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Wednesday, July 25, 2018

निकले अगर तो पहुँचे इक पल में ला-मकाँ तक

निकले अगर तो पहुँचे इक पल में ला-मकाँ तक
कुछ बात है कि नाला आता नहीं ज़ुबाँ तक

जब शहर ए दोस्ताँ ही समझे नहीं ज़ुबाँ तक
फाड़ें गला हम अपना बे फ़ायदा कहाँ तक

आख़िर को नीम जां का क़िस्सा तमाम शुद है
मुज़दा ये ले के जाओ तुम मेरे मेहरबाँ तक

दिल अपना खिल न पाया बाद अज़ ख़िज़ां भी क्यूंकर
वैसे बहार आई तो होगी गुलसिताँ तक

आ तो गए हैं याँ तकजाएँ किधर को यारब
नक़्श ए क़दम का हम कुछ पाते नहीं निशाँ तक

पूछे जो नाम उनकाबाबरतो क्या कहें हम
ऐसा छुपा है दिल में आता नहीं ज़ुबाँ तक

-बाबर इमाम

वहशत, आह, फ़ुग़ाँँ और गिरया...शोर मचा है नालों का


वहशत, आह, फ़ुग़ाँँ और गिरया...शोर मचा है नालों का
बस्ती में बाज़ार लगा है चाक गिरेबाँ वालों का

खेल सियानों का है मुहब्बत, इस का छल तुम क्या जानो
क्या बतलाएँ क्या होता है इस में भोले भालों का

चल कर खुद ही देख ले सारे जीते हैं या मरते हैं
जान गई, पर जी अटका है, तेरे ख़स्ता हालों का

तेरे सर के सौदे की तशहीर है सारी बस्ती में
किस पर भेद छुपा है, पगले, उलझे सुलझे बालों का

लाख उपायों से न टली है बिपता जो कि आनी थी
तदबीर से पलड़ा भारी है, तक़दीर की उलटी चालों का

ख़ार ए बयाबाँ के बोसे से जबकि चारा हो जाए
गुल से मुँह का लगाना कैसा अपने पाँव के छालों का

जितना ज़ोर लगाया उतना उलझा उसकी कुंडली में
पल पल कसता जाए दिल पर हल्क़ा काले बालों का

एक तसव्वुर के पर्दे में, बाबर, माज़ी, फ़र्दा, हाल
आँखें मूँदे सफ़र किया है जाने कितने सालों का

-बाबर इमाम

Friday, August 4, 2017

दास्तान ए रेख़्ता

बेसहारा, बे-नवा, बेचारा, बेकस, रेख़्ता
कूचा ओ बाज़ार में था मुफ़लिसी में फिर रहा
.
ताकता था हसरतों से कोठियों की शान को
देखता था हैरतों से पीर और तिफ़्लान को
.
धोबी, मोची, बनिया, बुनकर और सिपाही ज़ात के
थे फ़क़त एहल ए ज़ुबां उन मुख़्तसर औक़ात के
.
साहिबान ए बज़्म को भाता था कब फूटी नज़र
पर इनायत का वो उनके मुंतज़िर था किस क़दर
.
दस्त ए शफ़क़त से क़ुतुब शह के ज़रा क़िस्मत खुली
कुछ तवानाई भी आई जब वली की शह मिली
.
था वली का क़ौल, जो मिस्कीन का बानी हुआ
"ग़म तेरा सीने में मेरे हमदम-ए-जानी हुआ"
.
चल के दक्कन से ये देहली आ गया था बे-वतन
पर यहाँ भी हाल उसका था जो था मुल्क ए दकन
.
आरज़ू ओ आबरू ओ  मिर्ज़ा  मज़हर जानेजाँ
की मेहरबानी से बाक़ी है अभी नाम ओ निशाँ
.
वरना मारे देते थे इस को तो हज़रात ए सुख़न
और नज़्र ए गोर करते इसको सब एहल ए वतन
.
था जुआ-ख़ाने की ज़ीनत, मैकदे में पल रहा
चावड़ी बाज़ार में ख़ानम के कोठे का दिया
.
फ़ारसी थी सर चढ़ी बज़्म ए तरब में इस क़दर
रेख़्ता को बैठने देता ना था कोई बशर
.
दर्द, सौदा भी सिराज ओ क़ायम ए उर्दू शिनास
पुख़्ता करने में लगे थे रेख़्ता की वो असास
.
आया देहली में नज़र जो शायरों का पीर था
नाम उस आशुफ़्ता सर का हम बताएँ मीर था
.
क्या कहूँ बस सोज़ से दीवान तक लबरेज़ है
"हर वरक़ हर सफ़हा में इक शेर ए शोर-अंगेज़ है"
.
कूचा ए देहली में गूँजी रेख़्ता की बोलियाँ
फ़ारसी सरकी ज़रा कुछ जा बनाई दरमियाँ
.
फिर नज़ीर ओ मस्हफ़ी, इंशा ओ जुरअत, ज़ौक़ भी
परवरिश में लग गये और परवरिश भी ख़ूब की
.
एक बदक़िस्मत ज़फ़र भी था जो था एहल ए क़लम
पर कलाम इसका है नज़्र ए जौर ए  एहबाब ए करम
.
कू ए जानाँ में अजब कोहराम बरपा हो गया
"छोड़ कर काबा को बुत-ख़ाना में जब मोमिन फँसा"
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ख़ान ए मोमिन था इन्ही वक़्तों का इक शायर भला
था तख़य्युल जिस का नाज़ुक और तगज़्ज़ुल दिलरुबा
.
रेख़्ता को पर नयी इक ताज़गी दरकार थी
इस ग़िज़ाल ए गुलसिताँ को हाजत ए रफ़्तार थी
.
फ़ारसी को रश्क हो जिस पर वो आया अन्क़रीब
गुलशन ए ना आफ़रीदा का नवा संज अंदलीब
.
बरगज़ीदा आसियों में पर सुख़न का था वली
ग़ालिब ए शीरीं बयाँ से कौन रहता अजनबी
.
आबरू जिस की ना थी एहल ए वतन के दरमियाँ
ता क़यामत याद रख्खेगा उसे सारा जहाँ
.
वो सुख़नवर बस असदुल्लाह ख़ाँ ग़लिब ही था
"बज़्म ए मय वहशत कदा था जिस के हर्फ़ ए मस्त का"
.
इस ज़माने में हुए पंडित दया शंकर नसीम
रेख़्ता के वास्ते ये नाम है बेहद अज़ीम
.
आया फिर दश्त ए सुख़न में एक वो मोजिज़ बयाँ
रेख़्ता का फ़ख़्र थी जिस की ज़ुबाँ की शोख़ियाँ
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दाग़ के तर्ज़ ए बयाँ पर सब को हैरानी हुई
"अश्क-अफ़्शानी भी उसकी गौहर-अफ़्शानी हुई"
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ख़ूबी ए गुफ़्तार में उस से ना था ऊँचा कोई
वैसा इक उस्ताद भी आया ना दोबारा कोई
.
दाग़ के ज़ेर ए नज़र फिर ये हुआ कुछ मामला
रेख़्ता तालीम पा कर और मोहज़्ज़ब हो गया
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गो कि शायर ख़ूब तर पैदा हुए तब और अब
इन में लेकिन ख़ास हैं कुछ जिन से है रौशन अदब
.
रेख़्ता है जिन से मुमकिन, जिस की ये दस्तार हैं
मीर ओ ग़ालिब, दाग़ ओ मोमिन, यार इस के चार हैं
.
रेख़्ता इज्दाद का तोहफ़ा है, इक तहज़ीब है
दिल से दिल के राब्ते के वास्ते तरकीब है
.
एक गौहर क़ीमती है हाथ में हम आप के
ये अगर गुम हो गया तो हाथ मलते जाएँगे
.
क्यूँ सिखाएं अपने बच्चों को यहाँ जंग ओ जदल
बस मोहब्बत ही है जब सरमाया ए नज़्म ओ ग़ज़ल
.
बात बाबर ख़ूब खींची तूने अब कर मुख़्तसर
कुछ ख़ता गर हो गयी हो कीजिएगा दरगुज़र
.
-बाबर इमाम
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===meanings====
tiflaan = bachche, children
tawaanaai = taaqat, strength
shafqat = affection
bazm e tarab =khushi ki mehfil
urdu shinaas = urdu pehchaanne waale
asaas = neev
aashufta = bikhra hua, scattrered
labrez = bhara hua
safha = page
takhayyul = khayaal
taghazzul = ghazal ki khoobsurti, rhythm
naa afreeda = jo abhi bana nahin
andaleeb = a singing bird
nawaa sanj = gaane waala
bagazeeda = respected
aasiyon = gunahgaar
sheereeN bayaaN = jis ki baaten meethi hon
mojiz bayaaN = jis ki baaton mein jaadu ho
ashk-afshaani = aansuon bikherna
gauhar-afshaani = moti bikherna
guftaar = bolna
mohazaab = paak, behtar, civilized
dastaar = pagRi, izzat
ijdaad = poorvaj, ancestors,
tehzeeb = culture
raabta = contact
jang o jadal = war and battle
mukhtasar = short
Khata = ghalti
darguzar = overlook

Sunday, February 22, 2015

जब से दीदार-ए-रुख़-ए-यार कराया हम को

जब से दीदार-ए-रुख़-ए-यार कराया हम को
तब से दुनिया भी नज़र आई तमाशा हम को

चाहिए खेल नया कुछ कि ज़रा दिल तो लगे
कि नहीं हस्ती-ए-अश्या भी मुअम्मा हम को

(हस्ती-ए-अश्या = वस्तुओं का आस्तित्व), (मुअम्मा = पहेली)

है जुनूं ऐसा अगर आयें मुक़ाबिल तो भी
रश्क से देख के जल जाये है सहरा हम को

(मुक़ाबिल = सम्मुख), (रश्क = ईर्ष्या), (सहरा = विस्तार, जंगल, रेगिस्तान)

तिश्नगी ऐसी कि कौसर से भी तस्कीन ना हो
पानी पानी ही हुआ देखे जो दरिया हम को

(तिश्नगी = प्यास), (कौसर = जन्नत की एक नहर का नाम), (तस्कीन = चैन, आराम)

हो गया गुम तो अभी तक ना ख़बर कुछ उस की
जो अदम को था गया ढूँढने अन्क़ा हम को

(अन्क़ा = एक काल्पनिक पक्षी, इसे दुःसाध्य और दुर्लभ के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है)

मिन्नतें कर के जो टाला है हश्र को हम ने
आ ही जाओगे कभी तो, था भरोसा हम को

(हश्र = क़यामत)

है यक़ीं हम को, ख़ुदा देता है क़ूवत 'बाबर'
ये न समझो के ख़ुदाई का है दावा हम को

(क़ूवत = ताक़त, बल, शक्ति, सामर्थ्य)

- बाबर इमाम

Singer: Shailly Kapoor

Tuesday, August 20, 2013

पेश-ए-नज़र हो आईना, तो क्यूँकर बनेगी बात
जल्वा-ए-ख़ुद की दीद से, फुर्सत कहाँ उन्हें
-बाबर इमाम 
होता न सुर्ख़ कैसे, फूलों का रंग सारा
मिट्टी में मिल रहा था, ख़ून-ए-जिगर हमारा
-बाबर इमाम