Sunday, June 9, 2013

कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है

नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है

ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें हैं
क़लन्दरी यहाँ पलने के बाद आती है

[(ख़ानक़ाहें- आश्रम, मठ),  (क़लन्दरी- फक्कड़पन)]

गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है

-मुनव्वर राना 

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