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Thursday, April 23, 2020

धोखा है इक फ़रेब है मंज़िल का हर ख़याल
सच पूछिए तो सारा सफ़र वापसी का है
-राजेश रेड्डी

Sunday, April 19, 2020

रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं

रोज़ जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं।
ज़ीस्त की दुश्वारियाँ बढ़ती गईं।

(ज़ीस्त = जीवन), (दुश्वारियाँ = कठिनाइयाँ)

पेशकदमी वो करे, मैं क्यों बढ़ूँ,
इस अहम में दूरियाँ बढ़ती गईं।

(पेशकदमी = पहल)

आप भी तो ख़ुश नहीं, मैं भी उदास
किसलिये फिर तल्ख़ियाँ बढ़ती गईं।

(तल्ख़ियाँ = कटुतायें)

भूख ले आई शहर में गाँव को,
झुग्गियों पर झुग्गियाँ बढ़ती गईं।

मुस्कराहट सभ्यता का इक फ़रेब,
दिन-ब-दिन ऐय्यारियाँ बढ़ती गईं।

(ऐय्यारियाँ = छल, चाल)

आग से महफ़ूज़ रह पायेगा कौन,
यूँ ही गर चिंगारियाँ बढ़ती गईं।

अम्न के संवाद के साये तले
जंग की तैय्यारियाँ बढ़ती गईं।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Wednesday, May 22, 2019

फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
उस ख़ौफ़ का किसी ने ख़ुदा नाम रख दिया

(मुबहम = छुपा हुआ, अस्पष्ट, धुँधला)

मुफ़लिस को अहल-ए-ज़र ने भी क्या क्या दिए फ़रेब
अपनी जफ़ा का हुक्म-ए-ख़ुदा नाम रख दिया

(मुफ़लिस = ग़रीब), (अहल-ए-ज़र = अमीर, पैसे वाले लोग), (जफ़ा = ज़ुल्म, अत्याचार)

- गोपाल मित्तल

Friday, May 17, 2019

जिस ने किए हैं फूल निछावर कभी कभी

जिस ने किए हैं फूल निछावर कभी कभी
आए हैं उस की सम्त से पत्थर कभी कभी

(सम्त = तरफ़, दिशा, ओर)

हम जिस के हो गए वो हमारा न हो सका
यूँ भी हुआ हिसाब बराबर कभी कभी

याँ तिश्ना-कामियाँ तो मुक़द्दर हैं ज़ीस्त में
मिलती है हौसले के बराबर कभी कभी

(तिश्ना-कामियाँ = प्यास, दुर्भाग्य, बदक़िस्मती), (ज़ीस्त = जीवन)

आती है धार उन के करम से शुऊर में
दुश्मन मिले हैं दोस्त से बेहतर कभी कभी

(शुऊर = समझ, सलीका, चेतना)

मंज़िल की जुस्तुजू में जिसे छोड़ आए थे
आता है याद क्यूँ वही मंज़र कभी कभी

(जुस्तुजू = खोज, तलाश)

माना ये ज़िंदगी है फ़रेबों का सिलसिला
देखो किसी फ़रेब के जौहर कभी कभी

 (जौहर = गुण, दक्षता)

यूँ तो नशात-ए-कार की सरशारियाँ मिलीं
अंजाम-ए-कार का भी रहा डर कभी कभी

(नशात-ए-कार = उन्मादपूर्ण, मग्न करने वाला, चित्ताकर्षक, अति आनंदित), (सरशारियाँ = परमानन्द)

दिल की जो बात थी वो रही दिल में ऐ 'सुरूर'
खोले हैं गरचे शौक़ के दफ़्तर कभी कभी

-आल-ए-अहमद सूरूर

Monday, April 29, 2019

रंगे दुनिया में ढल गए हो तुम

रंगे दुनिया में ढल गए हो तुम
ये सुना है बदल गए हो तुम।

फिर नया इक फ़रेब खाओगे
आँसुओं से पिघल गए हो तुम।

मत चले जाना छोड़ कर हमको
इक नगीने से फल गए हो तुम।

फ़िर गुज़रती है ज़िन्दगी आसां
गर दुखों से बहल गए हो तुम।

पूछता कौन है तुम्हें " वाहिद"
दास्तां से निकल गए हो तुम।

- विकास " वाहिद"
२८ अप्रैल २०१९

Wednesday, June 29, 2016

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम
बच कर चले हमेशा मगर क़ाफ़िलों से हम

होने को रुशनास नयी उलझनों से हम
मिलते हैं रोज़ अपने कई दोस्तों से हम

(रुशनास = परिचित)

बरसों फ़रेब खाते रहे दूसरों से हम
अपनी समझ में आए बड़ी मुश्किलों से हम

मंज़िल की है तलब तो हमें साथ ले चलो
वाकिफ़ हैं ख़ूब राह की बारीकियों से हम

जिनके परों पे सुबह की ख़ुशबू के रंग हैं
बचपन उधार लाए हैं उन तितलियों से हम

कुछ तो हमारे बीच कभी दूरियाँ भी हों
तंग आ गए हैं रोज़ की, नज़दीकियों से हम

गुज़रें हमारे घर की किसी रहगुज़र से वो
परदें हटाएँ, देखें उन्हें खिड़कियों से हम

जब भी कहा के - 'याद हमारी कहाँ उन्हें ?
पकड़े गए हैं ठीक तभी, हिचकियों से हम

-आलोक श्रीवास्तव

Monday, December 21, 2015

कुछ इस तरह से वफ़ा की मिसाल देता हूँ

कुछ इस तरह से वफ़ा की मिसाल देता हूँ
सवाल करता है कोई तो टाल देता हूँ

उसी से खाता हूँ अक्सर फ़रेब मंज़िल का
मैं जिसके पाँव से काँटा निकाल देता हूँ

तसव्वुरात की दुनिया भी खूब दुनिया है
मैं उसके ज़हन को अपने ख़याल देता हूँ

(तसव्वुरात = कल्पनायें, ख़यालात), (ज़हन = दिमाग़)

वो कायनात की वुसअत बयान करता है
मैं एक शेर ग़ज़ल का उछाल देता हूँ

(कायनात = सृष्टि, जगत, ब्रम्हांड), (वुसअत = विस्तार)

कहीं अज़ाब न बन जाये ज़िन्दगी 'मंसूर'
उसे मैं रोज़ एक उलझन में डाल देता हूँ

(अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट)

‪-मंसूर उस्मानी‬

Wednesday, August 26, 2015

फ़रेबों पर टिका तेरा हुनर बस चार दिन का है

फ़रेबों पर टिका तेरा हुनर बस चार दिन का है
बनाया है जो तूने काँचघर बस चार दिन का है

अमावस है अभी तो चांद पूनम का भी चमकेगा
न यूँ घबरा अंधेरों का असर बस चार दिन का है

हज़ारों मील लम्बे रास्ते मुझसे ये कहते हैं
ज़रा चल तो सही तेरा सफ़र बस चार दिन का है

कभी दौलत कभी ताक़त के दम पर जो सताते हैं
बता दो ये उन्हें इनका असर बस चार दिन का है

न तेरा है न मेरा है न इसका है न उसका है
कि इस दुनिया में हम सबका बसर बस चार दिन का है

उठाई खोखली बुनियाद पर क्यूँ ऊँची दीवारें
बनाया ख़ूब तूने घर मगर बस चार दिन का है

-प्रवीण शुक्ल

Wednesday, January 14, 2015

फ़रेब-ए- ज़िन्दगी खाकर भी चालाकी नहीं आई
कि पानी में भी रह के हमको तैराकी नहीं आई
-शकील आज़मी

Monday, November 24, 2014

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में 
कि सारे खोने के ग़म पाए हमने पाने में 

वो शक्ल पिघली तो हर शै में ढल गई जैसे 
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में 

जो मुंतज़िर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा 
कि हमने देर लगा दी पलट के आने में 

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

लतीफ़ था वो तख़य्युल से, ख़्वाब से नाज़ुक 
गँवा दिया उसे हमने ही आज़माने में 

(लतीफ़ = मज़ेदार), (तख़य्युल = कल्पना)

समझ लिया था कभी एक सराब को दरिया
पर एक सुकून था हमको फ़रेब खाने में

(सराब = मृगतृष्णा, मरीचिका)

झुका दरख़्त हवा से, तो आँधियों ने कहा 
ज़ियादा फ़र्क़ नहीं झुक के टूट जाने में

(दरख़्त = पेड़)

-जावेद अख़्तर

Sunday, November 16, 2014

ग़म-ए-हयात में कोई कमी नहीं आई

ग़म-ए-हयात में कोई कमी नहीं आई
नज़र-फ़रेब थी तेरी जमाल-आराई

(ग़म-ए-हयात = जीवन का दुःख), (नज़र-फ़रेब = नज़रों का धोका),  (जमाल-आराई = सौंदर्य की सजावट/ श्रृंगार)

वो दास्ताँ जो तेरी दिलकशी ने छेड़ी थी
हज़ार बार मिरी सादगी ने दोहराई

(दिलकशी = मनोहरता, सुंदरता)

फ़साने आम सही मेरी चश्म-ए-हैराँ के
तमाशा बनते रहे हैं यहाँ तमाशाई

(चश्म-ए-हैराँ = हैरान नज़र)

तिरी वफ़ा, तिरी मजबूरियाँ, बजा लेकिन
ये सोज़िश-ए-ग़म-ए-हिज़्राँ, ये सर्द तन्हाई

(बजा = उचित, मुनासिब, ठीक), (सोज़िश-ए-ग़म-ए-हिज़्राँ = जुदाई/ विरह के दुःख की जलन)

किसी के हुस्न-ए-तमन्ना का पास है वर्ना
मुझे ख़याल-ए-जहाँ है, न ख़ौफ़-ए-रुस्वाई

(पास = लिहाज़), (ख़याल-ए-जहाँ = दुनिया की फ़िक्र), (ख़ौफ़-ए-रुस्वाई = बदनामी का डर)

मैं सोचता हूँ ज़माने का हाल क्या होगा
अगर ये उलझी हुई ज़ुल्फ़ तूने सुलझाई

कहीं ये अपनी मुहब्बत की इंतिहा तो नहीं
बहुत दिनों से तिरी याद भी नहीं आई

-अहमद राही

                                                             रेशमा/ Reshma 


Thursday, May 22, 2014

तमाम जिस्म ही घायल था

तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था
कोई न जान सका, रख-रखाव ऐसा था

बस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था
मेरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा था

वो हमको देखता रहता था, हम तरसते थे
हमारी छत से वहाँ तक दिखाव ऐसा था

कुछ ऐसी साँसें भी लेनी पड़ीं जो बोझल थीं
हवा का चारों तरफ से दबाव ऐसा था

ख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद ही बिक जाते
तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था

हैं दायरे में क़दम ये न हो सका महसूस
राहे हयात में यारो घुमाव ऐसा था

कोई ठहर न सका मौत के समन्दर तक
हयात ऐसी नदी थी, बहाव ऐसा था

बस उसकी मांग में सिंदूर भर के लौट आए
हमारा अगले जनम का चुनाव ऐसा था

फिर उसके बाद झुके तो झुके ख़ुदा की तरफ़
तुम्हारी सम्त हमारा झुकाव ऐसा था

वो जिसका ख़ून था वो भी शिनाख्त कर न सका
हथेलियों पे लहू का रचाव ऐसा था

ज़बां से कुछ न कहूंगा, ग़ज़ल ये हाज़िर है
दिमाग़ में कई दिन से तनाव ऐसा था

फ़रेब दे ही गया 'नूर' उस नज़र का ख़ुलूस
फ़रेब खा ही गया मैं, सुभाव ऐसा था
-कृष्ण बिहारी 'नूर'

Wednesday, August 14, 2013

लुत्फ़ हम को आता है अब फ़रेब खाने में
आज़माए लोगों को रोज़ आज़माने में

दो घड़ी के साथी को हमसफ़र समझते हैं
किस क़दर पुराने हैं, हम नए ज़माने में

एहतियात रखने की कोई हद भी होती है
भेद हम ने खोले हैं, भेद को छुपाने में

तेरे पास आने में आधी उम्र गुजरी है
आधी उम्र गुज़रेगी तुझ से दूर जाने में

ज़िन्दगी तमाशा है और इस तमाशे में
खेल हम बिगाड़ेंगे, खेल को बनाने में

कारवां को उनका भी कुछ ख्याल आता है
जो सफ़र में पिछड़े हैं, रास्ता बनाने में

-आलम खुर्शीद

Tuesday, July 2, 2013

आरज़ू है फ़रेब खाने की

देखकर दिलकशी ज़माने की,
आरज़ू है फ़रेब खाने की ।

ऐ ग़मे ज़िन्दगी न हो नाराज़,
मुझको आदत है मुस्कुराने की ।

ज़ुल्मतों से न डर कि रस्ते में,
रौशनी है शराबखाने की ।

(ज़ुल्मतों से = अंधेरों से)

-अदम


Thursday, April 4, 2013

फ़ुगाँ कि मुझ ग़रीब को हयात का ये हुक्म है,
समझ हरेक राज़ को मगर फ़रेब खाए जा ।
- जोश मलीहाबादी

[(फ़ुगाँ = दुहाई), (हयात = जीवन)]






 

Friday, October 12, 2012

तेरे ख़ुलूस ने बर्बाद कर दिया ए दोस्त,
फ़रेब खाते तो अब तक सम्हल गये होते.
-मजहरुलहक

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठां)