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Saturday, September 26, 2020

कब किससे हम मिलें हैं दुनिया में इत्तिफ़ाक़न 
इन सोहबतों में कोई माज़ी का सिलसिला है
-स्मृति रॉय 

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)


Tuesday, April 28, 2020

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात

(दरख़्शाँ = चमकता हुआ, चमकीला), (हयात = जीवन)

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

(ग़म-ए-दहर =दुनिया के दुःख), (आलम = जगत, संसार, दुनिया, अवस्था, दशा, हालत), (सबात = स्थिरता, स्थायित्व, मज़बूती)

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

(निगूँ  = नीचे होना, झुकना), (वस्ल = मिलन)

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए

(तारीक = अंधकारमय), (बहीमाना = वहशियाना), (तिलिस्म = जादू, माया, इंद्रजाल), (अतलस = रेशमी वस्त्र),  (कमख़ाब = महँगा कपड़ा), (जा-ब-जा = जगह जगह), (कूचा-ओ-बाज़ार = गली और बाज़ार)

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे

(अमराज़ = बहुत से रोग), (तन्नूर = Oven), (नासूर = घाव)

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

https://www.youtube.com/watch?v=B6SSbjcGWOg


Friday, August 23, 2019

छोड़ा न मुझे दिल ने, मिरी जान कहीं का

छोड़ा न मुझे दिल ने, मिरी जान कहीं का
दिल है कि नहीं मानता, नादान कहीं का

जाएँ तो कहाँ जाएँ, इसी सोच में गुम हैं
ख़्वाहिश है कहीं की तो, है अरमान कहीं का

हम हिज्र के मारों को कहीं, चैन कहाँ है
मौसम नहीं जचता हमें, इक आन कहीं का

(हिज्र = जुदाई)

इस शोख़ी-ए-गुफ़्तार पर, आता है बहुत प्यार
जब प्यार से कहते हैं वो, शैतान कहीं का

(शोख़ी-ए-गुफ़्तार = सुख़द बातचीत)

ये वस्ल की रुत है कि, जुदाई का है मौसम
ये गुलशन-ए-दिल है कि, बयाबान कहीं का

कर दे न इसे ग़र्क़ कोई, नद्दी कहीं की
ख़ुद को जो समझ बैठा है, भगवान कहीं का

इक हर्फ़ भी तहरीफ़-ज़दा, हो तो दिखाए
ले आए उठा कर कोई, क़ुरआन कहीं का

(हर्फ़ = अक्षर), (तहरीफ़-ज़दा = बदला हुआ, तब्दील)

महबूब नगर हो कि, ग़ज़ल गाँव हो "राग़िब"
दस्तूर-ए-मोहब्बत नहीं, आसान कहीं का

-इफ़्तिख़ार राग़िब

Tuesday, August 13, 2019

ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम
रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है
-क़मर बदायुनी

Saturday, June 1, 2019

मत पूछो के कितने पहुँचे

मत पूछो के कितने पहुँचे
पहुँचे जैसे तैसे पहुँचे

उस से छुप कर मिलना था
मुखबिर मुझ से पहले पहुँचे

पहले बाद में जा पहुँचे थे
बाद में जाकर पहले पहुँचे

झूठ गवाही माँग रहा था
सबसे पहले सच्चे पहुँचे

रस्ते में क्या ज़ुल्म हुआ है
जो भी पहुँचे रोते पहुँचे

मेरे साथ तो बस इक दो थे
जाने बाकी कैसे पहुँचे

-ज़हरा शाह


مت پوچھو کہ کتنے پہنچے
پہنچے جیسے تیسے پہنچے

اس سے چھپ کر ملنا تھا پر
مخبر مجھ سے پہلے پہنچے

پہلے بعد میں جا پہنچے تھے
بعد میں جا کر پہلے پہنچے

جھوٹ گواہی مانگ رہا تھا
سب سے پہلے سچے پہنچے

رستے میں کیا ظلم ہوا ہے
جو بھی پہنچے روتے پہنچے

میرے ساتھ تو بس اک دو تھے
جانے باقی کیسے پہنچے

زہرا شاہ

Mat poocho ke kitne pohanche
Pohanche jaise tese pohanche

Us se chup kar milna tha
Mukhbar mujh se pehle pohanche

Pehle baad mein ja pohanche the
Baad mein ja kar pehle pohanche

Jhoot gawahi maang raha tha
Sab se pehle sache pohanche

Raste mein kya zulm hua hai
Jo bhi pohanche rote pohanche

Mere sath tou bss ik do the
Jaane baki kaise pohanche

-Zahra shah

Thursday, April 25, 2019

हज़ार रुख़ तिरे मिलने के हैं न मिलने में
किसे फ़िराक़ कहूँ और किसे विसाल कहूँ
-रविश सिद्दीक़ी

(फ़िराक़ - वियोग, विरह, जुदाई), (विसाल = मिलन)

Friday, April 19, 2019

आँखों में आँसुओं को उभरने नहीं दिया

आँखों में आँसुओं को उभरने नहीं दिया
मिट्टी में मोतियों को बिखरने नहीं दिया

जिस राह पर पड़े थे तिरे पाँव के निशाँ
इस राह से किसी को गुज़रने नहीं दिया

चाहा तो चाहतों की हदों से गुज़र गए
नश्शा मोहब्बतों का उतरने नहीं दिया

हर बार है नया तिरे मिलने का ज़ाइक़ा
ऐसा समर किसी भी शजर ने नहीं दिया

(समर = फल), (शजर = पेड़)

ये हिज्र है तो इस का फ़क़त वस्ल है इलाज
हम ने ये ज़ख़्म-ए-वक़्त को भरने नहीं दिया

(हिज्र = जुदाई), (वस्ल = मिलन)

इतने बड़े जहान में जाएगा तू कहाँ
इस इक ख़याल ने मुझे मरने नहीं दिया

साहिल दिखाई दे तो रहा था बहुत क़रीब
कश्ती को रास्ता ही भँवर ने नहीं दिया

(साहिल = किनारा), (कश्ती = नाव)

जितना सकूँ मिला है तिरे साथ राह में
इतना सुकून तो मुझे घर ने नहीं दिया

इस ने हँसी हँसी में मोहब्बत की बात की
मैं ने 'अदीम' उस को मुकरने नहीं दिया

-अदीम हाशमी

Wednesday, February 27, 2019

फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का
-अमीर मीनाई

(वादा-ए-वस्ल = मिलन का वादा)

Tuesday, February 26, 2019

मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो
-अमीर मीनाई

(शाम-ए-वस्ल = मिलन की शाम), (सहर  = सुबह, सवेरा)

Saturday, February 9, 2019

हिज्र को हौसला और वस्ल को फ़ुर्सत दरकार
इक मोहब्बत के लिए एक जवानी कम है
-अब्बास ताबिश

(हिज्र = जुदाई), (वस्ल = मिलन)

Saturday, November 12, 2016

बेक़रारी सी बेक़रारी है

बेक़रारी सी बेक़रारी है
वस्ल है और फ़िराक तारी है

जो गुज़ारी न जा सकी हमसे
हमने वो ज़िन्दगी गुज़ारी है

उस से कहियो के दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इन्तेज़ारी है

एक महक सम्त-ए-जाँ से आई थी
मैं ये समझा तेरी सवारी है

हादसों का हिसाब है अपना
वरना हर आन सबकी बारी है

बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मेरी नींद भी तुम्हारी है

निगेहबाँ क्या हुए के लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है

ख़ुश रहे तू के ज़िन्दगी अपनी
उम्र भर की उम्मीदवारी है

आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है

हिज्र हो या विसाल हो, कुछ हो
हम हैं और उसकी यादगारी है

-जॉन एलिया


Wednesday, February 24, 2016

क्या सेह्र तेरे आरिज़-ओ-लब के नहीं रहे

क्या सेह्र तेरे आरिज़-ओ-लब के नहीं रहे
अब रंग ही वो शेर-ओ-अदब के नहीं रहे

(सेह्र = जादू), (आरिज़-ओ-लब = गाल और होंट)

बाक़ी नहीं है हिज्र के नग़मों में वो कसक
वो ज़मज़मे भी वस्ल की शब के नहीं रहे

(हिज्र = जुदाई, वियोग), (ज़मज़मे = गीत), (वस्ल = मिलन), (शब = रात)

वहशत में कोई ख़ाक उड़ाये भी क्यूँ भला
जब मसअले ही तर्क-ओ-तलब के नहीं रहे

(तर्क-ओ-तलब = त्याग और माँग/ इच्छा)

ऐश-ओ-तरब की शर्त पे ज़िंदा हैं राबिते
रिश्ते कहीं भी दर्द-ओ-तअब के नहीं रहे

(ऐश-ओ-तरब = भोगविलास और आनंद), (राबिते = मेल-जोल, सम्बन्ध), (दर्द-ओ-तअब = दर्द और तकलीफ़)

ताबीर किस को ढूँढने आई है अब यहाँ
आँखों के सारे ख़्वाब तो कब के नहीं रहे

(ताबीर = स्वप्नकाल बताना, स्वप्न का फल)

ऐ शहरे-बदहवास ! मैं तन्हा नहीं उदास
अब चैन और क़रार तो सब के नहीं रहे

मेरी ज़बां तराश के 'आलम' वो खुश है यूँ
इम्कान् जैसे शोर-ओ-शग़ब के नहीं रहे

(इम्कान् = सम्भावना, सामर्थ्य), (शोर-ओ-शग़ब = कोलाहल, शोरगुल)

- आलम खुर्शीद

Saturday, January 23, 2016

याद

दश्त-ए-तन्हाई में, ऐ जान-ए-जहां, लरज़ाँ हैं
तेरी आवाज़ के साये,
तेरे होंठों के सराब,
दश्त-ऐ-तन्हाई में,
दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक़ तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

(दश्त-ए-तन्हाई = एकांत का जंगल), (लरज़ाँ = काँपता हुआ, थरथराता हुआ)
(सराब = मृगतृष्णा), (ख़स-ओ-ख़ाक़ = सूखी घास और धूल), (समन = चमेली का फूल)

उठ रही है कहीं क़ुर्बत से
तेरी सांस की आंच
अपनी ख़ुश्बू में सुलगती हुई
मद्धम मद्धम
दूर उफ़क़ पार चमकती हुई
क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

(क़ुर्बत = सामिप्य, नज़दीकीपन), (उफ़क़ = क्षितिज), (शबनम = ओस)

इस क़दर प्यार से ऐ जान-ए-जहां रक्खा है
दिल के रुख़सार पे
इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है
गरचे है अभी सुबह-ए-फ़िराक
ढल गया हिज्र का दिन

आ भी गयी वस्ल कि रात

(रुख़सार = कपोल, गाल), (गरचे = यद्यपि), (सुबह-ए-फ़िराक = जुदाई की सुबह), (हिज्र = जुदाई, बिछोह), (वस्ल = मिलन)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Meesha Shafi

Iqbal Bano


Tina Sani

Friday, June 5, 2015

तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँनिसार चले गए

तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँनिसार चले गए
तेरी रह में करते थे सर तलब सर-ए-रहगुज़ार चले गए

(जाँनिसार = अपने प्राण न्यौछावर करने वाला), (सर-ए-रहगुज़ार = रास्ते में चलने वाले)

तेरी कज़-अदाई से हार के शब-ए-इंतज़ार चली गई
मेरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मेरे ग़मगुसार चले गए

(कज़-अदाई = रूखापन), (शब-ए-इंतज़ार = इंतज़ार की रात), (ज़ब्त-ए-हाल = अपना हाल प्रकट न होने देना), (ग़मगुसार = हमदर्द, दुःख बंटानेवाला)

न सवाल-ए-वस्ल, न अर्ज़-ए-ग़म, न हिकायतें, न शिकायतें
तेरे अहद में दिल-ए-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए

(सवाल-ए-वस्ल = मिलने का प्रश्न), (अर्ज़-ए-ग़म = दुःख का बयान), (हिकायतें = बातें, किस्से, हाल), (अहद = समय, वक़्त, युग), (दिल-ए-ज़ार = दुखी/ बेबस दिल), (इख़्तियार = अधिकार, प्रभुत्व)

ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-राह सियाही लिखी गई
यही दाग़ थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गए

(सर-ए-राह = रास्ते में, सबके सामने), (सर-ए-बज़्म-ए-यार = प्रियतम की महफ़िल में)

न रहा जुनून-ए-रुख़-ए-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गए

(जुनून-ए-रुख़-ए-वफ़ा = प्यार करने का पागलपन/ उन्माद), (रसन = रस्सी), (दार = सूली, फाँसी)


-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

https://www.youtube.com/watch?v=nrGaeg_PXsI


Saturday, May 30, 2015

एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को

एक आज़ार हुई जाती है शोहरत हम को
ख़ुद से मिलने की भी मिलती नहीं फ़ुर्सत हम को

(आज़ार = दुःख, कष्ट, रोग)

रौशनी का ये मुसाफ़िर है रह-ए-जाँ का नहीं
अपने साए से भी होने लगी वहशत हम को

(रह-ए-जाँ = ज़िन्दगी की राह)

आँख अब किस से तहय्युर का तमाशा माँगे
अपने होने पे भी होती नहीं हैरत हम को

(तहय्युर = अचम्भा, विस्मय, हैरत)

अब के उम्मीद के शोले से भी आँखें न जलीं
जाने किस मोड़ पे ले आई मोहब्बत हम को

कौन सी रुत है ज़माने हमें क्या मालूम
अपने दामन में लिए फिरती है हसरत हम को

ज़ख़्म ये वस्ल के मरहम से भी शायद न भरे
हिज्र में ऐसी मिली अब के मसाफ़त हम को

(वस्ल = मिलन), (हिज्र = जुदाई), (मसाफ़त = फ़ासला, दूरी)

दाग़-ए-इसयाँ तो किसी तौर न छुपते 'अमजद'
ढाँप लेती न अगर चादर-ए-रहमत हम को

(दाग़-ए-इसयाँ = पाप के दाग़), (चादर-ए-रहमत = कृपा की चादर)

-अमजद इस्लाम अमजद

Thursday, May 14, 2015

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया

किसी तरह जो न उस बुत ने ऐतबार किया
मेरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मशार किया

हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया

(शब-ए-वस्ल = मिलन की रात), (अश्क-बार = आँसू बहानेवाला)

ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा, हाए बेक़रार किया

(सर-ए-मज़ार = मज़ार पर)

सुना है तेग को क़ातिल ने आबदार किया
अगर ये सच है तो बे-शुबह हम पे वार किया

(तेग = तलवार), (आबदार = धारदार), (बे-शुबह = बिना शक़)

न आए राह पे वो इज़्ज़ बे-शुमार किया
शब-ए-विसाल भी मैंने तो इन्तिज़ार किया

(इज़्ज़ = नम्रता, विनय), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात)

तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ को उम्मीदवार किया

(वादा-ए-दीदार = दर्शन का वादा)

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआलअन्देश
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया

(ताब = सहनशक्ति, आभा, बल), (मआलअन्देश = दूरदृष्टा)

कहाँ का सब्र कि दम पर है बन आई ज़ालिम
ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आशकार किया

(आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं
आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया

मिले जो यार की शोख़ी से उसकी बेचैनी
तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया

(दिल-ए-मुज़्तरिब = व्याकुल/ बेचैन दिल)

भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
छिपा छिपा के मोहब्बत को आशकार किया

(राज़-ए-निहां = छिपा हुआ रहस्य), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

न उसके दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता
सबा ने ख़ाक़ परेशां मेरा ग़ुबार किया

(सबा = बयार, पुरवाई, हवा)

हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया

(मह्व = निमग्न, तल्लीन), (मह्व-ए-नज़ारा = दृश्य की सुंदरता देखने में तल्लीन), (तग़ाफ़ुल = उपेक्षा, बेरुख़ी)

हमारे सीने में रह गई थी आतिश-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल भी उसको न हम-कनार किया

(आतिश-ए-हिज्र = विरह की चिंगारी), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात), (हम-कनार = बाँहों में भरना)

रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है
वो और इश्क़ भला तुमने एतबार किया

(शेवा-ए-उल्फ़त = प्यार की आदत)

ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह
जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया

(ज़बान-ए-ख़ार = काँटों भरी ज़ुबान), (सदा-ए-बिस्मिल्लाह = ख़ुदा के नाम से शुरू करने की आवाज़), (सर-ए-शोरीदा = उन्मुक्तता)

तेरी निगह के तसव्वुर में हमने ए क़ातिल
लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया

(तसव्वुर = कल्पना, ख़याल)

गज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैंने धोके में
हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया

(कसरत-ए-महफ़िल = सभा की भीड़), (रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी), (हम-कनार = गले लगाना)

हुआ है कोई मगर उसका चाहने वाला
कि आसमां ने तेरा शेवा इख़्तियार किया

(शेवा = आदत, तरीक़ा)

न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया

उन को तर्ज-ए-सितम आ गए तो होश आया
बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होशियार आया

(तर्ज-ए-सितम = अत्याचार, ज़ुल्म करने का तरीक़ा)

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया

(फ़साना-ए-शब-ए-ग़म = दुःख भरी रात की कहानी)

असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही
तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया

(असीरी = क़ैद), (दिल-ए-आशुफ़्ता = आतुर/ बेचैन दिल), (तुर्रा-ए-तर्रार = बल खाए हुए बाल), (तार तार = छिन्न-भिन्न)

कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया

(दावर-ए-महशर = ख़ुदा)

किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बदगुमानी थी
कि डरते डरते खुदा पर भी आशकार किया

(इश्क़-ए-निहाँ = छुपा हुआ प्यार), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे
आख़िर अब मुझे आशोब-ए-रोज़गार किया

(फ़लक = आसमान), (आशोब-ए-रोज़गार = रोज़गार की हलचल/ उपद्रव)

वो बात कर जो कभी आसमां से हो न सके
सितम किया तो बड़ा तूने इफ़्तिख़ार किया

(इफ़्तिख़ार = गौरव, मान)

बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी खाल-ए-सियाह
जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आशकार किया

(मेहर-ए-क़यामत = क़यामत के दिन का सूरज), (खाल-ए-सियाह = काला तिल, Beauty spot), ( 'दाग़'-ए-सियह-रू = शायर के काले चेहरे पर निशान), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

-दाग़


मेहदी हसन/ Mehdi Hasan 
 
 
 
मोहम्मद रफ़ी/ Mohammad Rafi
 
 
पंकज उधास/ Pankaj Udhaas
 
राजकुमारी/ Rajkumaari 
 
कविता कृष्णामूर्ति/ Kavita Krishnamurti 
 
फ़रीदा ख़ानुम/ Fareeda Khanum 
 

Tuesday, January 6, 2015

हम ही में थी न कोई बात, याद न तुम को आ सके

हम ही में थी न कोई बात, याद न तुम को आ सके
तुमने हमें भुला दिया, हम न तुम्हें भुला सके

तुम ही न सुन सके अगर, क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन
किस की ज़ुबाँ खुलेगी फिर, हम न अगर सुना सके

होश में आ चुके थे हम, जोश में आ चुके थे हम
बज़्म का रंग देख कर सर न मगर उठा सके

(बज़्म =महफ़िल)

शौक़-ए-विसाल है यहाँ, लब पे सवाल है यहाँ
किस की मजाल है यहाँ, हम से नज़र मिला सके

(शौक़-ए-विसाल = मिलन की चाहत)

रौनक़-ए-बज़्म बन गए लब पे हिकायतें रहीं
दिल में शिकायतें रहीं लब न मगर हिला सके

(रौनक़-ए-बज़्म = महफ़िल की रौनक), (हिकायतें = कहानियाँ, किस्से)

ऐसा भी कोई नामाबर बात पे कान धर सके
सुन कर यक़ीन कर सके जा के उन्हें सुना सके

 (नामाबर = संदेशवाहक, डाकिया)

अहल-ए-ज़बाँ तो हैं बहुत कोई नहीं है अहल-ए-दिल
कौन तेरी तरह 'हफ़ीज़' दर्द के गीत गा सके

(अहल-ए-ज़बाँ = बोलने वाले, कहने वाले), (अहल-ए-दिल = दिल वाले)

-हफ़ीज़ जालंधरी

                                                       मेहदी हसन/ Mehdi Hassan

जगजीत सिंह/ Jagjit Singh 

Monday, November 24, 2014

भुला दे मुझ को के बेवफ़ाई बजा है लेकिन
गँवा न मुझ को के मैं तेरी ज़िंदगी रहा हूँ

(बजा = उचित, मुनासिब, ठीक)

वो अजनबी बन के अब मिले भी तो क्या है 'मोहसिन'
ये नाज़ कम है के मैं भी उस का कभी रहा हूँ

-मोहसिन नक़वी

Friday, October 24, 2014

यूँ तो एक उम्र साथ साथ हुई

यूँ तो एक उम्र साथ-साथ हुई
जिस्म की रूह से न बात हुई

क्यों ख़यालों मे रोज़ आते हैं
इक मुलाक़ात जिनके साथ हुई

कितना सोचा था दिल लगाएँगे
सोचते-सोचते हयात हुई

(हयात = जीवन, ज़िन्दगी)

लाख ताक़ीद हुस्न करता रहा
इश्क़ से ख़ाक एहतियात हुई

(ताक़ीद = जोर के साथ किसी बात की आज्ञा या अनुरोध, ख़ूब चेताकर कही हुई बात), (एहतियात = सतर्कता, सचेत रहने की क्रिया)

इक फ़क़त वस्ल का न वक़्त हुआ
दिन हुआ रोज, रोज़ रात हुई

(वस्ल = मिलन)

क्या बताएँ बिसात ज़र्रे की
ज़र्रे-ज़र्रे से कायनात हुई

(बिसात = हैसियत, सामर्थ्य), (कायनात = सृष्टि, जगत)

शायद आई है रुत चुनावों की
कल जो कूचे में वारदात हुई

क्या थी मुश्किल विसाल-ए-हक़ में 'सदा'
तुझ से बस रद न तेरी ज़ात हुई

(विसाल-ए-हक़ = मिलन का अधिकार), (रद = रद्द करना, वापस करना), (ज़ात = कुल, वंश, नस्ल, क़ौम)

-सदा अम्बालवी

राधिका चोपड़ा/ Radhika Chopda


Saturday, October 18, 2014

नहीं निगाह में मंज़िल, तो जुस्तजू ही सही

नहीं निगाह में मंज़िल, तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर, तो आरज़ू ही सही

(जुस्तजू = तलाश, खोज), (विसाल = मिलन), (मयस्सर = प्राप्त, उपलब्ध)

न तन में ख़ून फ़राहम, न अश्क़ आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही

(फ़राहम = संग्रहीत, इकठ्ठा), (अश्क़ = आँसू), (वाज़िब = मुनासिब, उचित, ठीक)

किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदे वालों
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही

(बज़्म = महफ़िल), (हा-ओ-हू = दुःख और शून्य/ सुनसान)

गर इंतज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तगू ही सही

(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा)

दयार-ए-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

(दयार-ए-ग़ैर = अजनबी का घर), (महरम = अंतरंग मित्र, सुपरिचित, वह जिसके साथ बहुत घनिष्टता हो)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


आबिदा परवीन/ Abida Parveen