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Monday, September 21, 2020

ज़ूम

तुझे ऐ ज़िंदगी अब आँख भर के देखना है,
तेरी बारीकियों को 'ज़ूम' कर के देखना है

ग़लत इल्ज़ाम कैसे ‘फ़ेस’ करती है हक़ीक़त,
ये ख़ुद पर ही कोई इल्ज़ाम धर के देखना है.

ज़माने का चलन है~ भावनाएँ ‘कैश’ करना,
ज़माने पर भरोसा फिर भी कर के देखना है.

किसी की शख़्सियत का ‘वेट’ है किस-किस के ऊपर ?
पहाड़ों से तराई में उतर के देखना है.

चिता की राख से और क़ब्र की गहराइयों से,
कहाँ जाते हैं सारे लोग, मर के देखना है.

डरा हूँ दोस्तों की भीड़ से अक्सर, मगर अब-
मुझे अपने अकेलेपन से डर के देखना है.

-आलोक श्रीवास्तव 

Wednesday, July 10, 2019

धरती, अंबर, जल, आग, हवा, जब अपना क़र्ज़ वसूलेंगे,
ये जिस्म धुआँ हो जाएगा, बस तस्वीरें रह जाएँगी
-आलोक श्रीवास्तव

Saturday, March 3, 2018

रंग

सब रंग यहीं भोगे, सीखे
सब रंग यहीं देखे जी के
ख़ुश-रंग तबीयत के आगे
सब रंग ज़माने के फीके

कुछ रंग लड़कपन के हिस्से
कुछ रंग बुज़ुर्गों के क़िस्से
कुछ रंग तो कह देंगे सबसे
कुछ रंग कहें जाकर किससे

कुछ रंग अदावत की गांठें
कुछ रंग मुहब्बत की बातें
कुछ रंग सलोनी आशाएँ
कुछ रंग ख़ुशी की सौग़ातें

कुछ रंग निशानी शर्मों की
कुछ रंग कहानी कर्मों की
कुछ रंग नमाज़ें और सजदे
कुछ रंग अलामत धर्मों की

कुछ रंग 'धरा' की तक़दीरें
कुछ रंग 'गगन' की तस्वीरें
कुछ रंग 'हवा' की तासीरें
कुछ रंग 'अगन' की शमशीरें
कुछ रंग हैं 'जल' की जागीरें

सब रंग यहीं भोगे, सीखे
सब रंग यहीं देखे जी के
ख़ुश-रंग तबीयत के आगे
सब रंग ज़माने के फीके

-आलोक श्रीवास्तव

Wednesday, June 29, 2016

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम

ये और बात दूर रहे मंज़िलों से हम
बच कर चले हमेशा मगर क़ाफ़िलों से हम

होने को रुशनास नयी उलझनों से हम
मिलते हैं रोज़ अपने कई दोस्तों से हम

(रुशनास = परिचित)

बरसों फ़रेब खाते रहे दूसरों से हम
अपनी समझ में आए बड़ी मुश्किलों से हम

मंज़िल की है तलब तो हमें साथ ले चलो
वाकिफ़ हैं ख़ूब राह की बारीकियों से हम

जिनके परों पे सुबह की ख़ुशबू के रंग हैं
बचपन उधार लाए हैं उन तितलियों से हम

कुछ तो हमारे बीच कभी दूरियाँ भी हों
तंग आ गए हैं रोज़ की, नज़दीकियों से हम

गुज़रें हमारे घर की किसी रहगुज़र से वो
परदें हटाएँ, देखें उन्हें खिड़कियों से हम

जब भी कहा के - 'याद हमारी कहाँ उन्हें ?
पकड़े गए हैं ठीक तभी, हिचकियों से हम

-आलोक श्रीवास्तव

Saturday, June 15, 2013

जीवन के दुश्वार सफ़र में बे-मौसम बरसातें सच,
उसने कैसे काटी होंगी, लम्बी - लम्बी रातें सच।

लफ़्ज़ों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या ?
मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूटी बातें सच।

कच्चे-रिश्ते, बासी-चाहत और अधूरा-अपनापन,
मेरे हिस्से में आई हैं ऐसी ही सौग़ातें सच।

जाने क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते,
पलकों से ही लौट गई हैं सपनों की बारातें सच।

धोखा ख़ूब दिया है ख़ुद को झूठे-मूठे क़िस्सों से,
याद मगर जब करने बैठे, याद आईं हैं बातें सच।
-आलोक श्रीवास्तव
हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या,
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या।

धुएँ की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना,
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या।

तुम्हारे अज़्म की ख़ुशबू, लहू के साथ बहती है,
अना ये ख़ानदानी है, उतर जाए ख़ुमारी क्या।

[(अज़्म = श्रेष्ठता), (अना = आत्मसम्मान)]

उतर जाए है छाती में, जिगरवा काट डाले हैं,
मुई तनहाई ऐसी है, छुरी, बरछी, कटारी क्या।

हमन कबिरा की जूती हैं, उन्हीं का क़र्ज़ भारी है,
चुकाए से जो चुक जाए, वो क़र्ज़ा क्या, उधारी क्या।
-आलोक श्रीवास्तव
तुम्हारे पास आता हूँ तो साँसें भीग जाती हैं,
मुहब्बत इतनी मिलती है के' आँखें भीग जाती हैं।

तबस्सुम इत्र जैसा है हँसी बरसात जैसी है,
वो जब भी बात करती है, तो बातें भीग जाती हैं।

तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है,
तुम्हें जब गुनगुनाता हूँ तो रातें भीग जाती हैं।

ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नये पत्तों की आमद से ही शाखें भीग जाती हैं।

तेरे एहसास की ख़ुशबू हमेशा ताज़ा रहती है,
तेरी रहमत की बारिश से मुरादें भीग जाती हैं।
-आलोक श्रीवास्तव
घर की बुनियादें, दीवारें, बामों-दर थे बाबूजी,
सबको बाँधे रखने वाला, ख़ास हुनर थे बाबूजी।

तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का कोई न था,
अच्छे-ख़ासे, ऊँचे-पूरे, क़द्दावर थे बाबूजी।

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
अम्माजी की सारी सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी।

भीतर से ख़ालिस जज़्बाती, और ऊपर से ठेठ-पिता,
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा, इक तेवर थे बाबूजी।

कभी बड़ा-सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन,
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी।
-आलोक श्रीवास्तव

Friday, June 14, 2013

मुद्दतों ख़ुद की कुछ ख़बर न लगे,
कोई अच्छा भी इस क़दर न लगे।

मैं जिसे दिल से प्यार करता हूं,
चाहता हूं उसे ख़बर न लगे।

वो मेरा दोस्त भी है दुश्मन भी,
बद्दुआ दूं उसे, मगर न लगे।

रास्ते में बहुत अंधेरा है,
डर है मुझको के तुझको डर न लगे।

बस तुझे उस नज़र से देखा है,
जिस नज़र से तुझे नज़र न लगे।
-आलोक श्रीवास्तव

Thursday, June 6, 2013

असर बुजुर्गों की नेमतों का, हमारे अंदर से झांकता है,
पुरानी नदियों का मीठा पानी, नए समंदर से झांकता है।

न जिस्‍म कोई, न दिल न आंखें, मगर ये जादूगरी तो देखो,
हर एक शै में धड़क रहा है, हर एक मंज़र से झांकता है।

लबों पे ख़ामोशियों का पहरा, नज़र परेशां उदास चेहरा,
तुम्‍हारे दिल का हर एक जज़्‍बा, तुम्‍हारे तेवर से झांकता है।

गले में मां ने पहन रखे हैं, महीन धागे में चंद मोती,
हमारी गर्दिश का हर सितारा, उस एक ज़ेवर से झांकता है।

थके पिता का उदास चेहरा, उभर रहा है यूं मेरे दिल में,
कि प्‍यासे बादल का अक्‍स जैसे, किसी सरोवर से झांकता है।

चहक रहे हैं चमन में पंछी, दरख्‍़त अंगड़ाई ले रहे हैं,
बदल रहा है दुखों का मौसम, बसंत पतझर से झांकता है।
आलोक श्रीवास्तव

Saturday, May 4, 2013

सरबजीत को समर्पित

॥ एक परिंदा ॥

सरहद के उस पार उड़ा था
एक परिंदा
भूल गया था !

भूल गया था !
जितने हैं सय्याद वहां पर
उतने तो दुनिया में नहीं हैं !
जाल बिछाए
घात लगाए
बैठे हैं चालाक़ शिकारी
भूल गया था !

क़ैद किया सय्याद ने उसको
जिस्म खरौंचा
पर क़तरे
और
ख़ून बहाया

बरसों-बरस रहा पिंजरे में
बेचारा मासूम परिंदा !

आज हुआ आज़ाद क़ैद से !
लेकिन ये क्या ?
फिर से पीठ हुई है ज़ख़्मी
फिर से एक छुरा निकला है ?
आलोक श्रीवास्तव

Saturday, March 9, 2013

अब किसी और का पुजारी है,
जिसने माना था देवता मुझको।
-आलोक श्रीवास्तव
हरेक लम्हा उजालों के दिल में गड़ता हुआ,
मैं इक चराग़ हूँ सूरज की ओर बढ़ता हुआ।

मेरी जड़ों में मठा डालने की भूल न कर,
कि सख़्त और भी होता है पेड़ झड़ता हुआ।

है सोच-सोच का अंतर कि फिर झुका हूँ मैं,
वो मेरे सामने आया है फिर अकड़ता हुआ।

मुझे ये डर है, रसातल न उसको ले जाए,
दिमाग उसका अहं के गगन पे चढ़ता हुआ।

हमारे सामने रिश्तों के ख़्वाब बिखरे हैं,
बहुत करीब से देखा है घर उजड़ता हुआ।
-आलोक श्रीवास्तव

Thursday, March 7, 2013

अगर सफ़र में मेरे साथ मेरा यार चले,
तवाफ़ करता हुआ मौसमे-बहार चले।

(तवाफ़=परिक्रमा)

लगा के वक़्त को ठोकर जो ख़ाकसार चले,
यक़ीं के क़ाफ़िले हमराह बेशुमार चले।

नवाज़ना है तो फिर इस तरह नवाज़ मुझे,
कि मेरे बाद मेरा ज़िक्र बार-बार चले।

ये जिस्म क्या है, कोई पैरहन उधार का है,
यहीं संभाल के पहना, यहीं उतार चले।

(पैरहन = लिबास)

ये जुगनुओं से भरा आस्माँ जहाँ तक है,
वहाँ तलक तेरी नज़रों का इक़्तिदार चले।

(इक़्तिदार= प्रभुत्व)

यही तो इक तमन्ना है इस मुसाफ़िर की,
जो तुम नहीं तो सफ़र में तुम्हारा प्यार चले।
-आलोक श्रीवास्तव

Sunday, March 3, 2013

हाँ ये सच है, गुज़रे दिन की बातें अक्सर करता है,
लेकिन माज़ी की गलियों में दिल जाने से डरता है ।

(माज़ी = भूतकाल, बीता हुआ समय, गुज़रा हुआ ज़माना)

रफ़्ता-रफ़्ता मेरी जानिब मंज़िल बढ़ती आती है,
चुपके-चुपके मेरे हक़ में कौन दुआएँ करता है ।
-आलोक श्रीवास्तव

Friday, March 1, 2013

हमेशा ये भी होता है, हमेशा यूँ भी होता है ....

हमेशा ख़्वाब पूरा हो, कभी ऐसा नहीं होता
हमेशा सब अधूरा हो, कभी ऐसा नहीं होता

हमेशा हम सही ठहरें, अना ऐसी ग़लत होगी
हमेशा हम ग़लत ठहरें, सज़ा ऐसी ग़लत होगी

हमेशा सब ये कहते हैं नहीं मिलती हमें मंजिल
हमेशा ही नहीं आती हैं लेकिन, राह में मुश्किल

हमेशा ग़मज़दा रहता नहीं है, कोई भी इंसां
हमेशा को नहीं करती हैं लेकिन, घर में घर-खुशियाँ

हमेशा एक-सा रहता नहीं है, ये ज़माना भी
हमेशा, जो  नया होगा, वो कल होगा पुराना भी

हमेशा ये भी होता है, हमेशा यूँ भी होता है ....

-आलोक श्रीवास्तव
साथ गुज़रे जो तेरे वही शाम है,
ज़िन्दगी चंद लम्हात का नाम है ।

सोच भी दफ़्न की होंठ भी सी लिए,
जब से ख़ामोश हूँ दिल को आराम है ।
-आलोक श्रीवास्तव

Wednesday, February 27, 2013

दोहे

भौचक्की है आत्मा, साँसे भी हैरान
हुक्म दिया है जिस्म ने, खाली करो मकान

आँखों में लग जाये तो, नाहक निकले खून
बेहतर है छोटा रखें, रिश्तों के नाखून

व्याकुल है परमात्मा, बेकल है अल्लाह
किसके बंदे नेक हैं, कौन हुआ गुमराह
-आलोक श्रीवास्तव



Sunday, February 24, 2013

मंज़िल पे ध्यान हमने ज़रा भी अगर दिया,
आकाश ने डगर को उजालों से भर दिया।

रुकने की भूल हार का कारण न बन सकी,
चलने की धुन ने राह को आसान कर दिया।

पीपल की छाँव बुझ गई, तालाब सड़ गए,
किसने ये मेरे गाँव पे एहसान कर दिया।

घर, खेत, गाय, बैल, रक़म अब कहाँ रहे,
जो कुछ था सब निकाल के फसलों में भर दिया।

मंडी ने लूट लीं जवाँ फसलें किसान की,
क़र्ज़े ने ख़ुदकुशी की तरफ़ ध्यान कर दिया।

-आलोक श्रीवास्तव
जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत ....

वो देखो कैसा हुआ उजाला
वो ख़ुशबुओं ने चमन सँभाला
वो मस्जिदों में खिला तबस्सुम
वो मुस्कुराया है फिर शिवाला

जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत ....

तो जन्नतों से सलाम आये
पयम्बरों के पयाम आये                              (पयम्बर = संदेशवाहक), (पयाम = संदेश)
फ़रिश्ते कौसर के जाम लाये                        (कौसर = जन्नत की एक नहर का नाम)
हवा में दीपक से झिलमिलाये

जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत ....

तो लब गुलाबों के फिर से महके
नगर शबाबों के फिर से महके
किसी ने रक्खा है फूल फिर से
वरक़ किताबों के फिर से महके

जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत ....

मुहब्बतों की दुकाँ नहीं है
वतन नहीं है मकाँ नहीं है
क़दम का मीलों निशाँ नहीं है
मगर बता ये कहाँ नहीं है

यही है फूलों की मुस्कुराहट
यही है रिश्तों की जगमगाहट
यही है लोरी की गुनगुनाहट
यही है पायल की नर्म आहट

कहीं पे गीता, कुरान है ये
कहीं पे पूजा, अज़ान है ये
सदाक़तों की ज़ुबान है ये                                 (सदाक़तों = सच्चाइयों)
खुला-खुला आसमान है ये

तरक्कियों का समाज जागा
कि बालियों में अनाज जागा
क़ुबूल होने लगी है मन्नत
धरा को तकने लगी है जन्नत

....जो हममें-तुममें हुई मुहब्बत

-आलोक श्रीवास्तव