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Saturday, January 9, 2021

जीवन चक्र

स्नेह मिला जो आपका, हुआ मैं भाव विभोर,
खुशियाँ  कत्थक  नाचतीं  मेरे चारों ओर ।

स्मृतियों में आबद्ध हैं चित्र वो शेष, विशेष,
एक नजर में घूँम लें, 'पूरन' भारत देश ।

खेलें, खायें प्रेम से मिलजुल सबके संग,
जीवन का परखा हुआ यही है  सुंदर ढंग ।

वक़्त फिसलता ही रहा ज्यों मुट्ठी में रेत,
समय बिता कर आ गए वापस अपने खेत ।

भवसागर  हम  खे  रहे  अपनी अपनी नाव,
ना जाने किस नाव पर लगे भँवर का दाँव ! 

किसको,कितना खेलना सब कुछ विधि के हाथ,
खेल खतम और चल दिये लेकर स्मृतियाँ साथ !

-पूरन भट्ट 




Sunday, January 3, 2021

पूरा यहाँ का है न मुकम्मल वहाँ का है

पूरा यहाँ का है न मुकम्मल वहाँ का है
ये जो मिरा वजूद है जाने कहाँ का है

क़िस्सा ये मुख़्तसर सफ़र-ए-रायगाँ का है 
हैं कश्तियाँ यक़ीं की समुंदर गुमाँ का है

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त), (सफ़र-ए-रायगाँ = व्यर्थ का सफ़र), (गुमाँ = गुमान, घमण्ड, अहँकार)

मौजूद हर जगह है ब-ज़ाहिर कहीं नहीं
हर सिम्त इक निशान किसी बेनिशाँ का है

धुंधले से कुछ नज़ारे उभरते हैं ख़्वाब में
खुलता नहीं है कौन-सा मंज़र कहाँ का है

दीवार-ओ-दर पे सब्ज़ा है और दिल है ज़र्द-ज़र्द
ये मौसम-ए-बहार ही मौसम ख़ज़ाँ का है

(सब्ज़ा = घास), (ख़ज़ाँ = पतझड़)

ह़ैराँ हूंँअपने लब पे तबस्सुम को देखकर
किरदार ये तो और किसी दास्ताँ का है

(तबस्सुम = मुस्कराहट)

दम तोड़ती ज़मीं का है ये आख़िरी बयान
होठों पे उसके नाम किसी आसमाँ का है

जाते हैं जिसमें लोग इबादत के वास्ते
सुनते हैं वो मकान किसी ला-मकाँ का है

(ला-मकाँ = ईश्वर, ख़ुदा)

आँसू को मेरे देखके बोली ये बेबसी
ये लफ़्ज़ तो ह़ुज़ूर हमारी ज़ुबाँ का है

- राजेश रेड्डी

Thursday, November 12, 2020

कभी तो दिन हो उजागर कभी तो रात खुले

कभी तो दिन हो उजागर कभी तो रात खुले
ख़ुदाया! हम पे कभी तो ये कायनात खुले

बिछड़ गया तो ये जाना वो साथ था ही नहीं
कि तर्क होके हमारे ताअ'ल्लुक़ात खुले

(तर्क = त्याग)

तू चुप रहे भी तो मैं सुन सकूँ तिरी आवाज़
मैं कुछ कहूँ न कहूँ तुझ पे मेरी बात खुले

सबक़ तो देती चली जा रही थी हर ठोकर
प-खुलते- खुलते ही इस दिल पे तजरबात खुले

किनारे लग भी गई कश्ती-ए-ह़यात, मगर
मैं मुंतज़िर ही रहा मक़सद-ए-ह़यात खुले

(कश्ती-ए-ह़यात = जीवन की नाव), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (मक़सद-ए-ह़यात = जीवन का अर्थ)

- राजेश रेड्डी

Sunday, May 12, 2019

कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है
-बेदम शाह वारसी

 (नाख़ुदा = नाविक, मल्लाह)

Sunday, April 21, 2019

रख़्त-ए-सफ़र यूँही तो न बेकार ले चलो

रख़्त-ए-सफ़र यूँही तो न बेकार ले चलो
रस्ता है धूप का कोई दीवार ले चलो

(रख़्त-ए-सफ़र = यात्रा का सामान)

ताक़त नहीं ज़बाँ में तो लिख ही लो दिल की बात
कोई तो साथ सूरत-ए-इज़हार ले चलो

(सूरत-ए-इज़हार = अभिव्यक्ति का रास्ता/ मार्ग)

देखूँ तो वो बदल के भला कैसा हो गया
मुझ को भी उस के सामने इस बार ले चलो

कब तक नदी की तह में उतारोगे कश्तियाँ
अब के तो हाथ में कोई पतवार ले चलो

पड़ती हैं दिल पे ग़म की अगर सिलवटें तो क्या
चेहरे पे तो ख़ुशी के कुछ आसार ले चलो

जितने भँवर कहोगे पहन लूँगा जिस्म पर
इक बार तो नदी के मुझे पार ले चलो

कुछ भी नहीं अगर तो हथेली पे जाँ सही
तोहफ़ा कोई तो उस के लिए यार ले चलो

-अदीम हाशमी

Thursday, April 18, 2019

आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर

आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर
तन्हा तो तड़पने से बचा ले कोई आ कर

सहरा में उगा हूँ कि मिरी छाँव कोई पाए
हिलता हूँ कि पत्तों की हवा ले कोई आ कर

(सहरा = रेगिस्तान, जंगल, बयाबान, वीराना)

बिकता तो नहीं हूँ न मिरे दाम बहुत हैं
रस्ते में पड़ा हूँ कि उठा ले कोई आ कर

कश्ती हूँ मुझे कोई किनारे से तो खोले
तूफ़ाँ के ही कर जाए हवाले कोई आ कर

(कश्ती = नाव)

जब खींच लिया है मुझे मैदान-ए-सितम में
दिल खोल के हसरत भी निकाले कोई आ कर

दो चार ख़राशों से हो तस्कीन-ए-जफ़ा क्या
शीशा हूँ तो पत्थर पे उछाले कोई आ कर

(जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार), (तस्कीन = धैर्य, संयम, सहनशीलता)

मेरे किसी एहसान का बदला न चुकाए
अपनी ही वफ़ाओं का सिला ले कोई आ कर

-अदीम हाशमी

Monday, March 18, 2019

ये दौर-ए-मसर्रत ये तेवर तुम्हारे

ये दौर-ए-मसर्रत ये तेवर तुम्हारे
उभरने से पहले न डूबें सितारे

(दौर-ए-मसर्रत = उन्माद/ ख़ुमार/ प्रमाद का दौर)

भँवर से लड़ो, तुंद लहरों से उलझो
कहाँ तक चलोगे किनारे किनारे

(तुंद = तेज़, भीषण)

अजब चीज़ है ये मोहब्बत की बाज़ी
जो हारे वो जीते जो जीते वो हारे

सियह नागिनें बन के डसती हैं किरनें
कहाँ कोई ये रोज़-ए-रौशन गुज़ारे

(सियह = काली, अँधेरी), (रोज़-ए-रौशन - उज्जवल/ उजला/ शुभ दिन)

सफ़ीने वहाँ डूब कर ही रहे हैं
जहाँ हौसले ना-ख़ुदाओं ने हारे

(सफ़ीना = किश्ती, नाव), (नाख़ुदा = मल्लाह, नाविक)

कई इन्क़िलाबात आए जहाँ में
मगर आज तक दिन न बदले हमारे

'रज़ा' सैल-ए-नौ की ख़बर दे रहे हैं
उफ़ुक़ को ये छूते हुए तेज़ धारे

(सैल-ए-नौ = नए प्रवाह/ धारे), (उफ़ुक़ = क्षितिज)

-रज़ा हमदानी

Tuesday, February 5, 2019

मिलती नहीं है नाव तो दरवेश की तरह
ख़ुद में उतर के पार उतर जाना चाहिए
-अब्बास ताबिश

Saturday, December 22, 2018

दुनिया में रह कर हर इंसाँ, दरिया से रवादारी सीखे
लहरें भी उट्ठा करती हैं, कश्ती भी चलती जाती है
(रवादारी = सह्रदयता, Generosity)

-मुनव्वर लखनवी

Sunday, December 10, 2017

क्या ख़बर मेरा सफ़र है और कितनी दूर का
काग़ज़ी इक नाव हूँ और तेज़-रौ पानी में हूँ
-हमीद नसीम

Friday, April 7, 2017

सज़ा दो अगरचे गुनहगार हूँ मैं

सज़ा दो अगरचे गुनहगार हूँ मैं
यूं सर भी कटाने को तैयार हूँ मैं।

ये दुनिया समझती है पत्थर मुझे क्यूं
ज़रा गौर कर प्यार ही प्यार हूँ मैं।

गुज़ारा है टूटे खिलौनों में बचपन
यूं बच्चों का अपने गुनहगार हूँ मैं।

सुलह चाहता हूँ सभी से यहां मैं
गिरा दो जो लगता है दीवार हूँ मैं।

बदलता नहीं वक़्त के साथ हरगिज़
चलो आज़मा लो वही यार हूँ मैं।

हुनर कश्तियों का नहीं है ये माना
भरोसा तो कर लो के पतवार हूँ मैं।

रहा मुंतज़िर मैं गुलों का हमेशा
समझते हो जो खार तो खार हूँ मैं।

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (गुल = फूल), (खार = कांटे)

- विकास वाहिद

Friday, November 11, 2016

हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब

हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब
रस्ता अगर हो याद तो घर जाइए जनाब

(गाम = कदम, पग)

ज़िंदा हक़ीक़तों के तलातुम हैं सामने
ख़्वाबों की कश्तियों से उतर जाइए जनाब

(तलातुम = तूफ़ान, बाढ़, पानी का लहराना)

इंकार की सलीब हूँ सच्चाइयों का ज़हर
मुझ से मिले बग़ैर गुज़र जाइए जनाब

(सलीब = सूली)

दिन का सफ़र तो कट गया सूरज के साथ साथ
अब शब की अंजुमन में बिखर जाइए जनाब

(शब = रात),  (अंजुमन = सभा, महफ़िल)

कोई चुरा के ले गया सदियों का ए'तिक़ाद
मिम्बर की सीढ़ियों से उतर जाइए जनाब

(ए'तिक़ाद = श्रद्धा, आस्था, विश्वास, यकीन, भरोसा), (मिम्बर = उपदेश-मंच, भाषण-मंच)

-अमीर क़ज़लबाश


Thursday, April 21, 2016

इश्क़ की बातें, प्यार की बातें

इश्क़ की बातें, प्यार की बातें
छोड़ो भी बेकार की बातें

फूलों जैसे बच्चे भी अब
करते हैं तलवार की बातें

सुनते-सुनते डूब गए हम
कश्ती और पतवार की बातें

इस संसार में ढूँढ रहे हैं
जाने किस संसार की बातें

रोज़ उन्ही लोगों से मिलना
रोज़ वही हर बार की बातें

इस बस्ती में अब बूढ़े ही
करते हैं किरदार की बातें

हमको जीत का सुख देती हैं
इसकी-उसकी हार की बातें

अच्छा है अब आने लगी है
ग़ज़लों में घर-बार की बातें

-राजेश रेड्डी

Wednesday, March 16, 2016

सितम ज़ाहिर, जफ़ा साबित, मुसल्लम बेवफ़ा तुम हो

सितम ज़ाहिर, जफ़ा साबित, मुसल्लम बेवफ़ा तुम हो
किसी को फिर भी प्यार आये तो क्या समझें के क्या तुम हो

(जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार), (मुसल्लम = माना हुआ, पूरा)

चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हमीं हम हैं तो क्या हम हैं, तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो

(चमन = बगीचा), (इख़्तिलात = अनुराग, मेल-जोल), (इख़्तिलात-ए -रंग-ओ-बू = रंग और ख़ुशबू का मेल-जोल)

अंधेरी रात, तूफ़ानी रात, टूटी हुई कश्ती
यही असबाब क्या कम थे के इस पर नाख़ुदा तुम हो

(असबाब = सामान), (नाख़ुदा = नाविक, मल्लाह)

मुबादा और इक फ़ितना बपा हो जाए महफ़िल में
मेरी शामत कहे तुम से के फ़ितनों की बिना तुम हो

(मुबादा = कहीं ऐसा न हो, यह न हो कि), (फ़ितना = उपद्रव, लड़ाई-झगड़ा), (बपा = उपस्थित, कायम)

ख़ुदा बख्शे वो मेरा शौक़ में घबरा के कह देना
किसी के नाख़ुदा होगे मगर मेरे ख़ुदा तुम हो

तुम अपने दिल में खुद सोचो हमारा मुँह न खुलवाओ
हमें मालूम है 'सरशार' के कितने पारसा तुम हो

(पारसा = संयमी, सदाचारी)

-पंडित रतन नाथ धर 'सरशार'

Wednesday, February 24, 2016

जब खुली आँखें तो इन आँखों को रोना आ गया

जब खुली आँखें तो इन आँखों को रोना आ गया
मैंने समझा वाकई मौसम सलोना आ गया

डर रहा हूँ बेनियाज़ी अब कहाँ ले जाएगी
चलते-फिरते भी मेरी आँखों को सोना आ गया

(बेनियाज़ी = स्वछंदता)

एक चुल्लू आब लेकर फिर रहा है इस तरह
जैसे गागर में उसे सागर समोना आ गया

(आब = पानी, जल)

देखकर अंजाम फूलों का मैं घबराया बहुत
खुशगुमानी थी कि धागों में पिरोना आ गया

क्यों शिकायत है भला दरिया की वुसअत से हमें
चंद कतरों ही से जब लब को भिगोना आ गया

(वुसअत = विस्तार)

तख़्त पर बैठा हुआ यों खेलता हूँ ताज से
जैसे इक बच्चे के हाथों में खिलौना आ गया

कोई भी 'आलम' लबे-दरिया अभी पहुँचा नहीं
नाख़ुदाओं को मगर कश्ती डुबोना आ गया

(लबे-दरिया = नदी का किनारा/ तट), (नाख़ुदाओं = नाविकों)

- आलम खुर्शीद

अपने पिछले हमसफ़र कि कोई तो पहचान रख

अपने पिछले हमसफ़र कि कोई तो पहचान रख
कुछ नहीं तो मेज़ पर काँटों भरा गुलदान रख

तपते रेगिस्तान का लम्बा सफ़र कट जाएगा
अपनी आँखों में मगर छोटा-सा नाख्लिस्तान रख

दोस्ती, नेकी, शराफत, आदमियत और वफ़ा
अपनी छोटी नाव में इतना भी मत सामान रख

सरकशी पे आ गई हैं मेरी लहरें ऐ ख़ुदा !
मैं समुन्दर हूँ मेरे सीने में भी चट्टान रख

(सरकशी = उद्दंडता, उज्जड़पन, अशिष्टता, अवज्ञा, हुक्मउदूली)

घर के बाहर की फ़िज़ा का कुछ तो अंदाज़ा लगे
खोल कर सारे दरीचे और रौशनदान रख

(फ़िज़ा = वातावरण, रौनक, प्राकृतिक सौंदर्य), (दरीचे = खिड़कियां, झरोखे)

नंगे पाँव घास पर चलने में भी इक लुत्फ़ है
ओस के कतरों से 'आलम' खुद को मत अन्जान रख

- आलम खुर्शीद

मज़ा अलग है जीने में

मज़ा अलग है जीने में
राज़ अगर हों सीने में।

तूफां से टकराता हूँ
खस्ताहाल सफीने में।

(सफीना = नाव, कश्ती)

कभी कभी हंस लेते हैं
कभी सालों में महीने में।

गुज़री है कुछ यूं अब तक
टाट कभी पशमीने में।

फर्क नहीं फकीरों को
पत्थर और नगीने में।

मेहनत कर, बहा ज़रा
महक है फिर पसीने में।

हर सम्त दिखाई देता है
मथुरा कभी मदीने में।

(सम्त = तरफ, ओर)

ये आंसू हैं, शराब नहीं
जिगर लगता है पीने में।

- विकास वाहिद

Tuesday, January 12, 2016

है तेरा आँचल भी कुछ बहका हुआ

है तेरा आँचल भी कुछ बहका हुआ
और तूफ़ाँ दिल में भी मचला हुआ

दूर तक इक बाँसुरी की गूँज है
और हर इक स्वर भी है महका हुआ

चल उसी दरिया में कश्ती डाल दें
आजकल जो है बहुत उफना हुआ

उड रहा है बादलों के दरमियाँ
ये ज़हन अब किस कदर हल्का हुआ

हर नज़ारा क्यों नई इस राह का
लग रहा ज्यों है कहीं देखा हुआ

झूम कर गाता यक़ीनों का चमन
चाहतों की धूप में निखरा हुआ

डूबना ही है तो फिर क्या सोचना
ताल, सागर या वो इक दरिया हुआ

वो ' सुमन' चेहरा वो आँखों की हँसी
मन भ्रमर उस रूप पर पगला हुआ

-लक्ष्मी खन्ना ' सुमन'

Saturday, January 9, 2016

डूबती कश्तियाँ थीं टूटते तारे थे कई

डूबती कश्तियाँ थीं टूटते तारे थे कई
हम ही कुछ समझे नहीं वरना इशारे थे कई

(कश्ती = नाव)

ये अलग बात कि तिनके भी किनारा कर गए
डूबने वाले ने तो नाम पुकारे थे कई

उम्र भर हमको भी करना था वो ही कारोबार
फ़ायदा एक ना था जिसमें ख़सारे थे कई

(ख़सारा = घाटा, नुकसान, हानि)

जिस्म के साथ कहाँ बुझ सके अपने अरमां
राख को अपनी कुरेदा तो शरारे थे कई

(शरारे = चिंगारियाँ)

बारहा ख़ुद को ही पहचानना मुश्किल गुज़रा
नाम तो एक ही था रूप हमारे थे कई

(बारहा = कई बार, अक्सर)

हम को साहिल पे जो ले जाती वही मौज ना थी
यूँ तो दरिया में भटकते हुए धारे थे कई

(साहिल = किनारा)

तेरे बन्दों में सभी तेरे परस्तार न थे
थे ग़रज़मंद कई, ख़ौफ़ के मारे थे कई

(परस्तार = पूजा या उपासना करने वाला)

-राजेश रेड्डी

Thursday, December 17, 2015

रस्ते की कड़ी धूप को इम्कान में रखिये

रस्ते की कड़ी धूप को इम्कान में रखिये
छालों को सफ़र के सर-ओ-सामान में रखिये

(इम्कान = संभावना), (सर-ओ-सामान = आवश्यक सामग्री, ज़रूरी चीज़ें)

वो दिन गए जब फिरते थे हाथों में लिये हाथ
अब उनकी निगाहों को भी एहसान में रखिये

ये जो है ज़मीर आपका, जंज़ीर न बन जाए
ख़ुद्दारी को छूटे हुए सामान में रखिये

जैसे नज़र आते हैं कभी वैसे बनें भी
अपने को कभी अपनी ही पहचान में रखिये

चेहरा जो कभी दोस्ती का देखना चाहें
काँटों को सजा कर किसी गुलदान में रखिये

लेना है अगर लुत्फ़ समंदर के सफ़र का
कश्ती को मुसलसल किसी तूफ़ान में रखिये

(मुसलसल = लगातार)

ये वक़्त है रहता नहीं इक जैसा हमेशा
ये बात हमेशा के लिए ध्यान में रखिये

जब छोड़ के जाएँगे इसे ये न छुटेगी
दुनिया को न भूले से भी अरमान में रखिये

-राजेश रेड्डी