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Friday, July 31, 2020

एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं
जिस तरह सीप के सीने गुहर होता है
जिस तरह रात के रानी की महक होती है
जिस तरह साँझ की वंशी का असर होता है

जिस तरह उठता है आकाश में इक इंद्रधनुष
जैसे पीपल के तले कोई दिया जलता है
जैसे मंदिर में कहीं दूर घंटियाँ बजतीं
जिस तरह भोर के पोखर में कमल खिलता है

जिस तरह खुलता हो सन्दूक पुराना कोई
जिस तरह उसमें से ख़त कोई पुराना निकले
जैसे खुल जाय कोई चैट की खिड़की फिर से
ख़ुद-बख़ुद जैसे कोई मुँह से तराना निकले

जैसे खँडहर में बची रह गयी बुनियादें हैं
एक बरसात की खुश्बू में कई यादें हैं

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Monday, June 11, 2018

क्या इक दरिया अपना पानी चुन सकता है

क्या इक दरिया अपना पानी चुन सकता है
पानी भी क्या अपनी रवानी चुन सकता है

जीना है दुनिया में दुनिया की शर्तों पर
कौन क़फ़स में दाना-पानी चुन सकता है

(क़फ़स = पिंजरा)

दिल तो वो दीवाना है जो मह़फ़िल में भी
अपनी मर्ज़ी की वीरानी चुन सकता है

छोड़ दिया है मैंने दर-दर सजदा करना
तू कोई दीगर पेशानी चुन सकता है

मैंने तो ख़त में लिक्खे हैं अपने मआ’नी
वो इस ख़त में अपने मआ’नी चुन सकता है

जीना ही जब इतना मुश्किल है तो कोई
कैसे मरने की आसानी चुन सकता है

हर किरदार को चुन लेती है उसकी कहानी
क्या कोई किरदार कहानी चुन सकता है

- राजेश रेड्डी

Tuesday, March 28, 2017

कितने भूले हुए नग़्मात सुनाने आए

कितने भूले हुए नग़्मात सुनाने आए
फिर तिरे ख़्वाब मुझे मुझ से चुराने आए

फिर धनक-रंग तमन्नाओं ने घेरा मुझ को
फिर तिरे ख़त मुझे दीवाना बनाने आए

(धनक-रंग = इंद्रधनुष के रंग)

फिर तिरी याद में आँखें हुईं शबनम शबनम
फिर वही नींद न आने के ज़माने आए

फिर तिरा ज़िक्र किया बाद-ए-सबा ने मुझ से
फिर मिरे दिल को धड़कने के बहाने आए

(बाद-ए-सबा = पूर्व से आने वाली हवा, पुरवाई)

फिर मिरे कासा-ए-ख़ाली का मुक़द्दर जागा
फिर मिरे हाथ मोहब्बत के ख़ज़ाने आए

(कासा-ए-ख़ाली = ख़ाली भिक्षापात्र)

शर्त सैलाब समोने की लगा रक्खी थी
और दो अश्क भी हम से न छुपाने आए

(सैलाब समोने = तूफ़ान को सोखना/ समेटना)

-इक़बाल अशहर

Thursday, October 20, 2016

एक आँसू कोरे कागज़ पर गिरा
और अधूरा ख़त मुक़म्मल हो गया
-राजेश रेड्डी

Friday, October 14, 2016

वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना

वक़्त बंजारा-सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना
किस को मालूम यहाँ कौन है कितना अपना

(बंजारा-सिफ़त = बंजारों के समान, एक जगह ना टिकने वाला), (लम्हा ब लम्हा = क्षण-प्रतिक्षण)

जो भी चाहे वो बना ले उसे अपने जैसा
किसी आईने का होता नहीं चेहरा अपना

ख़ुद से मिलने का चलन आम नहीं है वरना
अपने अंदर ही छुपा होता है रस्ता अपना

यूँ भी होता है वो ख़ूबी जो है हम से मंसूब
उस के होने में नहीं होता इरादा अपना

(मंसूब = संबंधित)

ख़त के आख़िर में सभी यूँ ही रक़म करते हैं
उस ने रस्मन ही लिखा होगा तुम्हारा अपना

(रक़म = लिखना), (रस्मन = रीति/ परंपरा के अनुसार)

-निदा फ़ाज़ली

Friday, September 4, 2015

हँसती गाती तबीयत रखिये

हँसती गाती तबीयत रखिये
बच्चों वाली आदत रखिये

शोला, शबनम, शीशे जैसी
अपनी कोई फ़ितरत रखिये

हँसी, शरारत, बेपरवाही
इनमें अपनी रंगत रखिये

छेड़ - छाड़, आवारागर्दी
करने को भी फ़ुर्सत रखिये

भरे-भरे मानी की ख़ातिर
कभी-कभी कोरा ख़त रखिये

काम के इन्सां हो जाओगे
हम जैसों की सोहबत रखिये

-हस्तीमल 'हस्ती'

Sunday, May 17, 2015

अन्देशे

रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है
दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है के रो-रो के भुलाया होगा

(अज़ीयत = व्यथा, यातना), (सोज़-ए-मोहब्बत = प्रेम को आँच (पीड़ा))

वो कहाँ और कहाँ क़ाहिश-ए-ग़म सोज़िश-ए-जाँ
उस की रंगीन नज़र और नुक़ूश-ए-हिरमाँ
उस का एहसास-ए-लतीफ़ और शिकस्त-ए-अरमाँ
तानाज़न एक ज़माना नज़र आया होगा

(क़ाहिश-ए-ग़म = दुःख की कमी), (सोज़िश-ए-जाँ = जान का जलना), (नुक़ूश-ए-हिरमाँ = निराशा के चिन्ह), (एहसास-ए-लतीफ़ = कोमल भावनाएं), (शिकस्त-ए-अरमाँ = अभिलाषाओं का भंग होना), (तानाज़न = व्यंग करता हुआ)


झुक गई होगी जवाँ-साल उमंगों की जबीं
मिट गई होगी ललक डूब गया होगा यक़ीं
छा गया होगा धुआँ घूम गई होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरोंदे को जो ढाया होगा

(जवाँ-साल = नयी), (जबीं = माथा)

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाये होंगे
अश्क आँखों ने पिये और न बहाये होंगे
बन्द कमरे में जो ख़त मेरे जलाये होंगे
इक-इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

(अफ़साने = कहानियाँ), (अश्क = आँसू), (हर्फ़ = अक्षर), (जबीं = माथा)

उस ने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक नक़्श ने सौ शक़्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझ को तड़पता हुआ पाया होगा

(नक़्श = आकृति)

बे-महल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होंगे
ग़म पशेमाँ तबस्सुम में ढल आये होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होंगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

(बे-महल = बे-मौका, अनुचित समय पर), (पशेमाँ = लज्जित), (तबस्सुम = मुस्कराहट)


ज़ुल्फ़ ज़िद कर के किसी ने जो बनाई होगी
रूठे जलवों पे ख़िज़ाँ और भी छाई होगी
बर्क़ अश्वों ने कई दिन न गिराई होगी
रंग चेहरे पे कई रोज़ न आया होगा

(ख़िज़ाँ = पतझड़), (बर्क़ = बिजली), (अश्वों = हाव-भाव)

होके मजबूर मुझे उस ने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जान के ख़ाया होगा

-कैफ़ी आज़मी




 

Monday, May 11, 2015

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

(रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी)

वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मुक़ाम किस का था

(मुक़ीम = निवासी, ठहरा हुआ), (मुक़ाम =ठहरने का स्थान, पड़ाव)

न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम किस का था

(बज़्म = महफ़िल, सभा), (एहतमाम = प्रबन्ध)

हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था

(बा-दिल = दिल से), (पयाम = सन्देश)

इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था

(सिफ़ात = गुणों)

तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमाम किसका था

(मुश्ताक़ = उत्सुक, अभिलाषी), (तज़्किरा-ए-नातमाम = अधूरा ज़िक्र)

गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था

अगर्चे देखने वाले तेरे हज़ारों थे
तबाह हाल बहुत ज़ेर-ए-बाम किसका था

(अगर्चे = अगरचे = यद्यपि, हालाँकि), (ज़ेर-ए-बाम = छत के नीचे)

हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था

-दाग़

ग़ुलाम अली/ Ghulam Ali 
 
 
 
जगजीत सिंह/ Jagjit Singh 
 
 

Saturday, November 1, 2014

क्या जाने लिख दिया उन्हें क्या इज़्तिराब में
क़ासिद की लाश आई है ख़त के जवाब में

-मोमिन

(इज़्तिराब = बेचैनी), (क़ासिद = पत्रवाहक, डाकिया)

Friday, June 21, 2013

शहर हर रोज हादिसा लाया
जान अपनी मैं फिर बचा लाया ॥

मुफ़लिसी में बिके हुए कंगन
आज बाज़ार से उठा लाया ||

ख़त लिखा था तुम्हें जवानी में
कल जवाब उसका डाकिया लाया ॥

और थोड़ी सी बढ़ गयी साँसें
एक बच्चे को मैं घुमा लाया ||

देखकर फेर दी नज़र उसने
वक़्त कैसा ये, फ़ासला लाया ||

लाख कोशिश करो बिछुड़ने की
"फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया" ||

रात चुप थी, सितारे भी गुमसुम
चाँद जलती हुई शमा लाया ॥

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Thursday, May 30, 2013

जब कभी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है

रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूं
रोज़ उंगली मिरी तेज़ाब में आ जाती है

दिल की गलियों से तिरी याद निकलती ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है

रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है

(महताब = चाँद)

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है

ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए
कूचा - ए - रेशमो - किमख़्वाब में आ जाती है

(रिदा = चादर)

दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है

-मुनव्वर राना

Wednesday, March 6, 2013

दुख के मुका़बिल खड़े हुए हैं
हम गुर्बत में बड़े हुए हैं                          (गुर्बत = दरिद्रता, कंगाली)

मेरी मुस्कानों के नीचे
ग़म के खज़ाने गड़े हुए हैं

जीवन वो ज़ेवर है, जिसमें
अश्क के मोती जड़े हुए हैं

जा पहुँचा मंज़िल पे ज़माना
हम सोचों में पड़े हुए हैं

दुनिया की अपनी इक ज़िद है
हम अपनी पर अड़े हुए हैं

कुछ दुख हम लेकर आए थे
कुछ अपने ही गढ़े हुए हैं

जो ख़त वो लिखने वाला है
वो ख़त मेरे पढ़े हुए हैं
-राजेश रेड्डी

Sunday, March 3, 2013

अजनबी ख्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ
ऐसे जिद्दी हैं परिंदे के उड़ा भी न सकूँ

फूँक डालूँगा किसी रोज ये दिल की दुनिया
ये तेरा ख़त तो नहीं है कि जला भी न सकूँ

मेरी गैरत भी कोई शय है कि महफ़िल में मुझे
उसने इस तरह बुलाया है कि जा भी न सकूँ

इक न इक रोज कहीं ढ़ूँढ़ ही लूँगा तुझको
ठोकरें ज़हर नहीं हैं कि मैं खा भी न सकूँ

फल तो सब मेरे दरख्तों के पके हैं लेकिन
इतनी कमजोर हैं शाखें कि हिला भी न सकूँ

-राहत इन्दौरी

Wednesday, February 20, 2013

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में
एक पुराना ख़त खोला अनजाने में
-गुलज़ार

Sunday, January 6, 2013

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है,
नये परिन्दों को उड़ने में वक़्त तो लगता है।

जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था,
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है।

गाँठ अगर पड़ जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी,
लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है।

हमने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूँढ़ लिया है,
गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है।
-हस्तीमल 'हस्ती'

Thursday, November 15, 2012

तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
यार की आख़िरी पूंजी भी लुटा आया हूं
अपनी हस्ती को भी, लगता है, मिटा आया हूं
उम्र भर की जो कमाई थी, गंवा आया हूं

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं

तूने लिक्खा था जला दूं मैं तिरी तहरीरें
तू ने चाहा था जला दूं मैं तिरी तस्वीरें
सोच लीं मैंने मगर और ही कुछ तदबीरें

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं

तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
प्यार में डूबे हुये ख़त मैं जलाता कैसे
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं

जिन को दुनिया की निगाहों से छुपाये रक्खा
जिन को इक उम्र कलेजे से लगाये रक्खा
दीन जिन को, जिन्हें ईमान बनाये रक्खा

जिन का हर लफ़्ज़ मुझे याद था पानी की तरह
याद थे मुझ को जो पैग़ामे-ज़ुबानी की तरह
मुझ को प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह

तू ने दुनिया की निगाहों से जो बच कर लिक्खे
सालहा-साल मेरे नाम बराबर लिक्खे
कभी दिन में तो कभी रात को उठ कर लिक्खे

तेरे रूमाल, तेरे ख़त, तेरे छल्ले भी गये
तेरी तस्वीरें, तेरे शोख़ लिफ़ाफ़े भी गये
एक युग ख़त्म हुआ युग के फ़साने भी गये

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं

कितना बेचैन उन्हें लेने को गंगा जल था
जो भी धारा था उन्हीं के लिये वो बेकल था
प्यार अपना भी तो गंगा की तरह निर्मल था

तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूं
आग बहते हुये पानी में लगा आया हूं
-राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’

Wednesday, October 24, 2012

अगर आप होते भुलाने के क़ाबिल,
तो होते कहां दिल लगाने के क़ाबिल

वो वादा तुम्हारा, भरोसा हमारा,
लगे कब हमें टूट जाने के क़ाबिल

बसी है जो आंखों में तस्वीर तेरी,
नहीं आँसुओं से मिटाने के क़ाबिल

अँधेरे जुदाई के कुछ कम तो होते,
जो होते तेरे ख़त जलाने के क़ाबिल

मुहब्बत की शायद हक़ीक़त यही है,
कि शै है ये सपने सजाने के क़ाबिल

सनम मुझ को मंज़ूर मरना ख़ुशी से,
बने मौत लेकिन फ़साने के क़ाबिल

-शायर: नामालूम

Friday, October 19, 2012

कोई रस्ता है न मंज़िल न तो घर है कोई
आप कहिएगा सफ़र ये भी सफ़र है कोई

'पास-बुक' पर तो नज़र है कि कहाँ रक्खी है
प्यार के ख़त का पता है न ख़बर है कोई

ठोकरें दे के तुझे उसने तो समझाया बहुत
एक ठोकर का भी क्या तुझपे असर है कोई

रात-दिन अपने इशारों पे नचाता है मुझे
मैंने देखा तो नहीं, मुझमें मगर है कोई

एक भी दिल में न उतरी, न कोई दोस्त बना
यार तू यह तो बता यह भी नज़र है कोई

प्यार से हाथ मिलाने से ही पुल बनते हैं
काट दो, काट दो गर दिल में भँवर है कोई

मौत दीवार है, दीवार के उस पार से अब
मुझको रह-रह के बुलाता है उधर है कोई

सारी दुनिया में लुटाता ही रहा प्यार अपना
कौन है, सुनते हैं, बेचैन 'कुँअर' है कोई

-कुँअर बेचैन

Thursday, September 27, 2012

जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे,
हज़ारों तरफ से निशाने लगे

हुई शाम यादों के इक गाँव में
परिंदे उदासी के आने लगे

घड़ी दो घड़ी मुझको पलकों पे रख
यहाँ आते आते ज़माने लगे

कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं
दुकानें खुलीं, कारख़ाने लगे

वहीं ज़र्द पत्तों का कालीन है
गुलों के जहाँ शामियाने लगे

पढाई लिखाई का मौसम कहाँ
किताबों में ख़त आने-जाने लगे

-बशीर बद्र