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Saturday, December 18, 2021

ज़िन्दगी की तलाश जारी है

ज़िन्दगी की तलाश जारी है
इक ख़ुशी की तलाश जारी है।

हर तरफ़ ज़ुल्मतों के मौसम में
रौशनी की तलाश जारी है।

(ज़ुल्मत = अंधेरा)

इस उदासी के ढेर के नीचे
इक हँसी की तलाश जारी है।

जो बचा ले सज़ा से हाक़िम को
उस गली की तलाश जारी है।

(हाक़िम  = न्यायाधिश, जज, स्वामी, मालिक, राजा, हुक्म करने वाला)

जो परख ले हमें यहां ऐसे
जौहरी की तलाश जारी है।

खो गया है कहीं कोई मुझमें
बस उसी की तलाश जारी है।

मिल गए हैं ख़ुदा कई लेकिन
आदमी की तलाश जारी है।

- विकास जोशी "वाहिद"  १३/१२/१९

Sunday, May 10, 2020

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है
जान-बूझ कर धोका खाना कितना अच्छा लगता है

ईंट और पत्थर मिट्टी गारे के मज़बूत मकानों में
पक्की दीवारों के पीछे हर घर कच्चा लगता है

आप बनाता है पहले फिर अपने आप मिटाता है
दुनिया का ख़ालिक़ हम को इक ज़िद्दी बच्चा लगता है

(ख़ालिक़ = बनानेवाला, सृष्टिकर्ता, ईश्वर)

इस ने सारी क़स्में तोड़ें सारे वा'दे झूटे थे
फिर भी हम को उस का होना अब भी अच्छा लगता है

उसे यक़ीं है बे-ईमानी बिन वो बाज़ी जीतेगा
अच्छा इंसाँ है पर अभी खिलाड़ी कच्चा लगता है

-दीप्ति मिश्रा

Monday, April 20, 2020

अहम की ओढ़ कर चादर

अहम की ओढ़ कर चादर
फिरा करते हैं हम अक्सर

अहम अहमों से टकराते
बिखरते चूर होते हैं
मगर फिर भी अहम के हाथ
हम मजबूर होते हैं
अहम का एक टुकड़ा भी
नया आकार लेता है
ये शोणित बीज का वंशज
पुनः हुंकार लेता है
अहम को जीत लेने का
अहम पलता है बढ़-चढ़ कर
अहम की ओढ़ कर .....

विनय शीलो में भी अपनी
विनय का अहम होता है
वो अन्तिम साँस तक अपनी
वहम का अहम ढोता है
अहम ने देश बाँटॆ हैं
अहम फ़िरकों का पोषक है
अहम इंसान के ज़ज़्बात का भी
मौन शोषक है
अहम पर ठेस लग जाये
कसक रहती है जीवन भर
अहम की ओढ़ करे चादर ...

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'




Sunday, April 19, 2020

अपनी - अपनी सलीब ढोता है

अपनी - अपनी सलीब ढोता है
आदमी कब किसी का होता है

है ख़ुदाई-निज़ाम दुनियाँ का
काटता है वही जो बोता है

जाने वाले सुकून से होंगे
क्यों नयन व्यर्थ में भिगोता है

खेल दिलचस्प औ तिलिस्मी है
कोई हँसता है कोई रोता है

सब यहीं छोड़ के जाने वाला
झूठ पाता है झूठ खोता है

मैं भी तूफाँ का हौसला देखूँ
वो डुबो ले अगर डुबोता है

हुआ जबसे मुरीदे-यार ’अमित’
रात जगता है दिन में सोता है

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते
चिराग़ रखते हैं, शम्स-ओ-क़मर नहीं रखते।

 (शम्स-ओ-क़मर = सूरज और चन्द्रमा)

हमने रूहों पे जो दौलत की जकड़ देखी है
डर के मारे ये बला अपने घर नहीं रखते।

है नहीं कुछ भी प ग़ैरत प आँच आये तो
सबने देखा है के कोई कसर नहीं रखते।

इल्म रखते हैं कि इंसान को पहचान सकें
उनकी जेबों को भी नापें, हुनर नहीं रखते।

बराह-ए-रास्त बताते हैं इरादा अपना
मीठे लफ़्जों में छुपा कर ज़हर नहीं रखते।

(बराह-ए-रास्त = सीधे - सीधे)

हम पहर-पहर बिताते हैं ज़िन्दगी अपनी
अगली पीढ़ी के लिये माल-ओ-ज़र नहीं रखते।

(माल-ओ-ज़र = धन-संपत्ति)

दिल में आये जो उसे कर गु़जरते हैं अक्सर
फ़िज़ूल बातों के अगरो-मगर नहीं रखते।

गो कि आकाश में उड़ते हैं परिंदे लेकिन
वो भी ताउम्र हवा में बसर नहीं रखते।

अपने कन्धों पे ही ढोते हैं ज़िन्दगी अपनी
किसी के शाने पे घबरा के सर नहीं रखते।

(शाने = कन्धे)

कुछ ज़रूरी गुनाह होते हैं हमसे भी कभी
पर उसे शर्म से हम ढाँक कर नहीं रखते।

हर पड़ोसी की ख़बर रखते हैं कोशिश करके
रूस-ओ-अमरीका की कोई ख़बर नहीं रखते।

हाँ ख़ुदा रखते हैं, करते हैं बन्दगी पैहम
मकीन-ए-दिल के लिये और घर नहीं रखते।

(पैहम = लगातार),  (मकीन-ए-दिल = दिल का निवासी)

घर फ़िराक़ और निराला का, है अक़बर का दियार
'अमित' के शेर क्या कोई असर नहीं रखते।

(दियार = इलाका)

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, April 16, 2020

अपना ही अक्स नज़र आती है अक्सर मुझको
वो हर इक चीज जो मिट्टी की बनी होती है

इतने अरमानो की गठरी लिये फिरते हो ’अमित’
उम्र इंसान की आख़िर कितनी होती है

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Sunday, April 12, 2020

न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर, रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र, तो निगाह में कोई बुरा न रहा

'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा, वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही, जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा

(साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का = समझदार/ पवित्र/ गुणी आदमी), (तैश = गुस्सा, क्रोध)

-बहादुर शाह ज़फ़र

Wednesday, December 18, 2019

मैं तो हर शख़्स में ख़ूबी तलाश लेता हूँ
मुझको हर सीप में गौहर दिखाई देता है
-मूसा मलीहाबादी

(गौहर = मोती)

Sunday, October 20, 2019

आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
सामान सौ बरस का है पल की ख़बर नहीं
-हैरत इलाहाबादी

(बशर = इंसान)

Tuesday, August 27, 2019

कर मुहब्बत के इसमें बुरा कुछ नहीं

कर मुहब्बत के इसमें बुरा कुछ नहीं
जुर्म कर ले है इसकी सज़ा कुछ नहीं।

उम्र भर की वो बैठा है फ़िक्रें लिए
कल का जिस आदमी को पता कुछ नहीं।

क़द्र अश्क़ों की कीजे के मोती हैं ये
इनसे बढ़ कर जहां में गरां कुछ नहीं।

(गरां = महंगा / कीमती)

सानिहा अब ये है देख कर ज़ुल्म भी
इन रगों में मगर खौलता कुछ नहीं।

(सानिहा = दुर्भाग्य/ विडम्बना)

बोलते हो अगर सच तो ये सोच लो
आज के दौर में है जज़ा कुछ नहीं।

(जज़ा = ईनाम / reward)

ज़िन्दगी जैसे बोझिल हैं अख़बार भी
रोज़ पढ़ते हैं लेकिन नया कुछ नहीं।

मैं सज़ा में बराबर का हक़दार हूँ
ज़ुल्म देखा है लेकिन कहा कुछ नहीं।

जानते सब हैं सब छूटना है यहीं
जीते जी तो मगर छूटता कुछ नहीं।

ज़िन्दगी उस मकां पे है "वाहिद' के अब
हसरतें कुछ नहीं मुद्दआ कुछ नहीं।

(मुद्दआ = matter / issue)

- विकास "वाहिद" २३ अगस्त २०१९

Friday, August 16, 2019

बुरा बुरे के अलावा भला भी होता है
हर आदमी में कोई दूसरा भी होता है

हम ऐ 'शुऊर' अकेले कभी नहीं होते
हमारे साथ हमारा ख़ुदा भी होता है

-अनवर शऊर

Tuesday, July 23, 2019

हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
नज़र नहीं तो अंधेरा है आदमी के लिए
-नुशूर वाहिदी

(फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, रौशन)

Saturday, July 20, 2019

भले मुख़्तसर है

भले मुख़्तसर है
सफ़र फिर सफ़र है।

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त)

जो हासिल नहीं है
उसी पर नज़र है।

यहां भीड़ में भी
अकेला बशर है।

(बशर = इंसान)

है कब लौट जाना
किसे ये ख़बर है।

ख़ता है अगर इश्क़
ख़ता दरगुज़र है।

(दरगुज़र = क्षमा योग्य)

तेरी मौत मंज़िल
वहीं तक सफ़र है।

- विकास"वाहिद"
१८/०७/२०१९

Saturday, June 29, 2019

यूँ तो हम ज़माने में कब किसी से डरते हैं
आदमी के मारे हैं, आदमी से डरते हैं
-"ख़ुमार" बाराबंकवी

Saturday, June 15, 2019

आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया

आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया
मैं इस क़दर उड़ा कि ख़लाओं में खो गया

(ख़लाओं = अँतरिक्षों)

कतरा रहे हैं आज के सुक़रात ज़हर से
इंसान मस्लहत की अदाओं में खो गया

(मस्लहत = समझदारी, हित, भलाई)

शायद मिरा ज़मीर किसी रोज़ जाग उठे
ये सोच के मैं अपनी सदाओं में खो गया

(सदाओं = आवाज़ों)

लहरा रहा है साँप सा साया ज़मीन पर
सूरज निकल के दूर घटाओं में खो गया

मोती समेट लाए समुंदर से अहल-ए-दिल
वो शख़्स बे-अमल था दुआओं में खो गया

(अहल-ए-दिल = दिल वाले), (बे-अमल = बिना कर्म के)

ठहरे हुए थे जिस के तले हम शिकस्ता-पा
वो साएबाँ भी तेज़ हवाओं में खो गया

(शिकस्ता-पा = मजबूर, असहाय, लाचार), (साएबाँ = शामियाना, मण्डप)

-कामिल बहज़ादी

Monday, June 3, 2019

बुझ गया दिल तो ख़बर कुछ भी नहीं

बुझ गया दिल तो ख़बर कुछ भी नहीं
अक्स-ए-आईने नज़र कुछ भी नहीं

(अक्स-ए-आईने = आईने का प्रतिबिम्ब)

शब की दीवार गिरी तो देखा
नोक-ए-नश्तर है सहर कुछ भी नहीं

(शब = रात), (सहर = सुबह), (नश्तर= शल्य क्रिया/ चीर-फाड़ करने वाला छोटा चाकू), (नोक-ए-नश्तर = चाकू की नोक)

जब भी एहसास का सूरज डूबे
ख़ाक का ढेर बशर कुछ भी नहीं

(बशर = इंसान)

एक पल ऐसा कि दुनिया बदले
यूँ तो सदियों का सफ़र कुछ भी नहीं

हर्फ़ को बर्ग-ए-नवा देता हूँ
यूँ मिरे पास हुनर कुछ भी नहीं

(हर्फ़ = अक्षर), (नवा = गीत, आवाज़, शब्द), (बर्ग = पत्ती), (बर्ग-ए-नवा = आवाज़ की पत्ती, Leaf of voice)

-खलील तनवीर

Sunday, May 26, 2019

आसान सी ये बात समझ क्यूँ नहीं आती
इन्सान को मिलता नहीं क़िस्मत से ज़ियादा

क़तरे के एवज़ इशरत-ए-दरिया न तलब कर
मेहनत का सिला माँग न उजरत से ज़ियादा

-ज़ीशान अल्वी

(एवज़ = बदले),  (इशरत-ए-दरिया = ख़ुशी का दरिया), (उजरत = मज़दूरी)

Wednesday, May 22, 2019

फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
उस ख़ौफ़ का किसी ने ख़ुदा नाम रख दिया

(मुबहम = छुपा हुआ, अस्पष्ट, धुँधला)

मुफ़लिस को अहल-ए-ज़र ने भी क्या क्या दिए फ़रेब
अपनी जफ़ा का हुक्म-ए-ख़ुदा नाम रख दिया

(मुफ़लिस = ग़रीब), (अहल-ए-ज़र = अमीर, पैसे वाले लोग), (जफ़ा = ज़ुल्म, अत्याचार)

- गोपाल मित्तल

Monday, May 20, 2019

जिन से इंसाँ को पहुँचती है हमेशा तकलीफ़
उन का दावा है कि वो अस्ल ख़ुदा वाले हैं
-अब्दुल हमीद अदम

Saturday, May 11, 2019

बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना

बद-गुमाँ मुझ से न ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ होना
मेरी आदत है ख़िज़ाँ में भी गुल-अफ़शाँ होना

(फ़स्ल-ए-बहाराँ = बहार का मौसम), (ख़िज़ाँ = पतझड़), ( गुल-अफ़शाँ = फूलों का बिखरना)

ये तो मुमकिन है किसी रोज़ ख़ुदा बन जाए
ग़ैर मुमकिन है मगर शैख़ का इंसाँ होना

अपनी वहशत की नुमाइश मुझे मंज़ूर न थी
वर्ना दुश्वार न था चाक-गिरेबाँ होना

रहरव-ए-शौक़ को गुमराह भी कर देता है
बाज़ औक़ात किसी राह का आसाँ होना

(रहरव = पथिक, बटोही, मुसाफ़िर)

क्यूँ गुरेज़ाँ हो मिरी जान परेशानी से
दूसरा नाम है जीने का परेशाँ होना

(गुरेज़ाँ = पलायन, भागना)

जिन को हमदर्द समझते हो हँसेंगे तुम पर
हाल-ए-दिल कह के न ऐ 'शाद' पशीमाँ होना

(पशीमाँ = लज्जित, शर्मिंदा)

-नरेश कुमार शाद