तिल, Beauty spot), ( 'दाग़'-ए-सियह-रू = शायर के काले चेहरे पर निशान), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

-दाग़


मेहदी हसन/ Mehdi Hasan 
 
 
 
मोहम्मद रफ़ी/ Mohammad Rafi
 
 
पंकज उधास/ Pankaj Udhaas
 
राजकुमारी/ Rajkumaari 
 
कविता कृष्णामूर्ति/ Kavita Krishnamurti 
 
फ़रीदा ख़ानुम/ Fareeda Khanum 
 

Saturday, November 1, 2014

आती है बार बार कोई बात मुझको याद
कहता हूँ दौड़ दौड़ के क़ासिद से राह में

-दाग़ देहलवी

(क़ासिद = पत्रवाहक, डाकिया)

Tuesday, June 3, 2014

अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता

ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता

तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िन्दगी का हमें ऐतबार होता
-दाग़ देहलवी



Monday, March 3, 2014

हमने उनके सामने पहले तो खंजर रख दिया
फिर कलेजा रख दिया, दिल रख दिया, सर रख दिया

क़तरा-ए-खून-ए-जिगर सी, की तवज्जोह इश्क़ की
सामने मेहमान के जो था मयस्सर रख दिया

[(तवज्जोह = गौर करना, ध्यान देना), (मयस्सर = प्राप्त, उपलब्ध)]

ज़िन्दगी में तो कभी दम भर न होते थे जुदा
कब्र में तन्हा मुझे यारों क्यूँकर रख दिया

देखिये अब ठोकरें खाती है किस किस की नागाह
रोज़ान-ए-दीवार में ज़ालिम ने पत्थर रख दिया

[(नागाह = सहसा, अचानक, एकाएक), (रोज़ान-ए-दीवार = दीवार का छेद)]

ज़ुल्फ़ खाली, हाथ खाली, किस जगह ढूँढें इसे
तुम ने दिल लेकर कहाँ, ऐ बंदापरवर, रख दिया ?

कहते हैं बू-ए-वफ़ा आती है इन फूलों से आज
दिल जो हमने लाला-ओ-गुल में मिलाकर रख दिया

(लाला-ओ-गुल = ट्यूलिप और गुलाब)

-दाग़ देहलवी






Friday, November 1, 2013

खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छिपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
- दाग़
वही हम थे कि जो रोतों को हँसा देते थे
अब वही हम हैं कि थमता नहीं आँसू अपना
-दाग़

रुखेरोशन के आगे शम्अ रखकर वो ये कहते हैं
उधर जाता है देखें, या इधर परवाना आता है
-दाग़ 
हिर्सो हविसो ताबो तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जानेवाले हैं, सामान तो गया
-दाग़

बाक़ी है 'अमीर' अब तो फ़क़त जान का जाना
होशो ख़िरदो ताबो तवाँ जा चुके कब के
-अमीर मीनाई

सब गए, दिल, दिमाग़, ताबो तवाँ
मैं रहा हूँ, सो क्या रहा हूँ मैं

-मीर तक़ी मीर

हिर्सो = लालसा
हविसो = तृष्णा
ताबो = तेज
तवाँ = बल
ख़िरदो = बुद्धि, अक़ल 
वो और हैं जो पीते हैं मौसम को देखकर
आती रही बहार में तौबाशिकन हवा
-दाग़

(तौबाशिकन = प्रतिज्ञा तोड़नेवाली)

वाइज़ का था लिहाज़ तो फ़स्ले-ख़िज़ाँ तलक
लो आ गई बहार में तौबाशिकन हवा
-अमीर मीनाई

[(वाइज़ = धर्मोपदेशक), (फ़स्ले-ख़िज़ाँ =  पतझड़)]

ज़बाँ से गर किया भी वादा तूने, तो यक़ीं किसको
निगाहें साफ़ कहती हैं कि देखो यूँ मुकरते हैं
-दाग़

तसल्ली ख़ाक़ हो वादों से उनके, चितवनें उनकी
इशारों से यूँ कहती हैं, कि देखो यूँ मुकरते हैं
-अमीर मीनाई
यूँ तो बरसों न पिलाऊँ, न पीऊँ ऐ ज़ाहिद
तौबा करते ही बदल जाती है नीयत मेरी
-दाग़

(ज़ाहिद = संयमी, विरक्त)


तौबा की जान को, बिजली है, चमक बिजली की
बदली आते ही बदल जाती है नीयत मेरी
-अमीर मीनाई


ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी, कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
-मिर्ज़ा ग़ालिब

(रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब = जिस दिन बादल निकलते हैं और जिस दिन चाँदनी रात होती है)
क्यों तूने चश्मे-लुत्फ़ से देखा ग़ज़ब किया ?
क़ुर्बान उस निगाह के जिसमें ग़रूर था
-दाग़

(चश्मे-लुत्फ़ = आनंद या अनुकंपा की नज़र से)

नीची रक़ीब से न हुई आँख उम्र भर
झुकता मैं क्या ? नज़र में तुम्हारा ग़रूर था
-अमीर मीनाई

(रक़ीब = प्रतिद्वंदी)

Wednesday, October 23, 2013

लिपटा मैं बोसा लेके तो बोले कि देखिये
यह दूसरी ख़ता है, वह पहला क़ुसूर था
-अमीर मीनाई

(बोसा = चुम्बन)

हम बोसा लेके उनसे अजब चाल चल गए
यूँ बख़्शवा लिया कि यह पहला क़ुसूर था
-दाग़

एक तरफ़ दाग़ और अमीर हैं कि ख़ता करते हैं फिर शान से माफ़ी माँग लेते हैं और दूसरी तरफ़ ग़ालिब हैं कि जागते हुए नहीं बल्कि सोते हुए भी और वो भी पाँव का बोसा लेने की हिम्मत नहीं कर पाते।

ले तो लूँ, सोते में उस के पाँव का बोसा, मगर
ऐसी बातों से, वह काफ़िर बदगुमाँ हो जाएगा
-मिर्ज़ा ग़ालिब

Tuesday, September 25, 2012

मंज़िले मक़सूद तक पहुँचे बड़ी मुश्किल से हम,
ज़ोफ़ ने अक्सर बिठाया, शौक़ अक्सर ले चला
-दाग़
(ज़ोफ़ = निर्बलता, कमज़ोरी, बेबसी)