Showing posts with label -शायर: क़तील शिफाई. Show all posts
Showing posts with label -शायर: क़तील शिफाई. Show all posts

Monday, July 29, 2019

आओ कोई तफ़रीह का सामान किया जाए

आओ कोई तफ़रीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाइ'ज़ को परेशान किया जाए

(वाइ'ज़ = धर्मोपदेशक)

मुफ़्लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़ारों पे ये एलान किया जाए

(मुफ़्लिस=ग़रीब)

वो शख़्स जो दीवानों की इज़्ज़त नहीं करता
उस शख़्स का भी चाक गरेबान किया जाए

(चाक गरेबान = फटा हुआ गरिबान/ कंठी)

पहले भी 'क़तील' आँखों ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुक़सान किया जाए

(बीनाई = आँखों की दृष्टि)

-क़तील शिफ़ाई

Tuesday, November 15, 2016

मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए

मिरी नज़र से न हो दूर एक पल के लिए
तिरा वजूद है लाज़िम मिरी ग़ज़ल के लिए

कहाँ से ढूँढ के लाऊँ चराग़ सा वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कँवल कँवल के लिए

ये कैसा तजुर्बा मुझको हुआ है आज की रात
बचा के धड़कने रख ली हैं मैंने कल के लिए

किसी किसी के नसीबों में इश्क़ लिख्खा है
हर इक दिमाग़ भला कब है इस ख़लल के लिए

हुई न जुरअत-ए-गुफ़्तार तो सबब ये था
मिले न लफ़्ज़ तिरे हुस्न-ए-बे-बदल के लिए

(जुरअत-ए-गुफ़्तार = बात करने की हिम्मत), (सबब = कारण), ( हुस्न-ए-बे-बदल = अद्वितीय सौन्दर्य)

सदा जिये ये मिरा शहर-ए-बे-मिसाल जहाँ
हज़ार झोंपड़े गिरते हैं इक महल के लिए

'क़तील' ज़ख़्म सहूँ और मुस्कुराता रहूँ
बने हैं दायरे क्या क्या मिरे अमल के लिए

(अमल = आचरण, कार्य)

-क़तील शिफ़ाई




Thursday, October 13, 2016

मुफ़लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़ारों पे ये ऐलान किया जाए
-क़तील शिफ़ाई

(मुफ़लिस = ग़रीब)

Sunday, September 25, 2016

हालात के कदमों पे कलंदर नहीं गिरता

हालात के कदमों पे कलंदर नहीं गिरता
टूटे भी जो तारा तो जमीं पर नहीं गिरता

गिरते हैं समंदर में बड़े शौक़ से दरिया
लेकिन किसी दरिया में समंदर नहीं गिरता

समझो वहां फलदार शजर कोई नहीं है
वह सेहन कि जिसमें कोई पत्थर नहीं गिरता

(शजर = पेड़)

इतना तो हुआ फ़ायदा बारिश की कमी का
इस शहर में अब कोई फिसल कर नहीं गिरता

इनआम के लालच में लिखे मद्ह किसी की
इतना तो कभी कोई सुख़नवर नहीं गिरता

(मद्ह = तारीफ़)

हैरां है कई रोज से ठहरा हुआ पानी
तालाब में अब क्यों कोई कंकर नही गिरता

इस बंदा-ए-खुद्दार पे नबियों का है साया
जो भूख में भी लुक्मा-ए-तर पर नहीं गिरता

(लुक्मा-ए-तर = अच्छा भोजन)

करना है जो सर म'अरका-ए-जीस्त तो सुन ले
बे-बाज़ू-ए-हैदर दर-ए-ख़ैबर नहीं गिरता

क़ायम है 'क़तील' अब यह मेरे सर के सुतूँ पर
भूचाल भी आए तो अब मेरा घर नहीं गिरता

(सुतूँ = खम्बा)

-क़तील शिफ़ाई

https://www.youtube.com/watch?v=bwAN7hh2VYY&feature=player_embedded

Monday, August 25, 2014

परेशाँ रात सारी है, सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूते-मर्ग तारी है, सितारों तुम तो सो जाओ

(सुकूते-मर्ग = मौत की ख़ामोशी),  (तारी = आ घेरना, छाना)

हँसो और हँसते-हँसते डूबते जाओ ख़लाओं में
हमें ये रात भारी है सितारों तुम तो सो जाओ

(ख़लाओं में = शून्य में)

तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
ये बाज़ी हमने हारी है सितारों तुम तो सो जाओ

कहे जाते हो रो-रो के हमारा हाल दुनिया से
ये कैसी राज़दारी है सितारों तुम तो सो जा

हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत हमारी है, सितारों तुम तो सो जाओ

(शब = रात)

हमें भी नींद आ जाएगी, हम भी सो ही जाऐंगे
अभी कुछ बेक़रारी है, सितारों तुम तो सो जाओ

-क़तील शिफ़ाई


ये मोजज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे
कि संग तुझपे गिरे और ज़ख़्म आये मुझे

(मोजज़ा =चमत्कार), (संग = पत्थर)

वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यूँ नहीं करता
वो बदगुमाँ है तो सौ बार आज़माये मुझे

(बदगुमाँ = जिसके मन में किसी के प्रति सन्देह उत्पन्न हुआ हो)

मैं अपने पाँव तले रौंदता हूँ साये को
बदन मेरा ही सही दोपहर न भाये मुझे

मैं घर से तेरी तमन्ना पहन के जब निकलूँ
बरहना शहर में कोई नज़र न आये मुझे

(बरहना = नग्न, विवस्त्र),

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे

मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ "क़तील"
ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे

(ग़म-ए-हयात = जीवन का दुःख)

-क़तील शिफाई



Wednesday, May 15, 2013

डूब चूका जब नील गगन की झील में तेरा हर वादा,
चमक रहा था मेरे दिल में फिर भी तेरे ग़म का चाँद।
-क़तील शिफाई

Thursday, April 11, 2013

सोचा था अपने-आप से शायद सबक़ मिले,
कोरे किताबे-उम्र के सारे वरक़ मिले ।
-क़तील शिफाई


Socha tha apne-aap se shayad sabak mile,
Kore kitaabe-umra ke saare waraq mile.
-Qateel Shifaai

Monday, April 1, 2013

शमा जिस आग में जलती है नुमाइश के लिये,
हम उसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं ।

जब भी आता है मेरा नाम तेरे नाम के साथ,
जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं ।
-क़तील शिफाई
सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके,
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह।

या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे,
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह।
-क़तील शिफाई
रात के सन्नाटे में हमने क्या-क्या धोके खाए है,
अपना ही जब दिल धड़का तो हम समझे वो आए है।
-क़तील शिफाई

Wednesday, November 14, 2012

क़तील सिर्फ हमने ही कहां सितारे गिने।
उदास चांद को तकता चला गया वो भी।

-क़तील शिफाई

Sunday, October 28, 2012

रात के सन्नाटे में हमने क्या-क्या धोके खाए है
अपना ही जब दिल धड़का तो हम समझे वो आए है॥
-क़तील शिफ़ाई

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग

जब भी चाहें एक नई सूरत बना लेते हैं लोग
एक चेहरे पर कई चेहरे सजा लेते हैं लोग

मिल भी लेते हैं गले से अपने मतलब के लिए
आ पड़े मुश्किल तो नज़रें भी चुरा लेते हैं लोग

कोई मुफ़लिस हो तो ये नफ़रत से ठोकर मार दें
अहल-ए-ज़र आए तो सीने से लगा लेते हैं लोग

(मुफ़लिस = ग़रीब), (अहल-ए-ज़र = पैसे वाले)

मिल नहीं सकता जलाने को अगर कोई चराग़
अपने घर को आँसुओं से जगमगा लेते हैं लोग

है बजा उनकी शिकायत लेकिन इसका क्या इलाज
बिजलियाँ खुद अपने गुलशन पर गिरा लेते हैं लोग

हो खुशी भी उनको हासिल ये ज़रूरी तो नहीं
ग़म छुपाने के लिए भी मुस्कुरा लेते हैं लोग

ये भी देखा है कि जब आ जाये गैरत का मुकाम
अपनी सूली अपने काँधे पर उठा लेते हैं लोग

-क़तील शिफ़ाई


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन 






Saturday, October 13, 2012

अपनी तन्हाई से भी होती नहीं अब गुफ्तगू,
बेकराँ कैदे-अनाँ और मैं अकेला आदमी
-क़तील शिफ़ाई

[(गुफ्तगू = बातचीत); (बेकराँ = असीम); (कैदे-अनाँ = अहं की कैद)]
मिरी मुफ़लिसी से बचकर कहीं और जानेवाले
ये सुकूँ न मिल सकेगा तुझे रेशमी कफ़न में
-क़तील शिफ़ाई

Thursday, October 4, 2012

मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम
एक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम

आंसू छलक छलक के सताएंगे रात भर
मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम

जब दूरियों की आग दिलों को जलाएगी
जिस्मों को चांदनी में भिगोया करेंगे हम

गर दे गया दगा़ हमें तूफ़ान भी ‘क़तील’
साहिल पे कश्तियों को डुबोया करेंगे हम
-क़तील शिफाई

Monday, October 1, 2012

मेरे बाद वफ़ा का धोका और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझ को सर मेरा झुक जाएगा
-क़तील शिफाई

Sunday, September 30, 2012

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूं जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे

मेहमान बनके आए किसी रोज़ अगर वो शख्स़
उस रोज़ बिन सजाए मेरा घर सजा लगे

मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मेरे रक़ीब की न मुझे बद्दुआ लगे

(वस्ल=मिलन; रक़ीब=प्रतिद्वन्दी)

वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे

(क़हत=अकाल,कमी; आश्ना=मित्र,परिचित)

तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा ‘क़तील’
मुझको सताए कोई तो उस का बुरा लगे

(तर्क-ए-वफ़ा=प्रेम का त्याग)

-क़तील शिफाई
अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना ले मुझको।

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको।

ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको।

तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गवां ले मुझको।

मैं समन्दर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोता-ज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुलाले मुझको

कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको।

मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यार
तू दबे पांव कभी आके चुराले मुझको।

तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलाने वालो मुझको।

बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं 'क़तील'
शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको।
-क़तील शिफाई