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Wednesday, December 29, 2021

सोते सोते चौंक पड़े हम ख़्वाब में हम ने क्या देखा

सोते सोते चौंक पड़े हम ख़्वाब में हम ने क्या देखा 
जो ख़ुद हम को ढूँढ रहा हो ऐसा इक रस्ता देखा 

दूर से इक परछाईं देखी अपने से मिलती-जुलती 
पास से अपने चेहरे में भी और कोई चेहरा देखा 

सोना लेने जब निकले तो हर हर ढेर में मिट्टी थी 
जब मिट्टी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा 

सूखी धरती सुन लेती है पानी की आवाज़ों को 
प्यासी आँखें बोल उठती हैं हम ने इक दरिया देखा 

आज हमें ख़ुद अपने अश्कों की क़ीमत मालूम हुई 
अपनी चिता में अपने-आप को जब हम ने जलता देखा 

चाँदी के से जिन के बदन थे सूरज के से मुखड़े थे 
कुछ अंधी गलियों में हम ने उन का भी साया देखा 

रात वही फिर बात हुई ना हम को नींद नहीं आई 
अपनी रूह के सन्नाटे से शोर सा इक उठता देखा 

-ख़लील-उर-रहमान आज़मी

Sunday, May 10, 2020

बे-हद बेचैनी है लेकिन मक़्सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं

बे-हद बेचैनी है लेकिन मक़्सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं
पाना खोना हँसना रोना क्या है आख़िर कुछ भी नहीं

अपनी अपनी क़िस्मत सब की अपना अपना हिस्सा है
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामाँ रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं

उस की बाज़ी उस के मोहरे उस की चालें उस की जीत
उस के आगे सारे क़ादिर माहिर शातिर कुछ भी नहीं

(क़ादिर = शक्तिशाली और समर्थवान, भाग्यवान)

उस का होना या ना होना ख़ुद में उजागर होता है
गर वो है तो भीतर ही है वर्ना ब-ज़ाहिर कुछ भी नहीं

दुनिया से जो पाया उस ने दुनिया ही को सौंप दिया
ग़ज़लें नज़्में दुनिया की हैं क्या है शाइर कुछ भी नहीं

-दीप्ति मिश्रा

Sunday, April 19, 2020

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते
चिराग़ रखते हैं, शम्स-ओ-क़मर नहीं रखते।

 (शम्स-ओ-क़मर = सूरज और चन्द्रमा)

हमने रूहों पे जो दौलत की जकड़ देखी है
डर के मारे ये बला अपने घर नहीं रखते।

है नहीं कुछ भी प ग़ैरत प आँच आये तो
सबने देखा है के कोई कसर नहीं रखते।

इल्म रखते हैं कि इंसान को पहचान सकें
उनकी जेबों को भी नापें, हुनर नहीं रखते।

बराह-ए-रास्त बताते हैं इरादा अपना
मीठे लफ़्जों में छुपा कर ज़हर नहीं रखते।

(बराह-ए-रास्त = सीधे - सीधे)

हम पहर-पहर बिताते हैं ज़िन्दगी अपनी
अगली पीढ़ी के लिये माल-ओ-ज़र नहीं रखते।

(माल-ओ-ज़र = धन-संपत्ति)

दिल में आये जो उसे कर गु़जरते हैं अक्सर
फ़िज़ूल बातों के अगरो-मगर नहीं रखते।

गो कि आकाश में उड़ते हैं परिंदे लेकिन
वो भी ताउम्र हवा में बसर नहीं रखते।

अपने कन्धों पे ही ढोते हैं ज़िन्दगी अपनी
किसी के शाने पे घबरा के सर नहीं रखते।

(शाने = कन्धे)

कुछ ज़रूरी गुनाह होते हैं हमसे भी कभी
पर उसे शर्म से हम ढाँक कर नहीं रखते।

हर पड़ोसी की ख़बर रखते हैं कोशिश करके
रूस-ओ-अमरीका की कोई ख़बर नहीं रखते।

हाँ ख़ुदा रखते हैं, करते हैं बन्दगी पैहम
मकीन-ए-दिल के लिये और घर नहीं रखते।

(पैहम = लगातार),  (मकीन-ए-दिल = दिल का निवासी)

घर फ़िराक़ और निराला का, है अक़बर का दियार
'अमित' के शेर क्या कोई असर नहीं रखते।

(दियार = इलाका)

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, January 23, 2020

सब मिला इस राह में

सब मिला इस राह में
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।

चाह तारों की कहाँ
जब गगन ही आँचल बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए
पथिक को फिर क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं,
कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय में सागर समाया, हर लहर जीवन सुधा हो

धूप में चमके मगर
है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना ।।

जल रही मद्धम कहीं अब भी
पुरानी ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर
गंध सोंधी सी प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस क्षण
कई तरुवर बन तने थे,
एक दिशा विहीन सरिता रुक गयी निर्बाध गति की।

मन कहीं भागे नहीं
फिर से किसी हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना ।।

काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के
उत्तर खोजता,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात
अब क्या सोचता,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को,
समझ पाने के प्रयासों को
भला क्यों कोसता,

शांत हो चित धीर स्थिर मन,
हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना ।।

-मानोशी

Monday, September 9, 2019

इस जिस्म की निभी ही नहीं रूह़ से कभी
झगड़ा रहा मकान का अपने मकीं के साथ
- राजेश रेड्डी

(मकीं = मकान में रहने वाला, निवासी)

Friday, April 26, 2019

कब हुई फिर सुब्ह कब ये रात निकली

कब हुई फिर सुब्ह कब ये रात निकली
कल तेरी जब बात से फिर बात निकली।

जुर्म तुझको याद करने का किया फिर
करवटें बदलीं कई तब रात निकली।

आज़मा के देख ली दुनिया भी हमने
ना कोई सौग़ात ना ख़ैरात निकली।

रंग निकला है शराफ़त का ही पहले
आदमी की अस्ल फिर औक़ात निकली।

जिस्म भीगा पर न भीगी रूह अब तक
इस बरस भी राएगां बरसात निकली।

(राएगां = व्यर्थ)

- विकास वाहिद
२५/४/१९

Thursday, January 24, 2019

जाने वाले मुझे कुछ अपनी निशानी दे जा
रूह प्यासी न रहे, आँख में पानी दे जा
-मिदहत-उल-अख़्तर

Thursday, June 22, 2017

दर्द की इन्तेहाँ हो गई

दर्द की इन्तेहाँ हो गई
आह भी बेज़ुबां हो गई

हाथ ना आ सकी उम्र भर
हर ख़ुशी आसमां हो गई

ऐ सुकूं बस तेरी चाह में
ज़िन्दगी रायगाँ हो गई

 (रायगाँ = व्यर्थ)

बाद मुद्दत के जब वो मिले
फिर मुहब्बत जवां हो गईं

मुस्कुराते रहे लब मगर
आँख आबे रवां हो गई

 (आबे रवां = बहता पानी)

छुप सकी ना हकीकत कभी
चेहरे से अयां हो गई

 (अयां = प्रकट)

जिस्म जलता रहा उम्र भर
रूह जो थी धुआं हो गई

सांस बस मुस्कुराती रही
ज़िन्दगी बदगुमां हो गई

लफ्ज़ यूं गुम हुए हैं मेरे
अनकही दास्तां हो गई

- विकास वाहिद

Friday, November 18, 2016

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है
जो दर्द है वो रूह की गहराइयों में है

जिस को कभी ख़याल का पैकर न मिल सका
वो अक्स मेरे ज़ेहन की रानाइयों में है

(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख), (अक्स = प्रतिबिम्ब, छाया, चित्र), (रानाई/ रअनाई = बनाव-श्रृंगार)

कल तक तो ज़िंदगी थी तमाशा बनी हुई
और आज ज़िंदगी भी तमाशाइयों में है

है किस लिए ये वुसअत-ए-दामान-ए-इल्तिफ़ात
दिल का सुकून तो इन्ही तन्हाइयों में है

(वुसअत-ए-दामान-ए-इल्तिफ़ात = प्यार/ कृपा का विस्तार)

ये दश्त-ए-आरज़ू है यहाँ एक एक दिल
तुझ को ख़बर भी है तिरे सौदाइयों में है

(दश्त-ए-आरज़ू = तमन्ना/ ख़्वाहिश का जंगल), (सौदाई = पागल, बावला)

तन्हा नहीं है ऐ शब-ए-गिर्यां दिए की लौ
यादों की एक शाम भी परछाइयों में है

(शब-ए-गिर्यां = दुःख/ रोने की रात)

'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर
वो ज़हर पी के देख जो सच्चाइयों में है

(मस्लहत = समझदारी, हित, भलाई)

-गुलनार आफ़रीन

Thursday, November 10, 2016

ख़ुश-रंग पैरहन से बदन तो चमक उठे
लेकिन सवाल रूह की ताबानियों का है

(पैरहन = लिबास), (ताबानी = प्रकाश, आभा, ज्योति, रौशनी)

होती हैं दस्तयाब बड़ी मुश्किलों के बाद
'शाहिद' हयात नाम जिन आसानियों का है

(दस्तयाब = प्राप्त, उपलब्ध, हासिल), (हयात = जीवन)

-शाहिद मीर

Thursday, October 20, 2016

ढूँढता फिरता हूँ ख़ुद अपनी बसारत की हुदूद
खो गई हैं मिरी नज़रें मिरी बिनाई में

(बसारत = देखने की शक्ति, दृष्टि), (हुदूद = हदें), (बिनाई = आँखों की ज़्योति)

किस ने देखे हैं तिरी रूह के रिसते हुए ज़ख़्म
कौन उतरा है तिरे क़ल्ब की गहराई में
-रईस अमरोहवी

(क़ल्ब = मर्मस्थल, ह्रदय, दिल)

Sunday, September 25, 2016

ख़ून अपना हो या पराया हो

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर

(नस्ल-ए-आदम = इंसान का वंश), (मग़रिब = पश्चिम), (मशरिक = पूर्व),(अम्न-ए-आलम = दुनिया की शांति)

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

(रूह-ए-तामीर = आत्मा का निर्माण), (ज़ीस्त = जीवन)

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

-साहिर लुधियानवी

Wednesday, June 15, 2016

इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है

इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है
दिल में अब तक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

जुर्म-ए-तौहीन-ए-मोहब्बत की सज़ा दे मुझको
कुछ तो महरूम-ए-उल्फ़त का सिला दे मुझको
जिस्म से रूह का रिश्ता नहीं टूटा है अभी
हाथ से सब्र का दामन नहीं छूटा है अभी
अभी जलते हुये ख़्वाबों का धुंआ बाक़ी है

इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है
दिल में अबतक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

अपनी नफ़रत से मेरे प्यार का दामन भर दे
दिल-ए-गुस्ताख़ को महरूम-ए-मोहब्बत कर दे
देख टूटा नहीं चाहत का हसीं ताजमहल
आ के बिखरे नहीं महकी हुयी यादों के कँवल
अभी तक़दीर के गुलशन में ख़िज़ा बाकी है

-शायर: नामालूम


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन 








Shafqat Amanat Ali/ शफ़क़त अमानत अली 


ये दुनिया रहे न रहे मेरे हमदम

ये दुनिया रहे न रहे मेरे हमदम
कहानी मुहब्बत की ज़िंदा रहेगी
कभी गीत बनके लबों पे सजेगी
कभी फूल बनके ये महका करेगी

मुहब्बत तो है दो दिलों का तराना
मुहब्बत तो है पाक रूहों का संगम
अगर रूह से रूह मिल जाये साथी
तो बेदर्द दुनिया जुदा क्या करेगी

समझता है सारा जहाँ ये हक़ीक़त
मुहब्बत ख़ुदा है ख़ुदा है मुहब्बत
मुहब्बत को दे जायेंगे इतनी अज़मत
ये दुनिया मुहब्बत को सजदा करेगी

(अज़मत = महानता)

-शायर: नामालूम


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन 







Sunday, May 29, 2016

हर तरफ़ जिस्म का छलावा है
रूह मिलती नहीं ज़माने में
- आशीष नैथानी

Friday, March 11, 2016

माना कि बाग़ की कोई हलचल नहीं हूँ मैं

माना कि बाग़ की कोई हलचल नहीं हूँ मैं
ज़ाहिर हर इक गुल में हूँ ओझल नहीं हूँ मैं

ख़ुशबू ही मैं भी बाँटता रहता हूँ हर घड़ी
है फ़र्क बस ये नाम से संदल नहीं हूँ मैं

ग़र शौक की है बात तो फिर और कुछ पहन
छिल जाएगा ये जिस्म कि मखमल नहीं हूँ मैं

झंकार हूँ मैं रूह से महसूस कीजिये
छूकर मुझे न देखिये पायल नहीं हूँ मैं

उसके खिलाये गुल थे उसी पे लुटा दिए
पागल मुझे न जानिये पागल नहीं हूँ मैं

'हस्ती' मुगालते में हैं ये सारे शहसवार
अपनी ख़ुदी के रथ पे हूँ पैदल नहीं हूँ मैं

-हस्तीमल 'हस्ती'

Thursday, December 17, 2015

मिली हो रूहें तो रस्मों की बंदिशें क्या हैं

मिली हो रूहें तो रस्मों की बंदिशें क्या हैं
बदन तो ख़ाक ही होने हैं रंजिशें क्या हैं

मैं हर जनम में तो पोशाक ही बदलता हूँ
मेरा वजूद मिटाने की कोशिशें क्या हैं

जो ख़ुद से मिलने की ख़्वाहिश करो तो बात बने
बग़ैर इसके जहाँ भर की ख़्वाहिशें क्या हैं

जो मोती बन सके वो बूंद जब नसीब नहीं
तो सीप के लिए फिर तेज़ बारिशें क्या हैं

-मदनपाल

https://www.youtube.com/watch?v=i0of-J0Y0xg
 

Sunday, May 17, 2015

अन्देशे

रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है
दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है के रो-रो के भुलाया होगा

(अज़ीयत = व्यथा, यातना), (सोज़-ए-मोहब्बत = प्रेम को आँच (पीड़ा))

वो कहाँ और कहाँ क़ाहिश-ए-ग़म सोज़िश-ए-जाँ
उस की रंगीन नज़र और नुक़ूश-ए-हिरमाँ
उस का एहसास-ए-लतीफ़ और शिकस्त-ए-अरमाँ
तानाज़न एक ज़माना नज़र आया होगा

(क़ाहिश-ए-ग़म = दुःख की कमी), (सोज़िश-ए-जाँ = जान का जलना), (नुक़ूश-ए-हिरमाँ = निराशा के चिन्ह), (एहसास-ए-लतीफ़ = कोमल भावनाएं), (शिकस्त-ए-अरमाँ = अभिलाषाओं का भंग होना), (तानाज़न = व्यंग करता हुआ)


झुक गई होगी जवाँ-साल उमंगों की जबीं
मिट गई होगी ललक डूब गया होगा यक़ीं
छा गया होगा धुआँ घूम गई होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरोंदे को जो ढाया होगा

(जवाँ-साल = नयी), (जबीं = माथा)

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाये होंगे
अश्क आँखों ने पिये और न बहाये होंगे
बन्द कमरे में जो ख़त मेरे जलाये होंगे
इक-इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

(अफ़साने = कहानियाँ), (अश्क = आँसू), (हर्फ़ = अक्षर), (जबीं = माथा)

उस ने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक नक़्श ने सौ शक़्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझ को तड़पता हुआ पाया होगा

(नक़्श = आकृति)

बे-महल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होंगे
ग़म पशेमाँ तबस्सुम में ढल आये होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होंगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

(बे-महल = बे-मौका, अनुचित समय पर), (पशेमाँ = लज्जित), (तबस्सुम = मुस्कराहट)


ज़ुल्फ़ ज़िद कर के किसी ने जो बनाई होगी
रूठे जलवों पे ख़िज़ाँ और भी छाई होगी
बर्क़ अश्वों ने कई दिन न गिराई होगी
रंग चेहरे पे कई रोज़ न आया होगा

(ख़िज़ाँ = पतझड़), (बर्क़ = बिजली), (अश्वों = हाव-भाव)

होके मजबूर मुझे उस ने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जान के ख़ाया होगा

-कैफ़ी आज़मी




 

Thursday, February 26, 2015

अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है

अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है

नशे में डूबे कोई, कोई जिए, कोई मरे
तीर क्या क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है

बंद आँखों को नज़र आती है जाग उठती है
रौशनी ऐसी हर आवाज़-ए-अज़ाँ छोड़ती है

खुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है

आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है

एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है

(अनासिर = पंचभूत, पाँच तत्व - अग्नि, जल, वायु, धरती और आकाश)

ज़ब्त-ए-ग़म खेल नहीं है अब कैसे समझाऊँ
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है

(ज़ब्त-ए-ग़म = कष्ट और दुःख प्रकट न होने देना)

-कृष्ण बिहारी 'नूर'

Friday, October 24, 2014

यूँ तो एक उम्र साथ साथ हुई

यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई

क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई

कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई

(हयात = जीवन, ज़िन्दगी)

लाख ताक़ीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक एहतियात हुई

(ताक़ीद = जोर के साथ किसी बात की आज्ञा या अनुरोध, ख़ूब चेताकर कही हुई बात), (एहतियात = सतर्कता, सचेत रहने की क्रिया)

इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई

(वस्ल = मिलन)

क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई

(बिसात = हैसियत, सामर्थ्य), (कायनात = सृष्टि, जगत)

शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई

क्या थी मुश्किल विसाल-ए-हक़ में 'सदा'
तुझ से बस रद न तेरी ज़ात हुई

(विसाल-ए-हक़ = मिलन का अधिकार), (रद = रद्द करना, वापस करना), (ज़ात = कुल, वंश, नस्ल, क़ौम)

-सदा अम्बालवी

राधिका चोपड़ा/ Radhika Chopda