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Friday, May 8, 2020

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना
जो लिखना कभी तो मुहब्बत पे लिखना।

है ग़ाफ़िल बहुत ही यतीमों से दुनिया
लिखो तुम तो उनकी अज़ीयत पे लिखना।

(ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर), (अज़ीयत = पीड़ा, अत्याचार, व्यथा, यातना, कष्ट, तक़लीफ़)

चले जब हवा नफ़रतों की वतन में
ज़रूरी बहुत है मुहब्बत पे लिखना।

हसीनों पे लिखना अगर हो ज़रूरी
तो सूरत नहीं उनकी सीरत पे लिखना।

अगर बात निकले लिखो अपने घर पे
इबादत बराबर है जन्नत पे लिखना।

सितम कौन समझा है इसके कभी भी
है मुश्किल ज़माने की फितरत पे लिखना।

अगर मुझपे लिखना पड़े बाद मेरे
तो चाहत पे लिखना अक़ीदत पे लिखना।

(अक़ीदत = श्रद्धा, आस्था, विश्वास)

-विकास वाहिद

Wednesday, April 1, 2020

इस नाज़ इस अंदाज़ से तुम हाए चलो हो

इस नाज़ इस अंदाज़ से तुम हाए चलो हो
रोज़ एक ग़ज़ल हम से कहलवाए चलो हो

रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो

दीवाना-ए-गुल क़ैदी-ए-ज़ंजीर हैं और तुम
क्या ठाट से गुलशन की हवा खाए चलो हो

(दीवाना-ए-गुल = फूलों का दीवाना)

मय में कोई ख़ामी है न साग़र में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चलो हो

हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो

ज़ुल्फ़ों की तो फ़ितरत ही है लेकिन मिरे प्यारे
ज़ुल्फ़ों से ज़ियादा तुम्हीं बल खाए चलो हो

वो शोख़ सितमगर तो सितम ढाए चले है
तुम हो कि 'कलीम' अपनी ग़ज़ल गाए चलो हो

-कलीम आजिज़

Tuesday, April 30, 2019

वो हम से दूर होते जा रहे हैं

वो हम से दूर होते जा रहे हैं
बहुत मग़रूर होते जा रहे हैं

बस इक तर्क-ए-मोहब्बत के इरादे
हमें मंज़ूर होते जा रहे हैं

मनाज़िर थे जो फ़िरदौस-ए-तसव्वुर
वो सब मस्तूर होते जा रहे हैं

(मनाज़िर = मंज़र का बहुवचन, दृश्य समूह), (फ़िरदौस-ए-तसव्वुर = ख़यालों की जन्नत), (मस्तूर =लिखित, अभिव्यक्त, छिपा हुआ, गुप्त)

बदलती जा रही है दिल की दुनिया
नए दस्तूर होते जा रहे हैं

बहुत मग़्मूम थे जो दीदा-ओ-दिल
बहुत मसरूर होते जा रहे हैं

(मग़्मूम = ग़म से भरा हुआ, दुखी), (दीदा-ओ-दिल = आँखे और दिल), (मसरूर = प्रसन्न, आनंदित)

वफ़ा पर मुर्दनी सी छा चली है
सितम का नूर होते जा रहे हैं

कभी वो पास आए जा रहे थे
मगर अब दूर होते जा रहे हैं

फ़िराक़ ओ हिज्र के तारीक लम्हे
सरापा नूर होते जा रहे हैं

(फ़िराक़ ओ हिज्र = मिलान और जुदाई), (तारीक = अंधकारमय), (सरापा = सर से पाँव तक)

'शकील' एहसास-ए-गुमनामी से कह दो
कि हम मशहूर होते जा रहे हैं

-शकील बदायुनी

Thursday, April 18, 2019

आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर

आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर
तन्हा तो तड़पने से बचा ले कोई आ कर

सहरा में उगा हूँ कि मिरी छाँव कोई पाए
हिलता हूँ कि पत्तों की हवा ले कोई आ कर

(सहरा = रेगिस्तान, जंगल, बयाबान, वीराना)

बिकता तो नहीं हूँ न मिरे दाम बहुत हैं
रस्ते में पड़ा हूँ कि उठा ले कोई आ कर

कश्ती हूँ मुझे कोई किनारे से तो खोले
तूफ़ाँ के ही कर जाए हवाले कोई आ कर

(कश्ती = नाव)

जब खींच लिया है मुझे मैदान-ए-सितम में
दिल खोल के हसरत भी निकाले कोई आ कर

दो चार ख़राशों से हो तस्कीन-ए-जफ़ा क्या
शीशा हूँ तो पत्थर पे उछाले कोई आ कर

(जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार), (तस्कीन = धैर्य, संयम, सहनशीलता)

मेरे किसी एहसान का बदला न चुकाए
अपनी ही वफ़ाओं का सिला ले कोई आ कर

-अदीम हाशमी

Friday, February 22, 2019

सितम भी करता है उस का सिला भी देता है

सितम भी करता है उस का सिला भी देता है
कि मेरे हाल पे वो मुस्कुरा भी देता है

शनावरों को उसी ने डुबो दिया शायद
जो डूबतों को किनारे लगा भी देता है

(शनावरों = तैराकों)

यही सुकूत यही दश्त-ए-जाँ का सन्नाटा
जो सुनना चाहे कोई तो सदा भी देता है

(सुकूत = मौन, चुप्पी, ख़ामोशी), (ज़िन्दगी का रेगिस्तान), (सदा  = आवाज़)

अजीब कूचा-ए-क़ातिल की रस्म है कि यहाँ
जो क़त्ल करता है वो ख़ूँ-बहा भी देता है

वो कौन है कि जलाता है दिल में शम-ए-उमीद
फिर अपने हाथ से उस को बुझा भी देता है

वो कौन है कि बनाता है नक़्श पानी पर
तो पत्थरों की लकीरें मिटा भी देता है

वो कौन है कि जो बनता है राह में दीवार
और उस के बा'द नई रह दिखा भी देता है

वो कौन है कि दिखाता है रंग रंग के ख़्वाब
अँधेरी रातों में लेकिन जगा भी देता है

वो कौन है कि ग़मों से नवाज़ता है मुझे
ग़मों को सहने का फिर हौसला भी देता है

मुझी से कोई छुपाता है राज़-ए-ग़म सर-ए-शाम
मुझी को आख़िर-ए-शब फिर बता भी देता है

(राज़-ए-ग़म = दुःख का राज़), (सर-ए-शाम = शाम के समय), (आख़िर-ए-शब = रात ख़त्म होने पर)

-मुशफ़िक़ ख़्वाजा

Wednesday, February 13, 2019

उस ज़ुल्म पे क़ुर्बां लाख करम, उस लुत्फ़ पे सदक़े लाख सितम
उस दर्द के क़ाबिल हम ठहरे, जिस दर्द के क़ाबिल कोई नहीं

क़िस्मत की शिकायत किससे करें, वो बज़्म मिली है हमको जहाँ
राहत के हज़ारों साथी हैं, दुःख-दर्द में शामिल कोई नहीं

-बासित भोपाली

Friday, November 11, 2016

हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब

हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब
रस्ता अगर हो याद तो घर जाइए जनाब

(गाम = कदम, पग)

ज़िंदा हक़ीक़तों के तलातुम हैं सामने
ख़्वाबों की कश्तियों से उतर जाइए जनाब

(तलातुम = तूफ़ान, बाढ़, पानी का लहराना)

इंकार की सलीब हूँ सच्चाइयों का ज़हर
मुझ से मिले बग़ैर गुज़र जाइए जनाब

(सलीब = सूली)

दिन का सफ़र तो कट गया सूरज के साथ साथ
अब शब की अंजुमन में बिखर जाइए जनाब

(शब = रात),  (अंजुमन = सभा, महफ़िल)

कोई चुरा के ले गया सदियों का ए'तिक़ाद
मिम्बर की सीढ़ियों से उतर जाइए जनाब

(ए'तिक़ाद = श्रद्धा, आस्था, विश्वास, यकीन, भरोसा), (मिम्बर = उपदेश-मंच, भाषण-मंच)

-अमीर क़ज़लबाश


Monday, November 7, 2016

ज़ुल्म-ओ-सितम से तंग जो आएँ तो क्या करें

ज़ुल्म-ओ-सितम से तंग जो आएँ तो क्या करें
सर दर पे उन के गर न झुकाएँ तो क्या करें

ख़ारों को भी नमी ही की हाजत है जब तो फिर
सहरा-ए-दिल न रो के भिगाएँ तो क्या करें

(हाजत = इच्छा, अभिलाषा, ख़्वाहिश)

अपनी तरफ़ से हमने परस्तिश तो ख़ूब की
इस पर भी वो नज़र से गिराएँ तो क्या करें

(परस्तिश = पूजा, आराधना)

हंस हंस के कर रहे हैं तमन्ना का ख़ून हम
यूँ रंग ज़िन्दगी में न लाएँ तो क्या करें

दम घोटती हैं बारहा तन्हाइयां मेरी
ख़ल्वत इसे न कह के छिपाएँ तो क्या करें

(बारहा = कई बार, अक्सर), (ख़ल्वत = एकांत, तन्हाई)

बन के तबीब आये मेरी ज़िन्दगी में जो
वो हाथ नब्ज़ को न लगाएँ तो क्या करें

 (तबीब = उपचारक, चिकित्सक)

नाज़-ओ-नियाज़ क्या, नहीं होता कलाम तक
हम ज़ार ज़ार रो भी न पाएँ तो क्या करें

(नाज़-ओ-नियाज़ = प्रेमी-प्रेमिका की आतंरिक चेष्ठाएँ, हाव-भाव, शोख़ियाँ)

-स्मृति रॉय

Zulm-o-sitam se tang jo aayeN to kya kareN
Sar dar pe unke gar na jhukayeN to kya kareN

KharoN ko bhi nami ki hi haajat hai jab to phir
Sahara-e-dil na ro ke bhigayeN to kya kareN

Apni taraf se hamne parstish to khoob ki
Is par bhi wo nazar se girayeN to kya kareN

Hans hans ke kar raheN haiN tamnna ka khoon ham
YuN rang zindgii meiN na layeN to kya kareN

Dam ghotii haiN barhaa tanhaeeyaN meri
Khalwat ise na kah ke chhipayeN to kya kareN

Ban ke tabeeb aaye merii zindgii meiN jo
Wo haath nabz ko na lagayeN to kya kareN

Naaz-o-niyaaz kya, nahiN hota kalaam tak
Ham zaar zaar ro bhi na paayeN to kya kareN

-Smriti Roy 

Monday, October 10, 2016

अपनी फ़ितरत पे नाज़ है मुझ को
भूल सकते नहीं ये अहल-ए-नज़र
ख़ूब हँसता हूँ मुस्कुराता हूँ
दोस्तों की सितम-ज़रीफ़ी पर
-महेश चंद्र नक़्श

(अहल-ए-नज़र = दृष्टि वाले, People with vision), (सितम-ज़रीफ़ी = हँसी की ओट में अत्याचार करना)

Wednesday, June 15, 2016

इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है

इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है
दिल में अब तक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

जुर्म-ए-तौहीन-ए-मोहब्बत की सज़ा दे मुझको
कुछ तो महरूम-ए-उल्फ़त का सिला दे मुझको
जिस्म से रूह का रिश्ता नहीं टूटा है अभी
हाथ से सब्र का दामन नहीं छूटा है अभी
अभी जलते हुये ख़्वाबों का धुंआ बाक़ी है

इक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है
दिल में अबतक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

अपनी नफ़रत से मेरे प्यार का दामन भर दे
दिल-ए-गुस्ताख़ को महरूम-ए-मोहब्बत कर दे
देख टूटा नहीं चाहत का हसीं ताजमहल
आ के बिखरे नहीं महकी हुयी यादों के कँवल
अभी तक़दीर के गुलशन में ख़िज़ा बाकी है

-शायर: नामालूम


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन 








Shafqat Amanat Ali/ शफ़क़त अमानत अली 


Tuesday, May 31, 2016

तमाम उम्र सितम हमपे वो हज़ार करे

तमाम उम्र सितम हमपे वो हज़ार करे
बस एक बार ज़मीर उसको शर्मसार करे

कई हज़ार तरीक़े हैं ख़ुदखुशी के मियाँ
बशर को अब नहीं लाज़िम किसी को प्यार करे

(बशर = इंसान)

हरेक बात पे तकरार ही नहीं अच्छी
कभी तो प्यार का अन्दाज़ इख़्तियार करे

सुना है उसको अज़ाबों का कोई ख़ौफ़ नहीं
हमारा ज़िक्र भी ज़ालिम कभी-कभार करे

(अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट)

हमारे बाद रक़ीबों पे कोई क़ैद न हो
किसी भी हीले से जो चाहे ज़िक्रे-यार करे

किसी भी हाल में जी लेंगे बेहया होकर
कहाँ तलक कोई मरने का इन्तज़ार करे

-कांतिमोहन 'सोज़'

Sunday, May 1, 2016

मोहब्बत करने वाले कम न होंगे

मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे

मैं अक्सर सोचता हूँ फूल कब तक
शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम न होंगे

(शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम = सुबह की ओस के साथ रोने में शामिल)

ज़रा देर-आश्ना चश्म-ए-करम है
सितम ही इश्क़ में पैहम न होंगे

(देर-आश्ना = देरी से मित्रता), (चश्म-ए-करम = आँखों की कृपा), (पैहम = लगातार)

दिलों की उलझने बढ़ती रहेंगी
अगर कुछ मशवरे बाहम न होंगे

(बाहम = परस्पर, साथ में)

ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे

कहूँ बेदर्द क्यूँ अहल-ए-जहाँ को
वो मेरे हाल से महरम न होंगे

(अहल-ए-जहाँ = दुनिया वाले), (महरम = अंतरंग मित्र)

हमारे दिल में सैल-ए-गिर्या होगा
अगर बा-दीद-ए-पुरनम न होंगे

(सैल-ए-गिर्या = आँसुओं की बाढ़), (बा-दीद-ए-पुरनम = नाम आँखों से)

अगर तू इत्तेफ़ाक़न मिल भी जाए
तेरी फ़ुर्कत के सदमें कम न होंगे

(फ़ुर्कत = जुदाई)

'हफ़िज़' उनसे मैं जितना बदगुमां हूँ
वो मुझसे इस क़दर बरहम न होंगे

(बदगुमां = संदेहशील, शक्की, असंतुष्ट), (बरहम = नाराज़)

-हफ़ीज़ होशियारपुरी


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन




Mehdi Hassan/ मेहदी हसन (Live)



Farida Khanum/ फ़रीदा ख़ानुम


Talat Aziz/ तलत अज़ीज़



Iqbal Bano/ इक़बाल बानो

Wednesday, March 16, 2016

सितम ज़ाहिर, जफ़ा साबित, मुसल्लम बेवफ़ा तुम हो

सितम ज़ाहिर, जफ़ा साबित, मुसल्लम बेवफ़ा तुम हो
किसी को फिर भी प्यार आये तो क्या समझें के क्या तुम हो

(जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार), (मुसल्लम = माना हुआ, पूरा)

चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हमीं हम हैं तो क्या हम हैं, तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो

(चमन = बगीचा), (इख़्तिलात = अनुराग, मेल-जोल), (इख़्तिलात-ए -रंग-ओ-बू = रंग और ख़ुशबू का मेल-जोल)

अंधेरी रात, तूफ़ानी रात, टूटी हुई कश्ती
यही असबाब क्या कम थे के इस पर नाख़ुदा तुम हो

(असबाब = सामान), (नाख़ुदा = नाविक, मल्लाह)

मुबादा और इक फ़ितना बपा हो जाए महफ़िल में
मेरी शामत कहे तुम से के फ़ितनों की बिना तुम हो

(मुबादा = कहीं ऐसा न हो, यह न हो कि), (फ़ितना = उपद्रव, लड़ाई-झगड़ा), (बपा = उपस्थित, कायम)

ख़ुदा बख्शे वो मेरा शौक़ में घबरा के कह देना
किसी के नाख़ुदा होगे मगर मेरे ख़ुदा तुम हो

तुम अपने दिल में खुद सोचो हमारा मुँह न खुलवाओ
हमें मालूम है 'सरशार' के कितने पारसा तुम हो

(पारसा = संयमी, सदाचारी)

-पंडित रतन नाथ धर 'सरशार'

Saturday, May 23, 2015

मोड़ कर अपने अन्दर की दुनिया से मुँह, हम भी दुनिया-ए-फ़ानी के हो जाएँ क्या

मोड़ कर अपने अन्दर की दुनिया से मुँह, हम भी दुनिया-ए-फ़ानी के हो जाएँ क्या
जान कर भी कि ये सब हक़ीक़त नहीं, झूटी-मूटी कहानी के हो जाएँ क्या

(दुनिया-ए-फ़ानी = नश्वर/ नष्ट होने वाली दुनिया)

कब तलक बैठे दरिया किनारे यूँ ही, फ़िक्र दरिया के बारे में करते रहें
डाल कर अपनी कश्ती किसी मौज पर, हम भी उसकी रवानी के हो जाएँ क्या

सोचते हैं कि हम अपने हालात से, कब तलक यूँ ही तकरार करते रहें
हँसके सह जाएँ क्या वक़्त का हर सितम, वक़्त की मेहरबानी के हो जाएँ क्या

ज़िन्दगी वो जो ख़्वाबों-ख़्यालों में है, वो तो शायद मयस्सर न होगी कभी
ये जो लिक्खी हुई इन लकीरों में है, अब इसी ज़िन्दगानी के हो जाएँ क्या

हमने ख़ुद के मआनी निकाले वही, जो समझती रही है ये दुनिया हमें
आईने में मआनी मगर और हैं, आईने के मआनी के हो जाएँ क्या

हमने सारे समुन्दर तो सर कर लिए, उनके सारे ख़ज़ाने भी हाथ आ चुके
अब ज़रा अपने अन्दर का रुख़ करके हम, दूर तक गहरे पानी के हो जाएँ क्या


-राजेश रेड्डी

Thursday, May 14, 2015

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया

किसी तरह जो न उस बुत ने ऐतबार किया
मेरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मशार किया

हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया

(शब-ए-वस्ल = मिलन की रात), (अश्क-बार = आँसू बहानेवाला)

ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा, हाए बेक़रार किया

(सर-ए-मज़ार = मज़ार पर)

सुना है तेग को क़ातिल ने आबदार किया
अगर ये सच है तो बे-शुबह हम पे वार किया

(तेग = तलवार), (आबदार = धारदार), (बे-शुबह = बिना शक़)

न आए राह पे वो इज़्ज़ बे-शुमार किया
शब-ए-विसाल भी मैंने तो इन्तिज़ार किया

(इज़्ज़ = नम्रता, विनय), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात)

तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ को उम्मीदवार किया

(वादा-ए-दीदार = दर्शन का वादा)

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआलअन्देश
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया

(ताब = सहनशक्ति, आभा, बल), (मआलअन्देश = दूरदृष्टा)

कहाँ का सब्र कि दम पर है बन आई ज़ालिम
ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आशकार किया

(आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं
आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया

मिले जो यार की शोख़ी से उसकी बेचैनी
तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया

(दिल-ए-मुज़्तरिब = व्याकुल/ बेचैन दिल)

भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
छिपा छिपा के मोहब्बत को आशकार किया

(राज़-ए-निहां = छिपा हुआ रहस्य), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

न उसके दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता
सबा ने ख़ाक़ परेशां मेरा ग़ुबार किया

(सबा = बयार, पुरवाई, हवा)

हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया

(मह्व = निमग्न, तल्लीन), (मह्व-ए-नज़ारा = दृश्य की सुंदरता देखने में तल्लीन), (तग़ाफ़ुल = उपेक्षा, बेरुख़ी)

हमारे सीने में रह गई थी आतिश-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल भी उसको न हम-कनार किया

(आतिश-ए-हिज्र = विरह की चिंगारी), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात), (हम-कनार = बाँहों में भरना)

रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है
वो और इश्क़ भला तुमने एतबार किया

(शेवा-ए-उल्फ़त = प्यार की आदत)

ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह
जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया

(ज़बान-ए-ख़ार = काँटों भरी ज़ुबान), (सदा-ए-बिस्मिल्लाह = ख़ुदा के नाम से शुरू करने की आवाज़), (सर-ए-शोरीदा = उन्मुक्तता)

तेरी निगह के तसव्वुर में हमने ए क़ातिल
लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया

(तसव्वुर = कल्पना, ख़याल)

गज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैंने धोके में
हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया

(कसरत-ए-महफ़िल = सभा की भीड़), (रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी), (हम-कनार = गले लगाना)

हुआ है कोई मगर उसका चाहने वाला
कि आसमां ने तेरा शेवा इख़्तियार किया

(शेवा = आदत, तरीक़ा)

न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया

उन को तर्ज-ए-सितम आ गए तो होश आया
बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होशियार आया

(तर्ज-ए-सितम = अत्याचार, ज़ुल्म करने का तरीक़ा)

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया

(फ़साना-ए-शब-ए-ग़म = दुःख भरी रात की कहानी)

असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही
तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया

(असीरी = क़ैद), (दिल-ए-आशुफ़्ता = आतुर/ बेचैन दिल), (तुर्रा-ए-तर्रार = बल खाए हुए बाल), (तार तार = छिन्न-भिन्न)

कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया

(दावर-ए-महशर = ख़ुदा)

किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बदगुमानी थी
कि डरते डरते खुदा पर भी आशकार किया

(इश्क़-ए-निहाँ = छुपा हुआ प्यार), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे
आख़िर अब मुझे आशोब-ए-रोज़गार किया

(फ़लक = आसमान), (आशोब-ए-रोज़गार = रोज़गार की हलचल/ उपद्रव)

वो बात कर जो कभी आसमां से हो न सके
सितम किया तो बड़ा तूने इफ़्तिख़ार किया

(इफ़्तिख़ार = गौरव, मान)

बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी खाल-ए-सियाह
जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आशकार किया

(मेहर-ए-क़यामत = क़यामत के दिन का सूरज), (खाल-ए-सियाह = काला तिल, Beauty spot), ( 'दाग़'-ए-सियह-रू = शायर के काले चेहरे पर निशान), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

-दाग़


मेहदी हसन/ Mehdi Hasan 
 
 
 
मोहम्मद रफ़ी/ Mohammad Rafi
 
 
पंकज उधास/ Pankaj Udhaas
 
राजकुमारी/ Rajkumaari 
 
कविता कृष्णामूर्ति/ Kavita Krishnamurti 
 
फ़रीदा ख़ानुम/ Fareeda Khanum 
 

Monday, May 11, 2015

लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है

लुत्फ़ वो इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है
रंज भी ऐसे उठाए हैं कि जी जानता है

मुस्कुराते हुए वो मजमा-ए-अग्यार के साथ
आज यूँ बज़्म में आए हैं कि जी जानता है

(मजमा-ए-अग्यार = गैरों का समूह, पराये लोग), (बज़्म = महफ़िल)

जो ज़माने के सितम हैं वो ज़माना जाने
तूने दिल इतने दुखाए हैं कि जी जानता है

तुम नहीं जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज़
वो मेरे दिल में समाए हैं कि जी जानता है

इन्हीं क़दमों ने तुम्हारे इन्हीं क़दमों की क़सम
ख़ाक में इतने मिलाए हैं कि जी जानता है

दोस्ती में तेरी दरपर्दा हमारे दुश्मन
इस क़दर अपने पराए हैं कि जी जानता है

सादगी, बाँकपन, अग्माज़, शरारत, शोखी
तू ने अंदाज़ वो पाए हैं कि जी जानता है

'दाग़'-ए-वारफ़्ता को हम आज तेरे कूचे से
इस तरह खींच के लाये हैं कि जी जानता है

(वारफ़्ता = तल्लीन, भटका हुआ, बेसुध), (कूचा = गली)

-दाग़
Noorjahan
 
Farida Khanum




 

Friday, December 19, 2014

किसी की आँख जो पुरनम नहीं है

किसी की आँख जो पुरनम नहीं है
न समझो ये के उसको ग़म नहीं है ।

(पुरनम = नम, गीली)

सवाद-ए-दर्द में तन्हा खडा हूँ
पलट जाऊं मगर मौसम नहीं है ।

(सवाद-ए-दर्द = दर्द की कालिमा)

समझ में कुछ नहीं आता किसी की
अग़र्चे गुफ़्तगु मुबहम नहीं है ।

(अग़र्चे = यद्यपि, यदि), (मुबहम = अस्पष्ट, संदिग्ध)

सुलगता नहीं तारीक़ जंगल
तलब की लौ अगर मद्धम नहीं है ।

(तारीक़ = अंधकारमय)

ये बस्ती है सितम परवरदिगाँ की
यहाँ कोई किसी से कम नहीं है ।

किनारा दूसरा दरिया का जैसे
वो साथी है मगर महरम नहीं है ।

(महरम = अंतरंग मित्र)

दिलों की रौशनी बुझने ना देना
वजूद-ए-तीरगी मोहकम नहीं है ।

(वजूद-ए-तीरगी = अन्धकार का आस्तित्व), (मोहकम = मुहकम = ढृढ़, मज़बूत, पुख्ता)

मैं तुम को चाह कर पछता रहा हूं
कोई इस ज़ख्म का मरहम नहीं है ।

जो कोई सुन सके 'अमजद' तो दुनिया
बजूज़ इक बाज़गश्त-ए-ग़म नहीं है ।

(बजूज़ = अतिरिक्त, सिवाय, इसको छोड़कर), (बाज़गश्त =वापिस आना, लौटना), (बाज़गश्त-ए-ग़म = दुःख का वापस आना)

-अमजद इस्लाम अमजद


आबिदा परवीन/ Abida Parveen


Monday, October 20, 2014

तेरे इश्क़ की इन्तहा चाहता हूँ

तेरे इश्क़ की इन्तहा चाहता हूँ
मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ

(वादा-ए-बेहिजाबी = बिना परदे में रहने का वादा)

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ

(ज़ाहिदों = जितेन्द्रिय या संयमी व्यक्ति)

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ

(अहल-ए-महफ़िल = महफ़िल के लोग), (चिराग़-ए-सहर = सुबह का दीपक)

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ, सज़ा चाहता हूँ

(बज़्म = महफ़िल)

- अल्लामा इक़बाल

Rahat Fateh Ali Khan/ राहत फ़तेह अली ख़ान 

Dr. Radhika Chopda/ डा राधिका चोपड़ा 

Monday, December 16, 2013

कुछ दोस्तों को हमने निभाया बहुत दिनों
घाटे का कारोबार चलाया बहुत दिनों

हर इक सितम पर दाद दी, हर ज़ख्म पर दुआ
हमने भी दुश्मनों को सताया बहुत दिनों
-नवाज़ देवबंदी

Friday, July 5, 2013

कभी दोस्ती के सितम देखते हैं

कभी दोस्ती के सितम देखते हैं
कभी दुश्मनी के करम देखते हैं

कोई चेहरा नूरे-मसर्रत से रोशन
किसी पर हज़ारों अलम देखते हैं

(नूरे-मसर्रत = हर्ष/ आनंद का प्रकाश), (अलम = दुःख, रंज, ग़म)

अगर सच कहा हम ने तुम रो पडोगे
न पूछों कि हम कितने ग़म देखते हैं

गरज़ उनकी देखी मदद करना देखा
और अब टूटता हर भरम देखते हैं

ज़ुबाँ खोलता है यहां कौन देखें
हक़ीक़त में कितना है दम देखते हैं

उन्हें हर सफ़र में भटकना पडा है
जो नक्शा न नक्शे-क़दम देखते हैं

यूँ ही ताका-झाँकी तो आदत नहीं है
मगर इक नज़र कम से कम देखते हैं

थी ज़िंदादिली जिन की फ़ितरत में यारों!
'यक़ीन' उन की आँखों को नम देखते हैं
-पुरुषोत्तम 'यक़ीन'