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Friday, July 31, 2020

कुछ मरासिम तो निभाया कीजिए

कुछ मरासिम तो निभाया कीजिए
कम से कम ख़्वाबों में आया कीजिए।

(मरासिम = मेल-जोल, प्रेम-व्यवहार, संबंध)

चाहिए सबको यहां खुशरंग शै
कर्ब चेहरे पे न लाया कीजिए।

(कर्ब = पीड़ा, दर्द, दुःख, बेचैनी)

जिसके दर से चल रहा है ये जहां
उसके दर पे सर झुकाया कीजिए।

ज़िन्दगी है चार दिन का इक सफ़र
इसको नफ़रत में न ज़ाया कीजिए।

(ज़ाया = बर्बाद,नष्ट)

उम्र भर को घर बना लेती है फिर
बात दिल से मत लगाया कीजिए।

उसके दर पे रोज़ जा के बैठिए
रोज़ क़िस्मत आज़माया कीजिए।

दिन की सारी फ़िक्र बाहर छोड़ कर
हंसता चेहरा घर पे लाया कीजिए।

- विकास वाहिद
25/7/20

Friday, May 8, 2020

होश में जब से हूं मैं ये सिलसिला चलता रहा

होश में जब से हूं मैं ये सिलसिला चलता रहा
मैं जहां पर और मुझ पर ये जहां हँसता रहा

थी किसे ये फ़िक्र रिश्ता टूट जाए या निभे
हमने चाहा था निभाना इसलिए निभता रहा

रह सकें परिवार वाले जिंदा बस ये सोच कर
बा जरूरत थोड़ा थोड़ा रोज़ वो बिकता रहा

याद हो पाया न मुझसे पाठ दुनियादारी का
रटने को तो रोज यारो मैं इसे रटता रहा

ढूंढ ही लेता है जालिम दुख मुझे हर हाल में
पीठ पीछे सुख की यारो लाख मैं छिपता रहा

-हस्तीमल हस्ती

Thursday, January 24, 2019

दिल से अगर कभी तिरा अरमान जाएगा

दिल से अगर कभी तिरा अरमान जाएगा
घर को लगा के आग ये मेहमान जाएगा

सब होंगे उस से अपने तआरुफ़ की फ़िक्र में
मुझ को मिरे सुकूत से पहचान जाएगा

(सुकूत = मौन, चुप्पी, ख़ामोशी)

इस कुफ़्र-ए-इश्क़ से मुझे क्यूँ रोकते हो तुम
ईमान वालो मेरा ही ईमान जाएगा

आज उस से मैं ने शिकवा किया था शरारतन
किस को ख़बर थी इतना बुरा मान जाएगा

अब इस मक़ाम पर हैं मिरी बे-क़रारियाँ
समझाने वाला हो के पशेमान जाएगा

 (पशेमान = शर्मिंदा)

दुनिया पे ऐसा वक़्त पड़ेगा कि एक दिन
इंसान की तलाश में इंसान जाएगा

-फ़ना निज़ामी कानपुरी

Saturday, May 7, 2016

चलो उन राहों पे जिनपे कोई चला न हो

चलो उन राहों पे जिनपे कोई चला न हो
करो भला भले खुद का कोई भला न हो

मिलो सभी से हरदम मुस्कुराते हुए
तुमसे हंसकर चाहे कोई मिला न हो

हर फ़िक्र भुला के जियो इस तरह
सिर्फ खुशियां हों कोई मसअला न हो

हमदर्द बन के मिलो उस बागबां से
फूल चमन में जिसके कोई खिला न हो

बन के नूर छा जाओ अंधेरों पे तुम
चराग़ जिन घरों में कभी जला न हो

बिखर जाएगा दामन पे बन के अब्र
वो अश्क़ जो मोतियों में ढला न हो

आंधियां हालात की उड़ा ले जाएंगीं उसे
फौलाद हो के जो आग से निकला न हो

गैर के दर्द से क्या होंगीं आँखे नम
मोम की मानिंद जो कभी पिघला न हो

हर एक से दुखी रहेगा ज़माने में वो
साथ ज़माने के जो कभी बदला न हो

ये हुनर तुमको सिखाएगा 'विकास'
कैसे हंसना जैसे किसी ने छला न हो

- विकास वाहिद

Wednesday, February 24, 2016

इसीलिए तो किसी ने हमें बचाया नहीं

इसीलिए तो किसी ने हमें बचाया नहीं
कि डूबते हुए हम ने उन्हें बुलाया नहीं

हमें था खौफ़ कहीं यार कम न हो जाएँ
सो मुश्किलों में किसी को भी आज़माया नहीं

ये खोये खोये से रहते हैं क्यूँ हमेशा हम
किसी ने पूछा नहीं, हम ने भी बताया नहीं

बहुत दिनों से मिरी खिड़कियाँ मुक़फ़्फ़ल हैं
बहुत दिनों से से इधर चाँद जगमगाया नहीं

(मुक़फ़्फ़ल = जिसमें ताला पड़ा हो)

बहुत दिनों से मिले ही नहीं हैं हम खुद से
बहुत दिनों से कोई शख्स याद आया नहीं

अब उसकी फ़िक्र सताने लगी हवाओं को
वो इक चराग़ जो हम ने अभी जलाया नहीं

अभी से हो गये हैरान क्यूँ तमाशा-गर
अभी तो हम ने कोई खेल भी दिखाया नहीं

किसी को हम ने कभी याद कब किया 'आलम'
मगर जो याद हुआ हो उसे भुलाया नहीं

-आलम खुर्शीद

Saturday, May 23, 2015

मोड़ कर अपने अन्दर की दुनिया से मुँह, हम भी दुनिया-ए-फ़ानी के हो जाएँ क्या

मोड़ कर अपने अन्दर की दुनिया से मुँह, हम भी दुनिया-ए-फ़ानी के हो जाएँ क्या
जान कर भी कि ये सब हक़ीक़त नहीं, झूटी-मूटी कहानी के हो जाएँ क्या

(दुनिया-ए-फ़ानी = नश्वर/ नष्ट होने वाली दुनिया)

कब तलक बैठे दरिया किनारे यूँ ही, फ़िक्र दरिया के बारे में करते रहें
डाल कर अपनी कश्ती किसी मौज पर, हम भी उसकी रवानी के हो जाएँ क्या

सोचते हैं कि हम अपने हालात से, कब तलक यूँ ही तकरार करते रहें
हँसके सह जाएँ क्या वक़्त का हर सितम, वक़्त की मेहरबानी के हो जाएँ क्या

ज़िन्दगी वो जो ख़्वाबों-ख़्यालों में है, वो तो शायद मयस्सर न होगी कभी
ये जो लिक्खी हुई इन लकीरों में है, अब इसी ज़िन्दगानी के हो जाएँ क्या

हमने ख़ुद के मआनी निकाले वही, जो समझती रही है ये दुनिया हमें
आईने में मआनी मगर और हैं, आईने के मआनी के हो जाएँ क्या

हमने सारे समुन्दर तो सर कर लिए, उनके सारे ख़ज़ाने भी हाथ आ चुके
अब ज़रा अपने अन्दर का रुख़ करके हम, दूर तक गहरे पानी के हो जाएँ क्या


-राजेश रेड्डी

Wednesday, May 20, 2015

हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं

हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं
अबके किरदार किसी और कहानी में हूँ मैं

जैसे सब होते हैं वैसे ही हुआ हूँ मैं भी
अब कहाँ अपनी किसी ख़ास निशानी में हूँ मैं

ख़ुद को जब देखूँ तो साहिल पे कहीं बैठा मिलूँ
ख़ुद को जब सोचूँ तो दरिया की रवानी में हूँ मैं

(साहिल = किनारा)

ज़िन्दगी, तू कोई दरिया है कि सागर है कोई
मुझको मालूम तो हो कौन से पानी में हूँ मैं

जिस्म तो जा भी चुका उम्र के उस पार मेरा
फ़िक्र कहती है मगर अब भी जवानी में हूँ मैं

आप तो पहले ही मिसरे में उलझ कर रह गए
मुंतज़िर कब से यहाँ मिना-ए-सानी में हूँ मैं

(मिसरा = शेर की पहली पंक्ति), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (मिना-ए-सानी = कुर्बानी के स्थान के बराबर)

पढ़के अशआर मेरे बारहा कहती है ग़ज़ल
कितनी महफ़ूज़ तेरी जादू-बयानी में हूँ मैं

(बारहा = बार बार), (महफ़ूज़ = सुरक्षित)

-राजेश रेड्डी

Sunday, March 22, 2015

न डगमगाए हम कभी वफ़ा के रस्ते में

न डगमगाए हम कभी वफ़ा के रस्ते में
चराग़ हमने जलाए वफ़ा के रस्ते में

किसे लगाए गले और कहाँ कहाँ ठहरे
हज़ार गुंचा-ओ-गुल हैं सबा के रस्ते में

(गुंचा-ओ-गुल = कली और फूल), (सबा = बयार, हवा)

ख़ुदा का नाम कोई ले तो चौंक उठते हैं
मिले हैं हमको वो रहबर ख़ुदा के रस्ते में

(रहबर = रास्ता दिखाने वाला, पथप्रदर्शक)

कहीं सलासिल-ए-तस्बीह और कहीं जुन्नार
बिछे हैं दाम बहुत मुद्दआ के रस्ते में

(सलासिल-ए-तस्बीह = जपमाला की ज़ंजीर), (जुन्नार = यज्ञोपवीत, जनेऊ), (दाम = जाल), (मुद्दआ़ = उद्देश्य, मक़सद)

अभी वो मंज़िल-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र नहीं आई
है आदमी अभी जुर्म-ओ-सज़ा के रस्ते में

(मंज़िल-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र = चिंतन और परख की मंज़िल)

हैं आज भी वही दार-ओ-रसन वही ज़िन्दाँ
हर एक निगाह-ए-रुमूज़ आश्ना के रस्ते में

(दार-ओ-रसन = फाँसी का फंदा और रस्सी), (ज़िन्दाँ = जेल, कारागार), (निगाह-ए-रुमूज़ = रहस्यपूर्ण नज़रें), (आश्ना = मित्र/ दोस्त, प्रेमी/ प्रेमिका, परिचित)

ये नफ़रतों की फ़सीलें, जहालतों के हिसार
न रह सकेंगे हमारी सदा के रस्ते में

(फ़सीलें = परकोटे, चारदीवारी), (जहालतों के हिसार = अज्ञान के किले), (सदा = आवाज़)

मिटा सके न कोई सैल-ए-इंक़लाब जिन्हें
वो नक़्श छोड़े हैं हमने वफ़ा के रस्ते में

(सैल-ए-इंक़लाब = क्रांति का प्रवाह), (नक़्श = निशान)

ज़माना एक सा 'जालिब' सदा नहीं रहता
चलेंगे हम भी कभी सर उठा के रस्ते में

-हबीब जालिब

Monday, December 29, 2014

वक़्त

ये वक़्त क्या है?
ये क्या है आख़िर
कि जो मुसलसल गुज़र रहा है                       (मुसलसल = लगातार)
ये जब न गुज़रा था, तब कहाँ था
कहीं तो होगा
गुज़र गया है तो अब कहाँ है
कहीं तो होगा
कहाँ से आया किधर गया है
ये कब से कब तक का सिलसिला है
ये वक़्त क्या है

ये वाक़ये                                                      (वाक़ये = घटनाएँ)
हादसे                                                           (हादसे = दुर्घटनाएँ)
तसादुम                                                       (तसादुम = संघर्ष,टकराव)
हर एक ग़म और हर इक मसर्रत                   (मसर्रत = हर्ष, आनंद, ख़ुशी)
हर इक अज़ीयत हरेक लज़्ज़त                      (अज़ीयत = तकलीफ़), (लज़्ज़त = आनंद)
हर इक तबस्सुम हर एक आँसू                      (तबस्सुम = मुस्कराहट)
हरेक नग़मा हरेक ख़ुशबू                                (नग़मा = गीत)
वो ज़ख़्म का दर्द हो
कि वो लम्स का हो ज़ादू                                 (लम्स = स्पर्श)
ख़ुद अपनी आवाज हो
कि माहौल की सदाएँ                                     (सदाएँ = आवाज़ें)
ये ज़हन में बनती
और बिगड़ती हुई फ़िज़ाएँ                              (फ़िज़ा = वातावरण)
वो फ़िक्र में आए ज़लज़ले हों                          (ज़लज़ले = भूचाल)
कि दिल की हलचल
तमाम एहसास सारे जज़्बे
ये जैसे पत्ते हैं
बहते पानी की सतह पर जैसे तैरते हैं
अभी यहाँ हैं अभी वहाँ है
और अब हैं ओझल
दिखाई देता नहीं है लेकिन
ये कुछ तो है जो बह रहा है
ये कैसा दरिया है
किन पहाड़ों से आ रहा है
ये किस समन्दर को जा रहा है
ये वक़्त क्या है

कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ
कि चलती गाड़ी से पेड़ देखो
तो ऐसा लगता है दूसरी सम्त जा रहे हैं                 (सम्त = दिशा, ओर)
मगर हक़ीक़त में पेड़ अपनी जगह खड़े हैं
तो क्या ये मुमकिन है
सारी सदियाँ क़तार अंदर क़तार                           (क़तार अंदर क़तार = पंक्ति दर पंक्ति)
अपनी जगह खड़ी हों
ये वक़्त साकित हो और हम हीं गुज़र रहे हों          (साकित = ठहरा हुआ)
इस एक लम्हें में सारे लम्हें
तमाम सदियाँ छुपी हुई हों
न कोई आइन्दा न गुज़िश्ता                                  (आइन्दा = भविष्य), (गुज़िश्ता = भूतकाल)
जो हो चुका है वो हो रहा है
जो होने वाला है हो रहा है
मैं सोचता हूँ कि क्या ये मुमकिन है
सच ये हो कि सफ़र में हम हैं
गुज़रते हम हैं
जिसे समझते हैं हम गुज़रता है
वो थमा है
गुज़रता है या थमा हुआ है
इकाई है या बंटा हुआ है
है मुंज़मिद या पिघल रहा है                                 (मुंज़मिद = जमा हुआ)
किसे ख़बर है किसे पता है
ये वक़्त क्या है

ये कायनात-ए-अजीम                                         (कायनात-ए-अजीम = विशाल ब्रम्हांड)
लगता है
अपनी अज़मत से                                                (अज़मत = महानता)
आज भी मुतमइन नहीं है                                      (मुतमइन = संतुष्ट)
कि लम्हा लम्हा                                                    (लम्हा लम्हा = पल पल)
वसीइतर और वसीइतर होती जा रही है                  (वसीइतर = विशाल)
ये अपनी बाँहें पसारती है
ये कहकशाँओं की उँगलियों से                                (कहकशाँओं = आकाशगंगाओं)
नए ख़लाओं को छू रही है                                        (ख़लाओं = अँतरिक्षों)
अगर से सच है
तो हर तसव्वुर की हद से बाहर                               (तसव्वुर = कल्पना, ख़याल)
मगर कहीं पर
यक़ीनन ऐसा कोई ख़ला है                                      (यक़ीनन = निस्संदेह), (ख़ला = आकाश)
कि जिसको
इन कह्कशाँओं की उँगलियों ने
अब तक छुआ नहीं है
ख़ला
जहाँ कुछ हुआ नहीं है
ख़ला
कि जिसने अभी किसी से भी 'कुन' सुना नहीं है   (कुन = 'हो जा' - ऐसा माना जाता है कि ईश्वर के
जहाँ अभी तक ख़ुदा नहीं है                                 इन शब्दों से सृष्टि की रचना हुई थी)
वहाँ कोई वक़्त भी न होगा
ये कायनात-ए-अजीम
इक दिन छुएगी
उस अनछुऐ ख़ला को
और अपने सारे वुजूद से                                       (वुजूद = आस्तित्व)
जब पुकारेगी
'कुन'
तो वक़्त को भी जनम मिलेगा
अगर जनम है तो मौत भी है
मैं सोचता हूँ
ये सच नहीं है
कि वक़्त की कोई इब्तिदा है न इंतिहा है                 (इब्तिदा = आदि, आरम्भ), (इंतिहा = अंत)
ये डोर लम्बी बहुत है लेकिन
कहीं तो इस डोर का सिरा है
अभी ये इन्सां उलझ रहा है
कि वक़्त के इस क़फ़स में पैदा हुआ                        (क़फ़स = पिंजरा)
यहीं वो पला बढ़ा है
मगर उसे इल्म हो गया है                                        (इल्म = ज्ञान)
कि वक़्त के इस क़फ़स से बाहर भी
इक फ़िज़ा है
तो सोचता है
वो पूछता है
ये वक़्त क्या है

-जावेद अख़्तर


Saturday, November 1, 2014

फ़िक्र-ए-मआश-ओ-इश्क़-ए-बुताँ, याद-ए-रफ़्तगाँ
इस ज़िन्दगी में अब कोई क्या क्या किया करे

-सौदा

फ़िक्र-ए-मआश-ओ-इश्क़-ए-बुताँ, याद-ए-रफ़्तगाँ
मय इस हिसाब से तो बहुत कम है दोस्तों

-ताज भोपाली

फ़िक्र-ए-मआश-ओ-इश्क़-ए-बुताँ, याद-ए-रफ़्तगाँ
इन मुश्किलों से अहद-बरआई न हो सकी

-तिलोकचन्द महरूम

फ़िक्र-ए-मआश = आजीविका/ कमाई की चिंता
इश्क़-ए-बुताँ = महबूब से प्रेम
याद-ए-रफ़्तगाँ = गुज़री हुई यादें
अहद-बरआई = वादा निभाना


Fikr-e-ma'aash-O-ishq-e-butaaN, yaad-e-raftgaaN
Is zindagi me ab koi kya kya kiya kare

-Sauda

Fikr-e-ma'aash-O-ishq-e-butaaN, yaad-e-raftgaaN
May is hisaab se to bahut kam hai doston

-Taj Bhopali

Fikr-e-ma'aash-O-ishq-e-butaaN, yaad-e-raftgaaN
In mushkilon se ahad-bar'aa'ii na ho saki

-Tilokchand Mahroom

Fikr-e-ma'aash = Concern/ worry about livelihood
ishq-e-butaaN = Love of idols/ beauties
yaad-e-raftgaaN = Memory of goneby days
ahad-bar'aa'ii = Keeping promise

Saturday, August 30, 2014

फ़ासला तो है मगर, कोई फ़ासला नहीं
मुझ से तुम जुदा सही, दिल से तो जुदा नहीं

आसमाँ की फ़िक्र क्या, आसमाँ ख़फ़ा सही
आप ये बताइये, आप तो ख़फ़ा नहीं

(ख़फ़ा = नाराज़)

कारवाँ-ए-आरज़ू इस तरफ़ ना रुख़ करे
उन की रहगुज़र है दिल, आम रास्ता नहीं

(कारवाँ-ए-आरज़ू = इच्छाओं का काफ़िला), (रहगुज़र = राहगुज़र = रास्ता, मार्ग सड़क)

कश्तियाँ नहीं तो क्या, हौसले तो पास हैं 
कह दो नाख़ुदाओं से, तुम कोई ख़ुदा नहीं 

(नाख़ुदा = नाविक, मल्लाह)

लीजिये बुला लिया आपको ख़याल में 
अब तो देखिये हमें, कोई देखता नहीं  

इक शिकस्त-ए-आईना बन गयी है सानेहा
टूट जाए दिल अगर, कोई हादसा नहीं

(शिकस्त-ए-आईना = आईने का टूटना), (सानेहा = आपत्ति, मुसीबत, दुर्घटना)

आइये चराग़-ए-दिल आज ही जलाएँ हम
कैसी कल हवा चले, कोई जानता नहीं

(चराग़-ए-दिल =  दिल के दीपक)

किस लिए 'शमीम' से इतनी बद-गुमानियाँ
मिल के देखिये कभी, आदमी बुरा नहीं

(बद-गुमानियाँ = बुरे ख़्याल रखना, कुधारणा

-शमीम करहानी 

Wednesday, July 16, 2014

सलाम उस पर अगर ऐसा कोई फनकार हो जाए
सियाही ख़ून बन जाए कलम तलवार हो जाए

ज़माने से कहो कुछ साएका-रफ्तार हो जाए
हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो जाए

ज़माने को तमन्ना है तेरा दीदार करने की
मुझे ये फ्रिक है मुझ को मेरा दीदार हो जाए

वो जुल्फें साँप हैं बे-शक अगर ज़ंजीर बन जाएँ
मोहब्बत ज़हर है बे-शक अगर आज़ार हो जाए

मोहब्बत से तुम्हें सरकार कहते हैं वगरना हम
निगाहें डाल दें जिस पर वही सरकार हो जाए
-कैफ़ भोपाली

Saturday, May 24, 2014

फ़िक्रमंद रहा ताउम्र, के अब लिखूं की तब
मंदी का दौर है के लफ़्ज़ गुज़रते नहीं

(लफ़्ज़ = शब्द)

या उन्स का मौसम है चौखट पे खड़ा
के बात ना हो जब तलक़ दिन गुज़रते नहीं

(उन्स = प्यार, प्रेम)

-रूपा भाटी

Wednesday, July 3, 2013

रहें बेफिक्र कैसे

रहें बेफिक्र कैसे आओ इसका राज़ हम सीखें,
परिंदों से नया जीने का ये अंदाज़ हम सीखें ।
कोइ रुत हो, कोई मौसम, हवा प्रतिकूल हो चाहे,
चलो अम्बर को छू लेने की वो परवाज़ हम सीखें।
-आर० सी० शर्मा "आरसी"

Tuesday, May 28, 2013

कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ कि मुझको तेरी तलाश क्यों है
कि जब है सारे ही तार टूटे तो साज़ में इरतेआश क्यों है

(इरतेआश = कंपन)

कोई अगर पूछता ये हमसे, बताते हम गर तो क्या बताते
भला हो सब का कि ये न पूछा कि दिल पे ऐसी ख़राश क्यों है

उठाके हाथो से तुमने छोड़ा, चलो न दानिस्ता तुमने तोड़ा
अब उल्टा हमसे तो ये न पूछो कि शीशा ये पाश-पाश क्यों है

[(दानिस्ता = जान-बूझकर), (पाश-पाश = चूर-चूर)]

अजब दोराहे पे ज़िन्दगी है, कभी हवस दिल को ख़ीचती है
कभी ये शर्मिन्दगी है दिल में कि इतनी फ़िक़्रे-मआश क्यों है

(फ़िक़्रे-मआश = आजीविका की चिंता)

न फ़िक़्र् कोई न जुस्तजू है, न ख़्वाब कोई न आरज़ू है
ये शख़्स तो कब का मर चुका है, तो बेक़फ़न फ़िर ये लाश क्यों है

(जुस्तजू = खोज, तलाश)

-जावेद अख़्तर

Saturday, May 4, 2013

थे केक की फ़िक्र में सो रोटी भी गई,
चाही थी शै बड़ी सो छोटी भी गई ।
वाइज़ की नसीहतें न मानी आख़िर,
पतलून की ताक में लंगोटी भी गई ।
-अकबर इलाहाबादी

Monday, January 14, 2013

अफ़वाह थी कि मेरी तबीयत खराब है,
लोगों ने पूछ पूछ के बीमार कर दिया।

दो गज़ सही, मगर ये मेरी मिल्कियत तो है,
ए मौत तूने मुझको ज़मींदार कर दिया।

(मिल्कियत = स्वामित्व, अधिकार)

-राहत इन्दौरी

Thursday, October 11, 2012

मैं चलते-चलते इतना थक गया हूँ, चल नहीं सकता,
मगर मैं सूर्य हूँ, संध्या से पहले ढल नहीं सकता

मैं ये अहसास लेकर, फ़िक्र करना छोड़ देता हूँ,
जो होना है, वो होगा ही, कभी वो टल नहीं सकता
-कुँअर बेचैन

Friday, September 28, 2012

ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

-अल्लामा इक़बाल

(ख़िर्द-मंदों = बुद्धिमानों, अक्लमंदों), (इब्तिदा = प्रारम्भ, आरम्भ, शुरूआत), (इन्तिहा = अंत, आखिरी हद या छोर ), (रज़ा - इच्छा, तमन्ना, ख़्वाहिश)