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Sunday, August 21, 2016

अपना चेहरा ही अपना लूँ

अपना चेहरा ही अपना लूँ
ये ख़तरा मैं और उठा लूँ

मैं अब अपने साथ निभा लूँ
यानी ख़ुद से आँख चुरा लूँ

जितना समझा उतना उलझा
कैसे अपना अर्थ निकालूँ

बाहर निकालूँ तो चेहरे पर
एक तबस्सुम भी चिपका लूँ

पास नहीं है पत्थर तो क्या
ख़ुद पर कोई प्रश्न उछालूँ

~विज्ञान व्रत

Tuesday, May 31, 2016

बरसों ख़ुद से रोज़ ठनी

बरसों ख़ुद से रोज़ ठनी
तब जाकर कुछ बात बनी

वो दोनों हमराह न थे
पर दोनों में खूब छनी

घटना उसके साथ घटे
और लगे मुझको अपनी

इतने दिन बीमार रहा
ऊपर से तनख़ा कटनी

उसने ख़ुद को ख़र्च किया
और बताई आमदनी

- विज्ञान व्रत

यूँ चेहरा-दर-चेहरा भी वो

यूँ चेहरा-दर-चेहरा भी वो
लेकिन अपने जैसा भी वो

भीतर बेहद टूटन-बिखरन
बाहर एक करीना भी वो

ख़ुद से एक मुसलसल अनबन
ख़ुद से एक समझौता भी वो

उगते सूरज की गरमाहट
दोपहरी में साया भी वो

ख़ुद में एक फ़कीर मुकम्मल
पुश्तैनी सरमाया भी वो

-विज्ञान व्रत

Wednesday, May 21, 2014

मैं था तन्हा एक तरफ़
और ज़माना एक तरफ़

तू जो मेरा हो जाता
मैं हो जाता एक तरफ़

अब तू मेरा हिस्सा बन
मिलना-जुलना एक तरफ़

यूँ मैं एक हक़ीकत हूँ
मेरा सपना एक तरफ़

फिर उससे सौ बार मिला
पहला लम्हा एक तरफ़ !
-विज्ञान व्रत
खुद से आँख मिलाता है
फिर बेहद शरमाता है

कितना कुछ उलझाता है
जब खुद को सुलझाता है

खुद को लिखते लिखते वो
कितनी बार मिटाता है

वो अपनी मुस्कानों में
कोई दर्द छुपाता है
-विज्ञान व्रत
जुगनू ही दीवाने निकले
अँधियारा झुठलाने निकले

ऊँचे लोग सयाने निकले
महलों में तहख़ाने निकले

वो तो सबकी ही ज़द में था
किसके ठीक निशाने निकले

आहों का अंदाज नया था
लेकिन ज़ख़्म पुराने निकले

जिनको पकड़ा हाथ समझकर
वो केवल दस्ताने निकले
-विज्ञान व्रत
दिल भी वो है, धड़कन भी वो
चेहरा भी वो, दरपन भी वो

जीवन तो पहले भी था
अब जीवन का दर्शन भी वो

आज़ादी की परिभाषा भी
जनम-जनम का बंधन भी वो

बिंदी की ख़ामोशी भी है
खन-खन करता कंगन भी वो

प्रश्नों का हल भी लगता है
और जटिल-सी उलझन भी वो
-विज्ञान व्रत

Sunday, March 30, 2014

तेरा ही तो हिस्सा हूँ
ये तू जाने कितना हूँ

अपने हाथों हारा हूँ
वरना किसके बस का हूँ

ख़ुद को ही खो बैठा हूँ
मैं अब क्या खो सकता हूँ

जब से अपने जैसा हूँ
सब कहते हैं, धोखा हूँ

आमादा हूँ जीने पर
और अभी तक ज़िंदा हूँ!
-विज्ञान व्रत

Saturday, March 1, 2014

या तो हमसे यारी रख
या फिर दुनियादारी रख

ख़ुद पर पहरेदारी रख
अपनी दावेदारी रख

जीने की तैयारी रख
मौत से लड़ना जारी रख

लहजे में गुलबारी रख
लफ़्ज़ो में चिंगारी रख

(गुलबारी = फूलों की वर्षा करना)

जिससे तू लाचार न हो
इक ऎसी लाचारी रख
-विज्ञान व्रत

Thursday, January 30, 2014

मुझको जब ऊँचाई दे
मुझको ज़मीं दिखाई दे

एक सदा ऐसी भी हो
मुझको साफ़ सुनाई दे

दूर रहूँ मैं खुद से भी
मुझको वो तनहाई दे

एक ख़ुदी भी मुझमें हो
मुझको अगर ख़ुदाई दे

-विज्ञान व्रत

Wednesday, January 15, 2014

जैसे बाज़ परिन्दों में
मेरा क़ातिल अपनों में

अब इंसानी रिश्ते हैं
सिर्फ़ कहानी-किस्सों में

पढ़ना-लिखना सीखा तो
अब हूँ बंद क़िताबों में

मौसम को महसूस करूँ
ख़बरों से अख़बारों में

मेरे पैर ज़मीं पर हैं
ख़ुद हूँ चांद-सितारों में!

-विज्ञान व्रत

Sunday, January 12, 2014

जब तक एक विवाद रहा मैं
तब तक ही आबाद रहा मैं

महलों के लफ़्फ़ाज कंगूरे
गूँगी सी बुनियाद रहा मैं

काल पात्र में जिक्र नहीं था
लेकिन सबको याद रहा मैं

उनकी सब परिभाषाओं में
एक प्रखर अपवाद रहा मैं

शब्दों के उस कोलाहल में
अनबोला संवाद रहा मैं
-विज्ञान व्रत