Showing posts with label बचपन. Show all posts
Showing posts with label बचपन. Show all posts

Tuesday, April 28, 2020

मुझ को ख़ुद तक जाना था

मुझ को ख़ुद तक जाना था
इश्क़ तो एक बहाना था

रब तक आना जाना था
सच से जब याराना था

हम न समझ पाए वरना
दुःख भी एक तराना था

हाय वहाँ भी बच निकले
हमको जहाँ दिख जाना था

पँख बिना भी उड़ते थे
वो भी एक ज़माना था

-हस्तीमल 'हस्ती'

Saturday, August 17, 2019

मिलती है ख़ुशी सब को जैसे ही कहीं से भी
भूली हुइ बचपन की तस्वीर निकलती है
-अज़हर हाश्मी

Thursday, May 23, 2019

मोमिनो लाख जन्नतें क़ुरबां
एक बच्चे की मुस्कुराहट पर
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Friday, February 22, 2019

कोई ख़ंजर ना किसी तलवार से

कोई ख़ंजर ना किसी तलवार से
हल हुईं हैं मुश्किलें बस प्यार से

क्या बताएं हम इलाजे इश्क़ अब
पूछते हैं वो दवा बीमार से

वो मज़े के दिन वो बचपन अब कहाँ
दिन गुज़रते थे किसी त्यौहार से

ढूंढते दैरो हरम में जो ख़ुदा
अब तलक महरूम हैं दीदार से

(दैरो हरम = मंदिर मस्जिद), (महरूम = वंचित)

क्या मरासिम हैं मेरे तन्हाई से
पूछ लो मेरे दरो दीवार से

(मरासिम = मेल-जोल, प्रेम-व्यवहार, संबंध)

पोछते कब अश्क़ अपनी आँख के
कब मिली फ़ुर्सत हमें घर बार से

है अगर तेरी दुआ में कुछ कमी
फिर सदा आती नहीं उस पार से

(सदा = आवाज़)

किसको फ़ुर्सत कौन पूछे हाल अब
लड़ रहे हैं सब यहाँ किरदार से

मशवरा है आईना मत देखना
कर लिया सौदा अगर दस्तार से

(दस्तार = पगड़ी)

- विकास वाहिद // ०४ -०२ -२०१९

Wednesday, February 6, 2019

फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता
जहाँ बच्चे नहीं होते वो घर अच्छा नहीं लगता
-अब्बास ताबिश

(माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर = धन-दौलत की दीवारें और दरवाज़ा)

Saturday, December 22, 2018

इसी लिए तो बच्चों पे नूर सा बरसता है,
शरारतें तो करते हैं साजिशें नहीं करते
-नामालूम 

Friday, April 7, 2017

सज़ा दो अगरचे गुनहगार हूँ मैं

सज़ा दो अगरचे गुनहगार हूँ मैं
यूं सर भी कटाने को तैयार हूँ मैं।

ये दुनिया समझती है पत्थर मुझे क्यूं
ज़रा गौर कर प्यार ही प्यार हूँ मैं।

गुज़ारा है टूटे खिलौनों में बचपन
यूं बच्चों का अपने गुनहगार हूँ मैं।

सुलह चाहता हूँ सभी से यहां मैं
गिरा दो जो लगता है दीवार हूँ मैं।

बदलता नहीं वक़्त के साथ हरगिज़
चलो आज़मा लो वही यार हूँ मैं।

हुनर कश्तियों का नहीं है ये माना
भरोसा तो कर लो के पतवार हूँ मैं।

रहा मुंतज़िर मैं गुलों का हमेशा
समझते हो जो खार तो खार हूँ मैं।

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (गुल = फूल), (खार = कांटे)

- विकास वाहिद

Tuesday, March 28, 2017

हर पल ध्यान में बसने वाले लोग फ़साने हो जाते हैं

हर पल ध्यान में बसने वाले लोग फ़साने हो जाते हैं
आँखें बूढ़ी हो जाती हैं ख़्वाब पुराने हो जाते हैं

झोपड़ियों में हर इक तल्ख़ी पैदा होते मिल जाती है
इसीलिए तो वक़्त से पहले तिफ़्ल सयाने हो जाते हैं

(तिफ़्ल = छोटा बच्चा)

मौसमे-इश्क़ की आहट से ही हर इक चीज़ बदल जाती है
रातें पागल कर देती हैं दिन दीवाने हो जाते हैं

दुनिया के इस शोर ने 'अमजद' क्या-क्या हम से छीन लिया
ख़ुद से बात किए भी अब तो कई ज़माने हो जाते हैं

-अमजद इस्लाम अमजद

Friday, December 23, 2016

गर है मुहब्बत तो क़ुबूल कर ले

गर है मुहब्बत तो क़ुबूल कर ले
नज़राना दिल का मक़्बूल कर ले।

(मक़्बूल = कबूल किया हुआ, पसंद होने के लायक )

रख ले भरम मेरी शनासाई का
मुलाक़ात यूं ही फ़ुज़ूल कर ले।

(शनासाई = परिचय, जान-पहचान)

सौदा मेरे दिल का ये गरां नहीं है
ख़रीद ले मुझको तू वसूल कर ले।

(गरां = महंगा)

ये दुनिया नहीं गर तेरे मुताबिक़
है सलाहियत तो माकूल कर ले।

सलाहियत = (क्षमता, सामर्थ्य)

बेसबब यूँही गुज़र न जाए कहीं ये
तकाज़ा जवानी का है भूल कर ले।

परख ले तू सबको यकीं से पहले
खा के फ़रेब अब ये उसूल कर ले।

क्या मिलेगा दिल को पत्थर बना के
है दुनिया चमन इसे फूल कर ले।

नफासत से जीने को उम्र पड़ी है
अभी तो है बचपन इसे धूल कर ले।

-विकास वाहिद


https://www.youtube.com/watch?v=GSoiLrSzO1M


Saturday, November 5, 2016

सिर्फ़ ख़यालों में न रहा कर

सिर्फ़ ख़यालों में न रहा कर
ख़ुद से बाहर भी निकला कर

लब पे नहीं आतीं सब बातें
ख़ामोशी को भी समझा कर

उम्र सँवर जाएगी तेरी
प्यार को अपना आईना कर

जब तू कोई क़लम ख़रीदे
पहले उन का नाम लिखा कर

सोच समझ सब ताक़ पे रख कर
प्यार में बच्चों सा मचला कर

-हस्तीमल 'हस्ती'


sirf ḳhayaalon mein na rahaa kar
khud se baahar bhi niklaa kar

lab pe nahin aatin sab baaten
ḳhaamoshi ko bhi samjhaa kar

umr sanvar jaayegi teri
pyaar ko apnaa aaiina kar

jab tu koi qalam kharide
pahle un kaa naam likhaa kar

soch samajh sab taaq pe rakh kar
pyaar men bachchon saa machlaa kar

-Hastimal Hasti

Thursday, November 3, 2016

किस क़दर नाचती फिरती थी ये अलहड़-पन में
ज़िंदगी हो गई है जब से सयानी, चुप है
- राजेश रेड्डी

Friday, October 21, 2016

पिता

पिता जीवन है, सम्बल है, शक्ति है
पिता सृष्टि में निर्माण की अभिव्यक्ति है

पिता अँगुली पकडे बच्चे का सहारा है
पिता कभी कुछ खट्टा कभी खारा है

पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है
पिता धौंस से चलना वाला प्रेम का प्रशासन है

पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान है
पिता छोटे से परिंदे का बडा आसमान है

पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है

पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं

पिता से परिवार में प्रतिपल राग है
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है

पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है

पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पूर्ति है
पिता रक्त में दिये हुए संस्कारों की मूर्ति है

पिता एक जीवन को जीवन का दान है
पिता दुनिया दिखाने का एहसान है

पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है

तो पिता से बड़ा तुम अपना नाम करो
पिता का अपमान नहीं उनपर अभिमान करो

क्योंकि माँ-बाप की कमी को कोई पाट नहीं सकता
और ईश्वर भी इनके आशिषों को काट नहीं सकता

विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है

विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्राएं व्यर्थ हैं
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं

वो खुशनसीब हैं, माँ-बाप जिनके साथ होते हैं
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हाथ हज़ारों हाथ होते हैं

-ओम व्यास ओम



Saturday, October 15, 2016

ऐ ख़ुदा! क्या तिरे बंदों ने वो मकतब खोले
जिन में बच्चों को सिखाते हैं अदावत करना
-आलम खुर्शीद

(मकतब = पाठशाला, स्कूल), (अदावत = बैर, दुश्मनी)

Saturday, August 6, 2016

वो आँगन वो गलियां दरख्तों के साये

वो आँगन वो गलियां दरख्तों के साये
न जाने अभी तक क्यों हमको बुलायें

न बाबा न अम्मा न वो संगी साथी
बचा क्या है अब जिसकी यादें रुलायें

बचपन की चोटें और अम्मा के फाहे
हुआ दर्द जब भी बहुत याद आये

वो आँखों से डरना दबे पांव चलना
जवानी में जब भी कदम लड़खडा़ये

बहुत याद आते है वो गुज़रे ज़माने
बिना बात जब हमने आंसू बहाये

न आएगा फिर वो मौसम कभी भी
यही दर्द तो अब है हमको सताये

शहर भी वही है वही सारी राहें
मगर हमको अपने कहीं दिख न पाये

-स्मृति रॉय

Wednesday, June 29, 2016

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम
बच कर चले हमेशा मगर क़ाफ़िलों से हम

होने को रुशनास नयी उलझनों से हम
मिलते हैं रोज़ अपने कई दोस्तों से हम

(रुशनास = परिचित)

बरसों फ़रेब खाते रहे दूसरों से हम
अपनी समझ में आए बड़ी मुश्किलों से हम

मंज़िल की है तलब तो हमें साथ ले चलो
वाकिफ़ हैं ख़ूब राह की बारीकियों से हम

जिनके परों पे सुबह की ख़ुशबू के रंग हैं
बचपन उधार लाए हैं उन तितलियों से हम

कुछ तो हमारे बीच कभी दूरियाँ भी हों
तंग आ गए हैं रोज़ की, नज़दीकियों से हम

गुज़रें हमारे घर की किसी रहगुज़र से वो
परदें हटाएँ, देखें उन्हें खिड़कियों से हम

जब भी कहा के - 'याद हमारी कहाँ उन्हें ?
पकड़े गए हैं ठीक तभी, हिचकियों से हम

-आलोक श्रीवास्तव

Saturday, May 7, 2016

पराई कोठियों में रोज संगमरमर लगाता है

पराई कोठियों में रोज संगमरमर लगाता है
किसी फुटपाथ पर सोता है लेकिन घर बनाता है

लुटेरी इस व्यवस्था का मुझे पुरजा बताता है
वो संसाधन गिनाता है तो मुझको भी गिनाता है

बदलना चाहता है इस तरह शब्दों व अर्थों को
वो मेरी भूख को भी अब कुपोषण ही बताता है

यहाँ पर सब बराबर हैं ये दावा करने वाला ही
उसे ऊपर उठाता है मुझे नीचे गिराता है

मेरे आज़ाद भारत में जिसे स्कूल जाना था
वो बच्चा रेल के डिब्बों में अब झाड़ू लगाता है

तेरे नायक तो नायक बन नहीं सकते कभी 'बल्ली'
कोई रिक्शा चलाता है तो कोई हल चलाता है

-बल्ली सिंह चीमा 

Thursday, April 21, 2016

इश्क़ की बातें, प्यार की बातें

इश्क़ की बातें, प्यार की बातें
छोड़ो भी बेकार की बातें

फूलों जैसे बच्चे भी अब
करते हैं तलवार की बातें

सुनते-सुनते डूब गए हम
कश्ती और पतवार की बातें

इस संसार में ढूँढ रहे हैं
जाने किस संसार की बातें

रोज़ उन्ही लोगों से मिलना
रोज़ वही हर बार की बातें

इस बस्ती में अब बूढ़े ही
करते हैं किरदार की बातें

हमको जीत का सुख देती हैं
इसकी-उसकी हार की बातें

अच्छा है अब आने लगी है
ग़ज़लों में घर-बार की बातें

-राजेश रेड्डी

Wednesday, March 9, 2016

तह-ब-तह है राज़ कोई आब की तहवील में

तह-ब-तह है राज़ कोई आब की तहवील में
ख़ामुशी यूँ ही नहीं रहती है गहरी झील में

(तह-ब-तह = एक के नीचे एक, परत दर परत), (आब = पानी), (तहवील = सपुर्दगी, अमानत, खज़ाना)

मैं ने बचपन में अधूरा ख़्वाब देखा था कोई
आज तक मसरूफ़ हूँ उस ख़्वाब की तकमील में

(मसरूफ़ = मशगूल, काम में लगा हुआ), (तकमील = पूरा होने की क्रिया या भाव, निष्पादन, पूर्ति)

हर घड़ी अहकाम जारी करता रहता है ये दिल
हाथ बांधे मैं खड़ा हूँ हुक्म की तामील में

(अहकाम = हुक्म का बहुवचन, आदेश), (तामील = आज्ञा का पालन)

कब मिरी मर्ज़ी से कोई काम होता है तमाम
हर घड़ी रहता हूँ मैं क्यूँ बेसबब ताजील में

(बेसबब = बिना कारण), (ताजील = जल्दी, शीघ्रता)

मांगती है अब मोहब्बत अपने होने का सुबूत
और मैं जाता नहीं इज़हार की तफ़्सील में

(इज़हार = ज़ाहिर या प्रकट करना), (तफ़्सील = विस्तृत वर्णन, ब्योरा)

मुद्दआ तेरा समझ लेता हूँ तेरी चाल से
तू परेशां है अबस अल्फ़ाज़ की तावील में

(अबस = व्यर्थ, नाहक), (तावील = व्याख्या)

अपनी ख़ातिर भी तो 'आलम' चीज़ रखनी थी कोई
अब कहाँ कुछ भी बचा है तेरी इस ज़म्बील में

(ज़म्बील = थैली, विशेषतः वो थैली जिसमें फ़कीर लोग भीख में मिली हुई चीज़ें रखते हैं)

-आलम खुर्शीद

Wednesday, February 24, 2016

अपने लहू का रंग भी पहचानती नहीं
इन्सान के नसीब में अंधों की नस्ल है

लड़ते भी हैं तो प्यार से मुंह मोड़ते नहीं
हम से कहीं ज़ियादा तो बच्चों में अक़्ल है

-इबरत मछलीशहरी

Monday, December 21, 2015

रिश्तों के तक़द्दुस की तिजारत नहीं की है

रिश्तों के तक़द्दुस की तिजारत नहीं की है
हमने कभी चाहत में सियासत नहीं की है

(तक़द्दुस = पवित्रता, महत्ता), (तिजारत = व्यापार, सौदागरी), (सियासत = राजनीति, छल-फ़रेब, मक्कारी)

हमसे तो इसी बात पे नाराज़ हैं कुछ लोग
हमने कभी झूठों की हिमायत नहीं की है

वो फूल की अज़मत को भला खाक़ समझता
जिसने कभी बच्चों से मुहब्बत नहीं की है

(अज़मत = महानता)

जिस घर में बुजुर्गों को उठानी पडे ज़िल्लत
उस घर पे ख़ुदा ने कभी रहमत नहीं की है

(ज़िल्लत = तिरस्कार, अपमान, अनादर)

जो बात हक़ीक़त थी कही सामने उसके
हमने तो किसी शख़्स की ग़ीबत नहीं की है

(ग़ीबत = चुग़ली)

उन लोगों ने खुद अपनी ज़बां काट के रख दी
जिन लोगों ने हक़गोई की हिम्मत नहीं की है

(हक़गोई = सच्ची बात कहना, सत्यवादिता)

हम इश्क़ का दस्तूर समझते हैं हमेशा
ये सोच के इसमें कोई बीदात नहीं की है

(बीदात = नयी बातें)

इक पल में ये माहौल बदल सकता है लेकिन
हम लोगों ने खुल कर कभी हिम्मत नहीं की है

बेजा है 'वसीम' अपनों की हमसे ये शिकायत
हमने कभी दुश्मन से भी नफ़रत नहीं की है

-वसीम मलिक, सूरत