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Wednesday, July 3, 2024

अपना आलम भी अजब आलम-ए-तन्हाई है
पहलू-ए-ज़ीस्त नहीं मौत की आग़ोश नहीं
-सत्यपाल "पैहम"

Saturday, October 31, 2020

चार काँधों पे पाँचवाँ मैं था 
होके मौजूद भी कहाँ मैं था
- राजेश रेड्डी

Monday, September 21, 2020

ज़ूम

तुझे ऐ ज़िंदगी अब आँख भर के देखना है,
तेरी बारीकियों को 'ज़ूम' कर के देखना है

ग़लत इल्ज़ाम कैसे ‘फ़ेस’ करती है हक़ीक़त,
ये ख़ुद पर ही कोई इल्ज़ाम धर के देखना है.

ज़माने का चलन है~ भावनाएँ ‘कैश’ करना,
ज़माने पर भरोसा फिर भी कर के देखना है.

किसी की शख़्सियत का ‘वेट’ है किस-किस के ऊपर ?
पहाड़ों से तराई में उतर के देखना है.

चिता की राख से और क़ब्र की गहराइयों से,
कहाँ जाते हैं सारे लोग, मर के देखना है.

डरा हूँ दोस्तों की भीड़ से अक्सर, मगर अब-
मुझे अपने अकेलेपन से डर के देखना है.

-आलोक श्रीवास्तव 

Sunday, May 10, 2020

मैं ने अपना हक़ माँगा था वो नाहक़ ही रूठ गया

मैं ने अपना हक़ माँगा था वो नाहक़ ही रूठ गया
बस इतनी सी बात हुई थी साथ हमारा छूट गया

वो मेरा है आख़िर इक दिन मुझ को मिल ही जाएगा
मेरे मन का एक भरम था कब तक रहता टूट गया

दुनिया भर की शान-ओ-शौकत ज्यूँ की त्यूँ ही धरी रही
मेरे बै-रागी मन में जब सच आया तो झूट गया

क्या जाने ये आँख खुली या फिर से कोई भरम हुआ
अब के ऐसे उचटा दिल कुछ छोड़ा और कुछ छूट गया

लड़ते लड़ते आख़िर इक दिन पंछी की ही जीत हुई
प्राण पखेरू ने तन छोड़ा ख़ाली पिंजरा छूट गया

-दीप्ति मिश्रा

Tuesday, March 31, 2020

कुछ मर गए के उनको, पहुँचना न था कहीं
और कुछ कहीं पहुँचने की, जल्दी में मर गए

दौलत थी बे-पनाह प, ख़ाली थी दिल की जेब
कितने अमीर लोग, ग़रीबी में मर गए

-फ़रहत एहसास

(प = पर)

Tuesday, January 21, 2020

जो ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त से डर गए

जो ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त से डर गए
वो लोग अपनी मौत से पहले ही मर गए

आई कुछ ऐसी याद तेरी पिछली रात को
दामन पे बे-शुमार सितारे बिखर गए

छोड़ आए ज़िंदगी के लिए नक़्श-ए-जावेदाँ
दीवाने मुस्कुरा कर जिधर से गुज़र गए

(नक़्श-ए-जावेदाँ = ना मिटने वाला चिन्ह)

मेरी निगाह-ए-शौक़ के उठने की देर थी
यूँ मुस्कुराए वोह के मनाज़िर संवर गए

(मनाज़िर = दृष्यों, मंज़र का बहुवचन)

दुनिया में अब ख़ुलूस है बस मस्लहत का नाम
बे-लौस दोस्ती के ज़माने गुज़र गए

(ख़ुलूस = प्रेम, मुहब्बत), (मस्लहत = भला बुरा देख कर काम करना), (बे-लौस = बिना किसी स्वार्थ के)

-आरिफ़ अख़्तर

Sunday, October 20, 2019

आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
सामान सौ बरस का है पल की ख़बर नहीं
-हैरत इलाहाबादी

(बशर = इंसान)

Tuesday, September 24, 2019

उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
रोइए किस के लिए किस किस का मातम कीजिए
-हैदर अली आतिश

Monday, August 19, 2019

दाने तक जब पहुँची चिड़िया
जाल में थी
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया
-परवीन शाकिर

Sunday, August 11, 2019

अँधेरी रात को ये मोजज़ा दिखायेंगे हम

अँधेरी रात को ये मोजज़ा दिखायेंगे हम
चिराग़ अगर न मिला, अपना दिल जलायेंगे हम

(मोजज़ा =चमत्कार)

हमारी कोहकनी के हैं मुख़्तलिफ़ मेयार
पहाड़ काट के रस्ते नए बनायेंगे हम

(कोहकनी = पहाड़ खोदना, बहुत अधिक परिश्रम का काम), (मुख़्तलिफ़ = अनेक प्रकार का, भिन्न, पृथक, जुदा, कई तरह का)  (मेयार = पैमाना, मापदंड)

जो दिल दुखा है तो ये अज़्म भी मिला है हमें
तमाम उम्र किसी का न दिल दुखायेंगे हम

(अज़्म = संकल्प, दृढ निश्चय, श्रेष्ठता)

बहुत निढाल हैं सुस्ता तो लेंगे पल दो पल
उलझ गया कहीं दामन तो क्या छुड़ायेंगे हम

अगर है मौत में कुछ लुत्फ़ बस तो इतना है
कि इसके बाद ख़ुदा का सुराग़ पायेंगे हम

हमें तो कब्र भी तन्हा न कर सकेगी 'नदीम'
के हर तरफ से ज़मीन को क़रीब पायेंगे हम

-अहमद नदीम कासमी

Saturday, July 20, 2019

भले मुख़्तसर है

भले मुख़्तसर है
सफ़र फिर सफ़र है।

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त)

जो हासिल नहीं है
उसी पर नज़र है।

यहां भीड़ में भी
अकेला बशर है।

(बशर = इंसान)

है कब लौट जाना
किसे ये ख़बर है।

ख़ता है अगर इश्क़
ख़ता दरगुज़र है।

(दरगुज़र = क्षमा योग्य)

तेरी मौत मंज़िल
वहीं तक सफ़र है।

- विकास"वाहिद"
१८/०७/२०१९

Friday, June 28, 2019

ऐसे लम्हे भी तो आते हैं के काटे न कटें
और कभी साल भी पल भर में गुज़र जाते हैं

हम मरेंगे तो किसी बात की ख़ातिर, वरना
लोग मरने को तो बिन बात ही मर जाते हैं

-राजकुमार "क़ैस"

Tuesday, June 11, 2019

ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग

ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग
सूखे हुए दरख़्त से फल चाहते हैं लोग

(मुस्तफ़ा = पवित्र, निर्मल), (अमल = काम), (दरख़्त = पेड़ वृक्ष)

काफ़ी है जिन के वास्ते छोटा सा इक मकाँ
पूछे कोई तो शीश-महल चाहते हैं लोग

साए की माँगते हैं रिदा आफ़्ताब से
पत्थर से आइने का बदल चाहते हैं लोग

(रिदा = ओढ़ने की चादर), (आफ़्ताब = सूरज)

कब तक किसी की ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का तज़्किरा
कुछ अपनी उलझनों का भी हल चाहते हैं लोग

(ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ = बिखरी हुई ज़ुल्फें), (तज़्किरा = संवाद, बात-चीत)

बार-ए-ग़म-ए-हयात से शाने हुए हैं शल
उकता के ज़िंदगी से अजल चाहते हैं लोग

(बार-ए-ग़म-ए-हयात = ज़िन्दगी के दुखों का बोझ , (शाने = कंधे), (शल = सुन्न,  बेसुध, संवेदनाशून्य), (अजल  = मृत्यु)

रखते नहीं निगाह तक़ाज़ों पे वक़्त के
तालाब के बग़ैर कँवल चाहते हैं लोग

जिस को भी देखिए है वही दुश्मन-ए-सुकूँ
क्या दौर है कि जंग-ओ-जदल चाहते हैं लोग

(जंग-ओ-जदल = लड़ाई-झगड़ा)

दरकार है नजात ग़म-ए-रोज़गार से
मिर्रीख़ चाहते हैं न ज़ुहल चाहते हैं लोग

(नजात = छुटकारा), (मिर्रीख़ = मंगल ग्रह), (ज़ुहल = शनि ग्रह)

'एजाज़' अपने अहद का मैं तर्जुमान हूँ
मैं जानता हूँ जैसी ग़ज़ल चाहते हैं लोग

(अहद = समय, वक़्त, युग), (तर्जुमान  = दुभाषिया, व्याख्याता, व्याख्याकार)

-एजाज़ रहमानी

Saturday, May 25, 2019

तन्हाई की बीन बजाता जाएगा

तन्हाई की बीन बजाता जाएगा
जोगी अपनी धुन में गाता जाएगा

रात सियाही कंबल ओढ़े बैठी है
दिन सारे अरमान थकाता जाएगा

(सियाही = काली)

मंदिर-मस्जिद गिरजाघर या गुरुद्वारा
कहाँ कहाँ हमको भटकाता जाएगा

मौत कहाँ आसान डगर है हमअसरों
धीरे-धीरे सब कुछ जाता जाएगा

(हमअसरों = दोस्तों)

ये 'मलंग' अपना अपना सरमाया है
कोई खोता कोई पाता जाएगा

(सरमाया = संपत्ति, धन-दौलत, पूँजी)

- सुधीर बल्लेवार 'मलंग'



Tuesday, May 7, 2019

ब-रंग-ए-नग़मा बिखर जाना चाहते हैं हम

ब-रंग-ए-नग़मा बिखर जाना चाहते हैं हम
किसी के दिल में उतर जाना चाहते हैं हम

(ब-रंग-ए-नग़मा = राग/ लय/ तराने के रंग की तरह)

ज़माना और अभी ठोकरें लगाए हमें
अभी कुछ और सँवर जाना चाहते हैं हम

उसी तरफ़ हमें जाने से रोकता है कोई
वो एक सम्त जिधर जाना चाहते हैं हम

(सम्त = तरफ़, दिशा की ओर)

वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
हमें न रोक कि घर जाना चाहते हैं हम

 (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

नदी के पार खड़ा है कोई चराग़ लिए
नदी के पार उतर जाना चाहते हैं हम

उन्हें भी जीने के कुछ तजरबे हुए होंगे
जो कह रहे हैं कि मर जाना चाहते हैं हम

कुछ इस अदा से कि कोई चराग़ भी न बुझे
हवा की तरह गुज़र जाना चाहते हैं हम

ज़ियादा उम्र तो होती नहीं गुलों की मगर
गुलों की तरह निखर जाना चाहते हैं हम

-वाली आसी

Monday, April 1, 2019

किस क़दर सख़्तजान थी उम्मीद
आख़िरी साँस तक नहीं टूटी
- राजेश रेड्डी

Friday, March 1, 2019

ज़ब्त देखो उधर निगाह न की
मर गए मरते मरते आह न की
-अमीर मीनाई

Thursday, February 21, 2019

तुम मुझको कब तक रोकोगे

मुठ्ठी में कुछ सपने लेकर, भरकर जेबों में आशाएं
दिल में है अरमान यही, कुछ कर जाएं, कुछ कर जाएं
सूरज-सा तेज नहीं मुझमें, दीपक-सा जलता देखोगे
अपनी हद रौशन करने से, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोकोगे

मैं उस माटी का वृक्ष नहीं, जिसको नदियों ने सींचा है
बंजर माटी में पलकर मैंने, मृत्यु से जीवन खींचा है
मैं पत्थर पर लिखी इबारत हूँ, शीशे से कब तक तोड़ोगे
मिटने वाला मैं नाम नहीं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

इस जग में जितने ज़ुल्म नहीं, उतने सहने की ताकत है
तानों  के भी शोर में रहकर सच कहने की आदत है
मैं सागर से भी गहरा हूँ, तुम कितने कंकड़ फेंकोगे
चुन-चुन कर आगे बढूँगा मैं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

झुक-झुककर सीधा खड़ा हुआ, अब फिर झुकने का शौक नहीं
अपने ही हाथों रचा स्वयं, तुमसे मिटने का खौफ़ नहीं
तुम हालातों की भट्टी में, जब-जब भी मुझको झोंकोगे
तब तपकर सोना बनूंगा मैं, तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोक़ोगे

-नामालूम






Wednesday, February 20, 2019

आज ये जिन दीवारों को तुम ऊँचा करते जाते हो
कल को इन दीवारों में ख़ुद घुट-घुट के मर जाओगे
-मुर्तज़ा बरलास

Monday, January 28, 2019

यूँ रह जहान में कि पस-ए-मर्ग ऐ 'सबा'
रह जाए ज़िक्र-ए-ख़ैर हर इक की ज़बान पर
-नामालूम

(पस-ए-मर्ग = मृत्यु के बाद), (ज़िक्र-ए-ख़ैर = स्मरणोत्सव, स्मारक समारोह)