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Sunday, October 21, 2012

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं


इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं


बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है
ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं


आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है
पत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं


आपके टुकड़ों के टुकड़े कर दिये जायेंगे पर
आपकी ताज़ीम में कोई कसर होगी नहीं


सिर्फ़ शायर देखता है क़हक़हों की अस्लियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होगी नहीं

-दुष्यंत कुमार

Friday, October 19, 2012

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
-दुष्यंत कुमार

Tuesday, September 25, 2012

नशा पिला के गिराना तो सबको आता है,
मज़ा तो जब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी।


Nasha pila ke giraana to sabko aata hai,
maza to jab hai ki girton ko thaam le saaqi.

To intoxicate somebody and then to see him fall is quite easy
But the beauty lies in giving support to a falling person

जो बाद: कश थे पुराने वो उठते जाते हैं,
कहीं से आबे-बक़ा-ए-दवाम ले साक़ी।

[(बाद: कश = शराबी), (आबे-बक़ा-ए-दवाम = निरंतर शराब (यहाँ तात्पर्य "अमृत" से है))]

कटी है रात तो हंगामा-गुस्तरी में तेरी,
सहर क़रीब है अल्लाह का नाम से साक़ी।

[(हंगामा-गुस्तरी = बिछौने के हंगामे में), (सहर = सुबह)]

-
अल्लामा इक़बाल