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Monday, July 29, 2019

आओ कोई तफ़रीह का सामान किया जाए

आओ कोई तफ़रीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाइ'ज़ को परेशान किया जाए

(वाइ'ज़ = धर्मोपदेशक)

मुफ़्लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़ारों पे ये एलान किया जाए

(मुफ़्लिस=ग़रीब)

वो शख़्स जो दीवानों की इज़्ज़त नहीं करता
उस शख़्स का भी चाक गरेबान किया जाए

(चाक गरेबान = फटा हुआ गरिबान/ कंठी)

पहले भी 'क़तील' आँखों ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुक़सान किया जाए

(बीनाई = आँखों की दृष्टि)

-क़तील शिफ़ाई

Wednesday, May 22, 2019

फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
उस ख़ौफ़ का किसी ने ख़ुदा नाम रख दिया

(मुबहम = छुपा हुआ, अस्पष्ट, धुँधला)

मुफ़लिस को अहल-ए-ज़र ने भी क्या क्या दिए फ़रेब
अपनी जफ़ा का हुक्म-ए-ख़ुदा नाम रख दिया

(मुफ़लिस = ग़रीब), (अहल-ए-ज़र = अमीर, पैसे वाले लोग), (जफ़ा = ज़ुल्म, अत्याचार)

- गोपाल मित्तल

Sunday, January 20, 2019

मस्ज़िदों का न अब ये शिवालों का है

मस्ज़िदों का न अब ये शिवालों का है
मसअला तो वही दो निवालों का है।

नफ़रतों तुम कहीं दूर जा कर बसो
ये हमारा जहां प्यार वालों का है।

झूठ कहना तो ऐसे कि सच ही लगे
ये हुनर भी तो अख़बार वालों का है।

कह चुके तुम तुम्हारे ही मन की मगर
मरहला तो हमारे सवालों का है।

(मरहला = पड़ाव, ठिकाना, मंज़िल)

ढूँढना यूँ ख़ुदा कोई मुश्किल नहीं
इसमें झगड़ा मगर बीच वालों का है।

- विकास "वाहिद"
२३/०१/२०१९

Saturday, May 7, 2016

पराई कोठियों में रोज संगमरमर लगाता है

पराई कोठियों में रोज संगमरमर लगाता है
किसी फुटपाथ पर सोता है लेकिन घर बनाता है

लुटेरी इस व्यवस्था का मुझे पुरजा बताता है
वो संसाधन गिनाता है तो मुझको भी गिनाता है

बदलना चाहता है इस तरह शब्दों व अर्थों को
वो मेरी भूख को भी अब कुपोषण ही बताता है

यहाँ पर सब बराबर हैं ये दावा करने वाला ही
उसे ऊपर उठाता है मुझे नीचे गिराता है

मेरे आज़ाद भारत में जिसे स्कूल जाना था
वो बच्चा रेल के डिब्बों में अब झाड़ू लगाता है

तेरे नायक तो नायक बन नहीं सकते कभी 'बल्ली'
कोई रिक्शा चलाता है तो कोई हल चलाता है

-बल्ली सिंह चीमा 

Saturday, May 23, 2015

इज़ाज़त कम थी जीने की मगर मोहलत ज़ियादा थी

इज़ाज़त कम थी जीने की मगर मोहलत ज़ियादा थी
हमारे पास मरने के लिए फ़ुर्सत ज़ियादा थी

तअज्जुब में तो पड़ता ही रहा है आईना अक्सर
मगर इस बार उसकी आँखों में हैरत ज़ियादा थी

बुलंदी के लिए बस अपनी ही नज़रों से गिरना था
हमारी कम-नसीबी, हम में कुछ ग़ैरत ज़ियादा थी

जवाँ होने से पहले ही बुढ़ापा आ गया हमपर
हमारी मुफ़लिसी पर उम्र की उज्लत ज़ियादा थी

(मुफ़लिसी = ग़रीबी), (उज्लत = शीघ्रता, जल्दी)

ज़माने से अलग रहकर भी मैं शामिल रहा इसमें
मिरे इन्कार में इक़रार की निय्यत ज़ियादा थी

मयस्सर मुफ़्त में थे आसमाँ के चाँद तारे तक
ज़मीं के हर खिलौने की मगर क़ीमत ज़ियादा थी

(मयस्सर = प्राप्त, उपलब्ध)

वो दिल से कम, ज़बाँ ही से ज़ियादा बात करता था
जभी उस के यहाँ गहराई काम वुसअत ज़ियादा थी

(वुसअत = विस्तार)

-राजेश रेड्डी

Monday, November 24, 2014

मैंने इन बच्चों को बातों में लगा रक्खा है
काश इतने में गुज़र जाए खिलौने वाला
-शायर: नामालूम

Saturday, August 16, 2014

दर्द में आपने कमी कर दी
अपनी यादें जो अजनबी कर दी ।

आँखभर इश्क का समंदर था
रूठकर कैसी तिश्नगी कर दी ।

(तिश्नगी = प्यास)

मामला घर में ही सुलझ जाता
बात छोटी सी थी, बड़ी कर दी ।

फैसला जब दिया तो मक़्तल में
जान आफ़त में थी, बरी कर दी ।

(मक़्तल = वह स्थान जहाँ लोग क़त्ल किये जाते हों, वधस्थल)

और क्या देंगे मुफ़लिसी में उन्हें
नाम जिनके ये ज़िन्दगी कर दी ।

(मुफ़लिसी = गरीबी)

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Sunday, June 23, 2013

हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मज़हबी नग़मात को मत छेड़िए
-अदम गोंडवी

Friday, June 21, 2013

शहर हर रोज हादिसा लाया
जान अपनी मैं फिर बचा लाया ॥

मुफ़लिसी में बिके हुए कंगन
आज बाज़ार से उठा लाया ||

ख़त लिखा था तुम्हें जवानी में
कल जवाब उसका डाकिया लाया ॥

और थोड़ी सी बढ़ गयी साँसें
एक बच्चे को मैं घुमा लाया ||

देखकर फेर दी नज़र उसने
वक़्त कैसा ये, फ़ासला लाया ||

लाख कोशिश करो बिछुड़ने की
"फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया" ||

रात चुप थी, सितारे भी गुमसुम
चाँद जलती हुई शमा लाया ॥

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Wednesday, June 19, 2013

चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया

शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया

ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया

यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया

अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं
इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया
-अदम गोंडवी

Sunday, June 9, 2013

बात बनती नहीं ऐसे हालात में
मैं भी जज़्बात में, तुम भी जज़्बात में

कैसे सहता है मिलके बिछडने का ग़म
उससे पूछेंगे अब के मुलाक़ात में

मुफ़लिसी और वादा किसी यार का
खोटा सिक्का मिले जैसे ख़ैरात में

जब भी होती है बारिश कही ख़ून की
भीगता हूं सदा मैं ही बरसात में

मुझको किस्मत ने इसके सिवा क्या दिया
कुछ लकीरें बढा दी मेरे हाथ में

ज़िक्र दुनिया का था, आपको क्या हुआ
आप गुम हो गए किन ख़यालात में

दिल में उठते हुए वसवसों के सिवा
कौन आता है `साग़र' सियह रात में
-हनीफ़ साग़र

Sunday, November 11, 2012

भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो,
अब अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

[(मुफ़लिस = गरीब, निर्धन); (अंजुमन = सभा, संस्था, मजलिस]

जो ग़ज़ल माशूक़ के जलवों से वाक़िफ़ हो चली
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
-अदम गोंडवी

Sunday, October 28, 2012

यहाँ ख़ामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है
मेरी आँखों में तेरी बेग़ुनाही कौन पढ़ता है

नुमाइश में लगी चीज़ों को मैला कर रहे हैं सब
लिखी तख्तों पे "छूने की मनाही" कौन पढ़ता है

जहाँ दिन के उजालों का खुला व्यापार चलता हो
वहाँ बेचैन रातों की सियाही कौन पढ़ता है

ये वो महफ़िल है, जिसमें शोर करने की रवायत है
दबे लब पर हमारी वाह-वाही कौन पढ़ता है

वो बाहर देखते हैं, और हमें मुफ़लिस समझते हैं
खुदी जज़्बों पे अपनी बादशाही कौन पढ़ता है

जो ख़ुशक़िस्मत हैं, बादल-बिजलियों पर शेर कहते हैं
लुटे आंगन में मौसम की तबाही, कौन पढ़ता है

-आशुतोष द्विवेदी