Showing posts with label महफ़िल. Show all posts
Showing posts with label महफ़िल. Show all posts

Wednesday, April 1, 2020

क़रार दिल को सदा जिस के नाम से आया
वो आया भी तो किसी और काम से आया

मैं ख़ाली हाथ ही जा पहुँचा उस की महफ़िल में
मिरा रक़ीब बड़े इंतिज़ाम से आया

-जमाल एहसानी

Sunday, August 25, 2019

तुम ग़ैरों से हँस हँस के, मुलाक़ात करो हो

तुम ग़ैरों से हँस हँस के, मुलाक़ात करो हो
और हम से वही ज़हर-भरी, बात करो हो

बच बच के गुज़र जाओ हो, तुम पास से मेरे
तुम तो ब-ख़ुदा ग़ैरों को भी, मात करो हो

नश्तर सा उतर जावे है, सीने में हमारे
जब माथे पे बल डाल के, तुम बात करो हो

तक़वे भी बहक जावें हैं, महफ़िल में तुम्हारी
तुम अपनी इन आँखों से, करामात करो हो

(तक़वे=पवित्र, पाक)

फूलों की महक आवे है, साँसों में तुम्हारी
मोती से बिखर जावें हैं, जब बात करो हो

हम ग़ैरों के आगे तुम्हें, क्या हाल बताएँ
पास आ के सुनो, दूर से क्या बात करो हो

क्या कह के पुकारेंगे, तुम्हें लोग ये सोचो
"इक़बाल" पे तुम ज़ुल्म तो, दिन रात करो हो

-इक़बाल अज़ीम

Saturday, August 24, 2019

इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
दो रोज़ की महफ़िल है इक उम्र की तन्हाई
-सूफ़ी तबस्सुम

(आलम-ए-वीराँ = सुनसान/ वीरान दुनिया, सूनेपन की अवस्था/ दशा/ हालत), (अंजुमन आराई  = महफ़िल सजाना, सभा की शोभा बढ़ाना)

Sunday, August 18, 2019

सब कुछ खो कर मौज उड़ाना, इश्क़ में सीखा

सब कुछ खो कर मौज उड़ाना, इश्क़ में सीखा
हम ने क्या क्या तीर चलाना, इश्क़ में सीखा

रीत के आगे प्रीत निभाना, इश्क़ में सीखा
साधू बन कर मस्जिद जाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ से पहले तेज़ हवा का, ख़ौफ़ बहुत था
तेज़ हवा में हँसना गाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ किया तो ज़ुल्म हुआ, और ज़ुल्म हुआ जब
ज़ुल्म के आगे सर न झुकाना, इश्क़ में सीखा

अपने दुख में रोना-धोना, आप ही आया
ग़ैर के दुख में ख़ुद को दुखाना, इश्क़ में सीखा

इश्क़ का जादू क्या होता है, हम से पूछो
धूल में मिल कर फूल खिलाना, इश्क़ में सीखा

कुछ भी 'हिलाल' अब डींगें मारो, लेकिन तुम ने
महफ़िल महफ़िल धूम मचाना, इश्क़ में सीखा

-हिलाल फ़रीद

Sunday, June 23, 2019

हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था

हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था
कि मेरे लब पे वही था जो मेरे मन में था

 (अंजुमन = सभा, महफ़िल)

कसक उठी थी कुछ ऐसी कि चीख़ चीख़ पड़ूँ
रहा मैं चुप ही कि बहरों की अंजुमन में था

उलझ के रह गई जामे की दिलकशी में नज़र
उसे किसी ने न देखा जो पैरहन में था

(जामे  = पोशाक), (पैरहन = लिबास, वस्त्र)

कभी मैं दश्त में आवारा इक बगूला सा
कभी मैं निकहत-ए-गुल की तरह चमन में था

(दश्त = जंगल), (बगूला = बवंडर, चक्रवात), (निकहत-ए-गुल = गुलाब की खुशबू)

मैं उस को क़त्ल न करता तो ख़ुद-कुशी करता
वो इक हरीफ़ की सूरत मिरे बदन में था

(हरीफ़ = प्रतिद्वंदी, विरोधी)

उसी को मेरे शब-ओ-रोज़ पर मुहीत न कर
वो एक लम्हा-ए-कमज़ोर जो गहन में था

(शब-ओ-रोज़ = रात और दिन), (मुहीत = आच्छादित, छाया हुआ, व्यापक, फैला हुआ), (गहन = ग्रहण)

मिरी सदा भी न मुझ को सुनाई दी 'साबिर'
कुछ ऐसा शोर बपा सहन-ए-अंजुमन में था

(सदा = आवाज़), ( सहन-ए-अंजुमन = महफ़िल का आँगन)

-नो-बहार सिंह "साबिर"



Monday, June 17, 2019

बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला

बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला
नया सफ़र भी बहुत ही गुरेज़-पा निकला

(गुरेज़-पा = छलने वाला, कपटपूर्ण, गोलमाल)

न जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही
जिसे क़रीब से देखा वो दूसरा निकला

हमें तो रास न आई किसी की महफ़िल भी
कोई ख़ुदा कोई हम-साया-ए-ख़ुदा निकला

हज़ार तरह की मय पी हज़ार तरह के ज़हर
न प्यास ही बुझी अपनी न हौसला निकला

हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं
पुकारा हम ने तो सदियों का फ़ासला निकला

अब अपने-आप को ढूँडें कहाँ कहाँ जा कर
अदम से ता-ब-अदम अपना नक़्श-ए-पा निकला

(अदम = परलोक, शून्य, अस्तित्व हीनता),  (ता-ब-अदम = अनंत काल), (नक़्श-ए-पा = पैरों के निशान, पदचिन्ह)

-ख़लील-उर-रहमान आज़मी

Tuesday, April 9, 2019

तू समझता है कि रिश्तों की दुहाई देंगे

तू समझता है कि रिश्तों की दुहाई देंगे
हम तो वो हैं तिरे चेहरे से दिखाई देंगे

हम को महसूस किया जाए है ख़ुश्बू की तरह
हम कोई शोर नहीं हैं जो सुनाई देंगे

फ़ैसला लिक्खा हुआ रक्खा है पहले से ख़िलाफ़
आप क्या साहब अदालत में सफ़ाई देंगे

पिछली सफ़ में ही सही, हैं तो इसी महफ़िल में
आप देखेंगे तो हम क्यूँ न दिखाई देंगे

(सफ़ = पंक्ति)

-वसीम बरेलवी

Wednesday, February 13, 2019

उस ज़ुल्म पे क़ुर्बां लाख करम, उस लुत्फ़ पे सदक़े लाख सितम
उस दर्द के क़ाबिल हम ठहरे, जिस दर्द के क़ाबिल कोई नहीं

क़िस्मत की शिकायत किससे करें, वो बज़्म मिली है हमको जहाँ
राहत के हज़ारों साथी हैं, दुःख-दर्द में शामिल कोई नहीं

-बासित भोपाली

Tuesday, January 1, 2019

आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में

आएगा कोई चल के ख़िज़ाँ से बहार में
सदियाँ गुज़र गई हैं इसी इंतिज़ार में

(ख़िज़ाँ = पतझड़)

छिड़ते ही साज़-ए-बज़्म में कोई न था कहीं
वो कौन था जो बोल रहा था सितार में

ये और बात है कोई महके कोई चुभे
गुलशन तो जितना गुल में है उतना है ख़ार में

अपनी तरह से दुनिया बदलने के वास्ते
मेरा ही एक घर है मिरे इख़्तियार में

(इख़्तियार = अधिकार, प्रभुत्व)

तिश्ना-लबी ने रेत को दरिया बना दिया
पानी कहाँ था वर्ना किसी रेग-ज़ार में

(तिश्ना-लबी =प्यास), (रेग-ज़ार = रेगिस्तान)

मसरूफ़ गोरकन को भी शायद पता नहीं
वो ख़ुद खड़ा हुआ है क़ज़ा की क़तार में

(मसरूफ़ = काम में लगा हुआ, संलग्न, Busy), (गोरकन = कब्र खोदनेवाला), (क़ज़ा = मौत)

-निदा फ़ाज़ली

Sunday, December 23, 2018

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा

इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे
रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा

(तबस्सुम = मुस्कुराहट)

प्यास जिस नहर से टकराई वो बंजर निकली
जिस को पीछे कहीं छोड़ आए वो दरिया होगा

मिरे बारे में कोई राय तो होगी उस की
उस ने मुझ को भी कभी तोड़ के देखा होगा

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा

-निदा फ़ाज़ली

Monday, June 11, 2018

क्या इक दरिया अपना पानी चुन सकता है

क्या इक दरिया अपना पानी चुन सकता है
पानी भी क्या अपनी रवानी चुन सकता है

जीना है दुनिया में दुनिया की शर्तों पर
कौन क़फ़स में दाना-पानी चुन सकता है

(क़फ़स = पिंजरा)

दिल तो वो दीवाना है जो मह़फ़िल में भी
अपनी मर्ज़ी की वीरानी चुन सकता है

छोड़ दिया है मैंने दर-दर सजदा करना
तू कोई दीगर पेशानी चुन सकता है

मैंने तो ख़त में लिक्खे हैं अपने मआ’नी
वो इस ख़त में अपने मआ’नी चुन सकता है

जीना ही जब इतना मुश्किल है तो कोई
कैसे मरने की आसानी चुन सकता है

हर किरदार को चुन लेती है उसकी कहानी
क्या कोई किरदार कहानी चुन सकता है

- राजेश रेड्डी

Thursday, June 7, 2018

फिर न मन में कभी मलाल आया

फिर न मन में कभी मलाल आया
नेकियाँ जब कुएँ में डाल आया।

होड़ सी लग रही थी जाने क्यूँ
मैं तो सिक्का वहाँ उछाल आया।

आज हम भी जवाब दे बैठे
बज़्म में फिर बड़ा उबाल आया।

फ़न की बारीकियाँ समझने का
उम्र के बाद ये कमाल आया।

फेर लीं आपने निगाहें जब
आज दिल में बड़ा मलाल आया।

इक ज़माने से ख़ुद परेशाँ थे
आज तबियत में कुछ उछाल आया।

'आरसी' झूठ जब नहीं बोला
आइने में कहाँ से बाल आया।

-आर. सी. शर्मा “आरसी”

Monday, December 11, 2017

एक आँसू ने डुबोया मुझ को उन की बज़्म में
बूँद भर पानी से सारी आबरू पानी हुई
-शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

(बज़्म = महफ़िल)

Wednesday, January 25, 2017

दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई

दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई
जो दिल पे असर करती ऐसी हो फुग़ाँ कोई

(फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, रौशन), (सोज़-ए-निहाँ = अंदर की आग)

इक रोज़ मुक़र्रर है जाने के लिए सबका
सुनते हैं सितारों से आगे है जहाँ कोई

क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा पे टालो हो मुलाक़ातें
ले जाये क़ज़ा किस दिन जाने है कहाँ कोई

(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा), (क़ज़ा = मौत)

ढूंढें भी कहाँ तुम को, किस ठौर ठिकाना है
छोड़े हैं कहाँ तुमने क़दमों के निशाँ कोई

करते हो यक़ीं इतना हर बात पे क्यूँ सबकी
मुकरे न कहे से जो ऐसी है ज़ुबां कोई

उस बज़्म-ए-सुख़न में क्यूँ कहते हो ग़ज़ल अय दिल
है दाद नहीं मिलती अपनों से जहाँ कोई

मत पूछ मेरा मज़हब सज्दे में ही रहता हूँ
नाक़ूस बजे चाहे होती हो अज़ाँ कोई

(नाक़ूस = शंख जो फूंक कर बजाया जाता है)

-स्मृति रॉय

Friday, November 11, 2016

हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब

हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब
रस्ता अगर हो याद तो घर जाइए जनाब

(गाम = कदम, पग)

ज़िंदा हक़ीक़तों के तलातुम हैं सामने
ख़्वाबों की कश्तियों से उतर जाइए जनाब

(तलातुम = तूफ़ान, बाढ़, पानी का लहराना)

इंकार की सलीब हूँ सच्चाइयों का ज़हर
मुझ से मिले बग़ैर गुज़र जाइए जनाब

(सलीब = सूली)

दिन का सफ़र तो कट गया सूरज के साथ साथ
अब शब की अंजुमन में बिखर जाइए जनाब

(शब = रात),  (अंजुमन = सभा, महफ़िल)

कोई चुरा के ले गया सदियों का ए'तिक़ाद
मिम्बर की सीढ़ियों से उतर जाइए जनाब

(ए'तिक़ाद = श्रद्धा, आस्था, विश्वास, यकीन, भरोसा), (मिम्बर = उपदेश-मंच, भाषण-मंच)

-अमीर क़ज़लबाश


Friday, November 4, 2016

ये मुमकिन है कि मिल जाएँ तेरी खोयी हुई चीज़ें

ये मुमकिन है कि मिल जाएँ तेरी खोयी हुई चीज़ें
क़रीने से सजा कर रख ज़रा बिखरी हुई चीज़ें

कभी यूँ भी हुआ है हंसते-हंसते तोड़ दी हमने
हमें मालूम नहीं था जुड़ती नहीं टूटी हुई चीज़ें

ज़माने के लिए जो हैं बड़ी नायाब और महंगी
हमारे दिल से सब की सब हैं वो उतरी हुई चीज़ें

दिखाती हैं हमें मजबूरियाँ ऐसे भी दिन अक़्सर
उठानी पड़ती हैं फिर से हमें फेंकी हुई चीज़ें

किसी महफ़िल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद आ गई बाज़ार में बिकती हुई चीज़ें

-हस्तीमल ‘हस्ती’

Saturday, June 18, 2016

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात बताते भी नहीं

 (उज़्र = आपत्ति, विरोध, क्षमा-याचना, बहाना), (बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात = मिलना छोड़ देने का कारण)

मुंतज़िर हैं दम-ए-रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (दम-ए-रुख़सत = विदा के समय)

सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही
नश्शा-ए-मय भी नहीं, नींद के माते भी नहीं

(नश्शा-ए-मय = शराब का नशा), (माते = आदतें)

क्या कहा फिर तो कहो, हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं

ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

(चिलमन = बांस की फट्टियों का पर्दा, चिक)

मुझ से लाग़र तेरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझसे नाज़ुक मेरी नज़रों में समाते भी नहीं

(लाग़र = दुबला-पतला)

देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं

(इरशाद = आदेश, हुक्म)

हो चुका क़त्अ तअल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं

(क़त्अ तअल्लुक़ = संबंध-विच्छेद), (जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार)

ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं

(ज़ीस्त = जीवन, ज़िंदगी)

-दाग़ देहलवी


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन 







Begum Akhtar/ बेगम अख़्तर 



Farida Khanum/ फ़रीदा ख़ानुम



Runa Laila/ रूना लैला


Monday, May 2, 2016

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
के तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी

(माइल = आकर्षित, आसक्त)

अक्स-ए-रुख़सार ने किस के है तुझे चमकाया
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी

(ताब = सहनशक्ति, आभा, बल), (मह-ए-कामिल = चौदहवीं का चाँद)

अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़
सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी

पा-ए-कूबाँ कोई ज़िंदाँ में नया है मजनूँ
आती आवाज़-ए-सलासिल कभी ऐसी तो न थी

(पा-ए-कूबाँ = ), (ज़िंदाँ = कारागृह, जेल), (आवाज़-ए-सलासिल = ज़ंजीरों की आवाज़)

निगह-ए-यार को अब क्यूँ है तग़ाफ़ुल ऐ दिल
वो तेरे हाल से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो न थी

(तग़ाफ़ुल = बेरुख़ी, उपेक्षा), (ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर)

चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी

(चश्म-ए-क़ातिल = क़ातिल की आँख, यहाँ तात्पर्य प्रेमिका की आँखों से है)

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी

(सबब = कारण), (ख़ू = स्वाभाव, प्रकृति, आदत), (हूर-ए-शमाइल = परियों जैसी आदतें)

-बहादुर शाह ज़फ़र


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन (Live)

https://youtu.be/Cms-ektlKyc


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन (Film)

https://youtu.be/igAPIzQbidk


Jagjit Singh/ जगजीत सिंह

https://youtu.be/jr81ch6aYgk



Runa Laila/ रूना लैला

https://youtu.be/d77gMYKLJ8s



Sunday, May 1, 2016

मोहब्बत करने वाले कम न होंगे

मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे

मैं अक्सर सोचता हूँ फूल कब तक
शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम न होंगे

(शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम = सुबह की ओस के साथ रोने में शामिल)

ज़रा देर-आश्ना चश्म-ए-करम है
सितम ही इश्क़ में पैहम न होंगे

(देर-आश्ना = देरी से मित्रता), (चश्म-ए-करम = आँखों की कृपा), (पैहम = लगातार)

दिलों की उलझने बढ़ती रहेंगी
अगर कुछ मशवरे बाहम न होंगे

(बाहम = परस्पर, साथ में)

ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे

कहूँ बेदर्द क्यूँ अहल-ए-जहाँ को
वो मेरे हाल से महरम न होंगे

(अहल-ए-जहाँ = दुनिया वाले), (महरम = अंतरंग मित्र)

हमारे दिल में सैल-ए-गिर्या होगा
अगर बा-दीद-ए-पुरनम न होंगे

(सैल-ए-गिर्या = आँसुओं की बाढ़), (बा-दीद-ए-पुरनम = नाम आँखों से)

अगर तू इत्तेफ़ाक़न मिल भी जाए
तेरी फ़ुर्कत के सदमें कम न होंगे

(फ़ुर्कत = जुदाई)

'हफ़िज़' उनसे मैं जितना बदगुमां हूँ
वो मुझसे इस क़दर बरहम न होंगे

(बदगुमां = संदेहशील, शक्की, असंतुष्ट), (बरहम = नाराज़)

-हफ़ीज़ होशियारपुरी


Mehdi Hassan/ मेहदी हसन




Mehdi Hassan/ मेहदी हसन (Live)



Farida Khanum/ फ़रीदा ख़ानुम


Talat Aziz/ तलत अज़ीज़



Iqbal Bano/ इक़बाल बानो

Wednesday, April 20, 2016

चाँद में ढलने सितारों में निकलने के लिए

चाँद में ढलने सितारों में निकलने के लिए
मैं तो सूरज हूँ बुझूंगा भी तो जलने के लिए

मंज़िलों ! तुम ही कुछ आगे की तरफ बढ़ जाओ
रास्ता कम है मेरे पाँवों को चलने के लिए

ज़िंदगी अपने सवारों को गिराती जब है
एक मौका भी नहीं देती संभलने के लिए

मैं वो मौसम जो अभी ठीक से छाया भी नहीं
साज़िशें होने लगी मुझको बदलने के लिए

महफ़िल-ए-इश्क़ में शामों की ज़रूरत क्या है
दिल को ही मोम बनाते हैं पिघलने के लिए

ये बहाना तेरे दीदार की चाहत का है
हम जो आते हैं इधर रोज़ टहलने के लिए

-शकील आज़मी