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Sunday, December 20, 2015

चिराग़-ए-दिल बुझाना चाहता था

चिराग़-ए-दिल बुझाना चाहता था
वो मुझको भूल जाना चाहता था

मुझे वो छोड़ जाना चाहता था
मगर कोई बहाना चाहता था

सफ़ेदी आ गई बालों पे उसके
वो बाइज़्ज़त घराना चाहता था

उसे नफ़रत थी अपने आपसे भी
मगर उसको ज़माना चाहता था

तमन्ना दिल की जानिब बढ़ रही थी
परिन्दा आशियाना चाहता था

बहुत ज़ख्मी थे उसके होंठ लेकिन
वो बच्चा मुस्कुराना चाहता था

ज़बाँ ख़ामोश थी उसकी मगर वो
मुझे वापस बुलाना चाहता था

जहाँ पर कारख़ाने लग गए हैं
मैं एक बस्ती बसाना चाहता था

उधर क़िस्मत में वीरानी लिखी थी
इधर मैं घर बसाना चाहता था

वो सब कुछ याद रखना चाहता था
मैं सब कुछ भूल जाना चाहता था
-मुनव्वर राना

Sunday, July 13, 2014

मौक़ा जिसे भी मिलता है पीता ज़रूर है,
शायद बहुत मिठास हमारे लहू में है
-मुनव्वर राना

Friday, June 6, 2014

हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है
हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है

किसी का पूछना कब तक हमारी राह देखोगे
हमारा फ़ैसला जब तक भी ये बीनाई रहती है

(बीनाई = आँखों की रौशनी, दृष्टि)

मेरी सोहबत में भेजो ताकि इसका डर निकल जाए
बहुत सहमी हुए दरबार में सच्चाई रहती है

(सोहबत = संगति)

बस इक दिन फूट कर रोया था मैं तेरी मुहब्बत में
मगर आवाज़ मेरी आज तक भर्राई रहती है

बचो उस शोख़ की आँखों से वरना डूब जाओगे
समन्दर के किनारे भी बहुत गहराई रहती है

गिले-शिकवे ज़रूरी हैं अगर सच्ची मुहब्बत है
जहाँ पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे मुल्क को गन्दी सियासत से
शराबी देवरों के बीच में भौजाई रहती है

(महफ़ूज़ = सुरक्षित)

-मुनव्वर राना

Friday, June 14, 2013

बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है

यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है

चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है
मगर वो शख्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है

बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?
कुएं में छुप के क्यों आखिर ये नेकी बैठ जाती है ?

नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है

सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है

वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है
- मुनव्वर राना 

Wednesday, June 12, 2013

नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

मुलाक़ातों पे हँसते बोलते हैं मुस्कराते हैं
तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात दिन दोनों
मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल ने
वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

(मसायल=समस्याओं)

मेरा दुश्मन मुझे तकता है मैं दुश्मन को तकता हूँ
कि हायल राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

(हायल=बाधक, कठिन)

मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है
मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

-मुनव्वर राना

Tuesday, June 11, 2013

अभी तक दिल में रौशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू,
अभी इस राख में चिन्गारियां आराम करती हैं।
-मुनव्वर राना

Sunday, June 9, 2013

कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है

नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है

ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें हैं
क़लन्दरी यहाँ पलने के बाद आती है

[(ख़ानक़ाहें- आश्रम, मठ),  (क़लन्दरी- फक्कड़पन)]

गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है

-मुनव्वर राना 

Wednesday, June 5, 2013

इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिये
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिये

आप दरिया हैं तो फिर इस वक़्त हम ख़तरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिये

ऐरे गैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आपको औरत नहीं अखबार होना चाहिये

ज़िन्दगी कब तलक दर दर फिरायेगी हमें
टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिये

अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क़ के हिस्से में भी इतवार होना चाहिये
-मुनव्वर राना

Friday, May 31, 2013

किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ा-दारी नहीं होगी
हमें मालूम है तुमको यह बीमारी नहीं होगी
-मुनव्वर राना

Thursday, May 30, 2013

गले मिलने को आपस में दुआएं रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे माएं रोज़ आती हैं

अभी रोशन हैं चाहत के दिये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवाएं रोज़ आती हैं

कोई मरता नहीं है हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबाएं रोज़ आती हैं

(वबाएं = महामारी, बीमारियाँ)

अभी दुनिया की चाहत ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा
अभी मुझको बुलाने दाश्ताएं रोज़ आती हैं

(दाश्ताएं = रखैलें)

ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डला
मगर उम्मीद की ठंडी हवाएं रोज़ आती हैं

-मुनव्वर राना

हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं
-मुनव्वर राना
जब कभी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है

रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूं
रोज़ उंगली मिरी तेज़ाब में आ जाती है

दिल की गलियों से तिरी याद निकलती ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है

रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है

(महताब = चाँद)

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है

ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए
कूचा - ए - रेशमो - किमख़्वाब में आ जाती है

(रिदा = चादर)

दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है

-मुनव्वर राना
सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं

(लुक़्म-ए-तर =बढ़िया खाना, अच्छी प्राप्ति, काफी लाभ)

-मुनव्वर राना

Wednesday, May 29, 2013

दुश्वार काम था तेरे ग़म को समेटना
मैं ख़ुद को बाँधने में कई बार खुल गया

मिट्टी में क्यों मिलाते हो मेहनत रफ़ूगरों
अब तो लिबासे जिस्म का हर तार खुल गया
-मुनव्वर राना

Tuesday, May 28, 2013

बैठे-बिठाए हाल-ए-दिल-ए-ज़ार खुल गया
मैं आज उसके सामने बेकार खुल गया

दुश्वार काम था तेरे ग़म को समेटना
मैं ख़ुद को बांधने में कई बार खुल गया
-मुन्नवर राना 

Tuesday, May 14, 2013

जो दरो-बाम की ज़ीनत है उन्हीं से मिलिये,
मैं तो बुनियाद का पत्थर हूँ नज़र क्या आऊँ।
-मुनव्वर राना

Monday, November 12, 2012

ख़फ़ा होना ज़रा सी बात पर तलवार हो जाना,
मगर फिर ख़ुद-ब-ख़ुद वो आपका गुलनार हो जाना

किसी दिन ये मेरी रुसवाई का कारण ना बन जाए
तुम्हारा शहर से जाना मेरा बीमार हो जाना
-मुनव्वर राना

Saturday, November 10, 2012

अजब दुनिया है तितली के परों को नोच लेती है
अजब तितली है पर नुचने पे भी रोया नहीं करती
-मुनव्वर राना

Wednesday, October 24, 2012

नुमाइश पर बदन की यूँ कोई तैयार क्यों होता
अगर सब घर के हो जाते तो ये बाज़ार क्यों होता
-मुनव्वर राना

Saturday, October 13, 2012

इक ज़ख्मी परिंदे कि तरह जाल में हम हैं
ए इश्क अभी तक तेरे जंजाल में हम है
हंसते हुए होठों ने भरम रखा  हमारा ,
वो देखने आया था किस हाल में हम है
-मुनव्वर राना