कब हुई फिर सुब्ह कब ये रात निकली
कल तेरी जब बात से फिर बात निकली।
जुर्म तुझको याद करने का किया फिर
करवटें बदलीं कई तब रात निकली।
आज़मा के देख ली दुनिया भी हमने
ना कोई सौग़ात ना ख़ैरात निकली।
रंग निकला है शराफ़त का ही पहले
आदमी की अस्ल फिर औक़ात निकली।
जिस्म भीगा पर न भीगी रूह अब तक
इस बरस भी राएगां बरसात निकली।
(राएगां = व्यर्थ)
- विकास वाहिद
२५/४/१९
कल तेरी जब बात से फिर बात निकली।
जुर्म तुझको याद करने का किया फिर
करवटें बदलीं कई तब रात निकली।
आज़मा के देख ली दुनिया भी हमने
ना कोई सौग़ात ना ख़ैरात निकली।
रंग निकला है शराफ़त का ही पहले
आदमी की अस्ल फिर औक़ात निकली।
जिस्म भीगा पर न भीगी रूह अब तक
इस बरस भी राएगां बरसात निकली।
(राएगां = व्यर्थ)
- विकास वाहिद
२५/४/१९
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