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Wednesday, April 15, 2020

दिल मुसाफ़िर ही रहा सू-ए-सफ़र आज भी है
हाँ! तसव्वुर में मगर पुख़्ता सा घर आज भी है

(सू-ए-सफ़र = यात्रा की ओर), (तसव्वुर = कल्पना, ख़याल, विचार, याद),

कितने ख़्वाबों की बुनावट थी धनुक सी फैली
कू-ए-माज़ी में धड़कता वो शहर आज भी है

(कू-ए-माज़ी = अतीत की गली)

बाद मुद्दत के मिले, फिर भी अदावत न गयी
लफ़्जे-शीरीं में वो पोशीदा ज़हर आज भी है

(लफ़्जे-शीरीं = मीठे शब्द), (पोशीदा = छिपा हुआ)

नाम हमने जो अँगूठी से लिखे थे मिलकर
ग़ुम गये हैं मगर ज़िन्दा वो शज़र आज भी है

(शज़र = पेड़, वृक्ष)

अब मैं मासूम शिकायात पे हँसता तो नहीं
पर वो गुस्से भरी नज़रों का कहर आज भी है

-अमिताभ त्रिपाठी ’अमित’

ज़िन्दगी इक तलाश है, क्या है?

ज़िन्दगी इक तलाश है, क्या है?
दर्द इसका लिबास है क्या है?

फिर हवा ज़हर पी के आई क्या,
सारा आलम उदास है, क्या है?

एक सच के हज़ार चेहरे हैं,
अपना-अपना क़यास है, क्या है

(क़यास = अन्दाज़ा)

जबकि दिल ही मुकाम है रब का,
इक जमीं फिर भी ख़ास है, क्या है

राम-ओ-रहमान की हिफ़ाज़त में,
आदमी! बदहवास है, क्या है?

सुधर तो सकती है दुनियाँ, लेकिन
हाल, माज़ी का दास है, क्या है?

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)

मिटा रहा है ज़माना इसे जाने कब से,
इक बला है कि प्यास है, क्या है?

गौर करता हूँ तो आती है हँसी,
ये जो सब आस पास है क्या है?

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Monday, June 17, 2019

बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला

बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला
नया सफ़र भी बहुत ही गुरेज़-पा निकला

(गुरेज़-पा = छलने वाला, कपटपूर्ण, गोलमाल)

न जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही
जिसे क़रीब से देखा वो दूसरा निकला

हमें तो रास न आई किसी की महफ़िल भी
कोई ख़ुदा कोई हम-साया-ए-ख़ुदा निकला

हज़ार तरह की मय पी हज़ार तरह के ज़हर
न प्यास ही बुझी अपनी न हौसला निकला

हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं
पुकारा हम ने तो सदियों का फ़ासला निकला

अब अपने-आप को ढूँडें कहाँ कहाँ जा कर
अदम से ता-ब-अदम अपना नक़्श-ए-पा निकला

(अदम = परलोक, शून्य, अस्तित्व हीनता),  (ता-ब-अदम = अनंत काल), (नक़्श-ए-पा = पैरों के निशान, पदचिन्ह)

-ख़लील-उर-रहमान आज़मी

Saturday, June 15, 2019

आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया

आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया
मैं इस क़दर उड़ा कि ख़लाओं में खो गया

(ख़लाओं = अँतरिक्षों)

कतरा रहे हैं आज के सुक़रात ज़हर से
इंसान मस्लहत की अदाओं में खो गया

(मस्लहत = समझदारी, हित, भलाई)

शायद मिरा ज़मीर किसी रोज़ जाग उठे
ये सोच के मैं अपनी सदाओं में खो गया

(सदाओं = आवाज़ों)

लहरा रहा है साँप सा साया ज़मीन पर
सूरज निकल के दूर घटाओं में खो गया

मोती समेट लाए समुंदर से अहल-ए-दिल
वो शख़्स बे-अमल था दुआओं में खो गया

(अहल-ए-दिल = दिल वाले), (बे-अमल = बिना कर्म के)

ठहरे हुए थे जिस के तले हम शिकस्ता-पा
वो साएबाँ भी तेज़ हवाओं में खो गया

(शिकस्ता-पा = मजबूर, असहाय, लाचार), (साएबाँ = शामियाना, मण्डप)

-कामिल बहज़ादी

Sunday, May 12, 2019

ज़हर मीठा हो तो पीने में मज़ा आता है
बात सच कहिए मगर यूँ कि हक़ीक़त न लगे
-फ़ुज़ैल जाफ़री

Tuesday, March 28, 2017

तुम्हें जीने में आसानी बहुत है

तुम्हें जीने में आसानी बहुत है
तुम्हारे ख़ून में पानी बहुत है

कबूतर इश्क़ का उतरे तो कैसे
तुम्हारी छत पे निगरानी बहुत है

इरादा कर लिया गर ख़ुद-कुशी का
तो ख़ुद की आँख का पानी बहुत है

ज़हर सूली ने गाली गोलियों ने
हमारी ज़ात पहचानी बहुत है

तुम्हारे दिल की मन-मानी मिरी जाँ
हमारे दिल ने भी मानी बहुत है

- डॉ. कुमार विश्वास

Friday, November 11, 2016

हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब

हर गाम हादसा है ठहर जाइए जनाब
रस्ता अगर हो याद तो घर जाइए जनाब

(गाम = कदम, पग)

ज़िंदा हक़ीक़तों के तलातुम हैं सामने
ख़्वाबों की कश्तियों से उतर जाइए जनाब

(तलातुम = तूफ़ान, बाढ़, पानी का लहराना)

इंकार की सलीब हूँ सच्चाइयों का ज़हर
मुझ से मिले बग़ैर गुज़र जाइए जनाब

(सलीब = सूली)

दिन का सफ़र तो कट गया सूरज के साथ साथ
अब शब की अंजुमन में बिखर जाइए जनाब

(शब = रात),  (अंजुमन = सभा, महफ़िल)

कोई चुरा के ले गया सदियों का ए'तिक़ाद
मिम्बर की सीढ़ियों से उतर जाइए जनाब

(ए'तिक़ाद = श्रद्धा, आस्था, विश्वास, यकीन, भरोसा), (मिम्बर = उपदेश-मंच, भाषण-मंच)

-अमीर क़ज़लबाश


Monday, August 1, 2016

खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है

खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है
लेकिन उस को फिर समझाया जा सकता है

इस दुनिया में हम जैसे भी रह सकते हैं
इस दलदल पर पाँव जमाया जा सकता है

सब से पहले दिल के ख़ालीपन को भरना
पैसा सारी उम्र कमाया जा सकता है

मैं ने कैसे कैसे सदमे झेल लिए हैं
इस का मतलब ज़हर पचाया जा सकता है

इतना इत्मिनान है अब भी उन आँखों में
एक बहाना और बनाया जा सकता है

झूठ में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है

-शकील जमाली

Tuesday, June 28, 2016

ज़माने में सबसे जुदा देखना चाहता है

ज़माने में सबसे जुदा देखना चाहता है 
अजीब है वो मुझमे ख़ुदा देखना चाहता है

मेरे हाल पर अब भी उसको यकीं ही नही है
जो चाक हो चुकी वो रिदा देखना चाहता है 

(चाक रिदा = फ़टी चादर)

यूँ मुझको ज़हर दे के यादों का अपनी तमाम शब
सहर को मुझे जिन्दा देखना चाहता है 

(शब = रात), (सहर = सवेरा, सुबह)

वो वाकिफ़ है खूब अपने ही अंजाम से यूँ
मगर इश्क़ फिर इब्तिदा देखना चाहता है

(इब्तिदा = आरम्भ, प्रारम्भ, शुरुआत)

क्यूँ है रस्म ये के दिल पे रख कर पत्थर 
पिता बेटियों की विदा देखना चाहता है 

ग़मों से मेरा भर के दामन उम्र भर के लिये 
ज़माना मेरी अब अदा देखना चाहता है 

नवाज़ा था जिस शख़्स को हर नेमत से ख़ुदा ने 
वो ही क्यूँ मुझे गदा देखना चाहता है 

(गदा = भिखारी)

ये इम्तेहान तेरे बेसबब भी नहीं हैं 'विकास'
वो तुझमें ही कुछ अलहदा देखना चाहता है 

(अलहदा = अलग, भिन्न)

- विकास वाहिद

Tuesday, May 31, 2016

हमने तमाम उम्र महज़ काम यह किया

हमने तमाम उम्र महज़ काम यह किया
दुख-दर्द का पहाड़ था सर पर उठा लिया

शायर पे वो सुरूर था तारी न पूछिये
लोगों से माँग-माँग कर सारा ज़हर पिया

(तारी = आ घेरना, छाना)

चलते रहो बस हौसलों का हाथ थाम कर
इस तीरगी में ढूँढ निकालेंगे इक दिया

(तीरगी = अन्धकार)

जो दूसरों की आग सदा तापते रहे
इक दिन जला के बैठ गए अपनी उँगलियाँ

हम भी शरीके-जश्न थे ये और बात है
तिश्ना-लबों की भीड़ में हमको मिला ठिया

(तिश्ना-लबों = प्यासे होंठों)

नाकामियों पे अपनी मगर फ़ख़्र है हमें
हमको सदा अज़ीज़ रहीं अपनी ग़लतियाँ

-विनोद तिवारी

Saturday, May 7, 2016

मैं होश में था तो फिर उसपे मर गया कैसे

मैं होश में था तो फिर उसपे मर गया कैसे
ये ज़हर मेरे लहू में उतर गया कैसे

कुछ उसके दिल में लगावट ज़रूर थी वरना
वो मेरा हाथ दबाकर गुज़र गया कैसे

ज़रूर उसकी  तवज्जो की रहबरी होगी
नशे में था तो मैं अपने ही घर गया कैसे

जिसे भुलाये कई साल हो गये 'कलीम'
मैं आज उसकी गली से गुज़र गया कैसे

-कलीम चाँदपुरी



Mehdi Hassan/ मेहदी हसन 






Mehdi Hassan/ मेहदी हसन (Private Mehfil)


Friday, April 29, 2016

पाओं में छाले, थकन ज़िस्म पे छाई हुई है

पाओं में छाले, थकन ज़िस्म पे छाई हुई है
आज भी बस यही दिन भर की कमाई हुई है

दर्द को ज़ब्त की तहज़ीब सिखाई हुई है
मकतब-ए-इश्क़ में इस दिल की पढ़ाई हुई है

(मकतब-ए-इश्क़ = प्यार की पाठशाला)

मौत तो जाने कहाँ मर गयी आते-आते
ज़िन्दगी है कि मेरी जान को आई हुई है

ग़म वो बेटा जो रुलाता है लहू के आंसू
और ख़ुशी अपनी वो बेटी जो पराई हुई है

फड़फड़ाता रहे लाख अपने परों को कोई
मौत से पहले भला किसकी रिहाई हुई है

ज़हर पीकर भी तेरे हाथ से ज़िंदा रहे हम
ज़हर में जैसे दवा कोई मिलाई हुई है

है ज़माने में उसी बात का चर्चा हरसू
हमने जो बात ज़माने से छुपाई हुई है

रास आने लगी हमको भी अब अपनी दुनिया
जाने ये झूठी खबर किसकी उड़ाई हुई है

-राजेश रेड्डी

Wednesday, February 24, 2016

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में
धूप उतर आई कैसे तहख़ाने में

जाने कब तक गहराई में डूबूँगा
तैर रहा है अक्स कोई पैमाने में

उस मोती को दरिया में फेंक आया हूँ
मैं ने सब कुछ खोया जिसको पाने में

हम प्यासे हैं ख़ुद अपनी कोताही से
देर लगाई हम ने हाथ बढ़ाने में

क्या अपना हक़ है हमको मालूम नहीं
उम्र गुज़ारी हम ने फ़र्ज़ निभाने में

वो मुझ को आवारा कहकर हँसते हैं
मैं भटका हूँ जिनको राह पे लाने में

कब समझेगा मेरे दिल का चारागर
वक़्त लगेगा ज़ख्मों को भर जाने में

(चारागर = चिकित्सक)

हँस कर कोई ज़ह्र नहीं पीता 'आलम'
किस को अच्छा लगता है मर जाने में

- आलम खुर्शीद

Tuesday, July 14, 2015

शोला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो

शोला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएँ मुझे न दो

(सदाएँ = आवाज़ें)

जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िन्दगी की दुआएँ मुझे न दो

ये भी बड़ा करम है सलामत है जिस्म अभी
ऐ ख़ुसरवान-ए-शहर क़बाएँ मुझे ना दो

(ख़ुसरवान-ए-शहर = शहर के बादशाह), (क़बा = एक प्रकार का लम्बा ढीला पहनावा, चोगा)

ऐसा कभी न हो के पलटकर न आ सकूँ
हर बार दूर जा के सदाएँ मुझे न दो

(सदाएँ = आवाज़ें)

कब मुझ को एतिराफ़-ए-मुहब्बत न था 'फ़राज़'
कब मैं ने ये कहा था सज़ाएँ मुझे न दो

(एतिराफ़-ए-मुहब्बत = प्यार कबूलना, स्वीकार करना कि मुहब्बत है)

-अहमद फ़राज़

 

Tuesday, July 2, 2013

हर घर में कोई तहख़ाना होता है

हर घर में कोई तहख़ाना होता है
तहख़ाने में इक अफ़साना होता है

किसी पूरानी अलमारी के ख़ानों में
यादों का अनमोल ख़ज़ाना होता है

रात गए अक्सर दिल के वीराने में
इक साए का आना-जाना होता है

दिल रोता है, चेहरा हँसता रहता है
कैसा-कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है

बढती जाती है बेचैनी नाख़ून की
जैस- जैसे ज़ख्म पुराना होता है

ज़िंदा रहने की ख़ातिर इन आँखों में
कोई न कोई ख़्वाब सजाना होता है

तन्हाई का ज़हर तो वो भी पीते हैं
हर पल जिनके साथ ज़माना होता है

क्यों लोगों को याद नहीं रहता आलम
इस दुनिया से वापस जाना होता है
-आलम खुर्शीद

Wednesday, June 26, 2013

जब मिटटी खून से गीली हो जाती है
कोई न कोई तह पथरीली हो जाती है

वक़्त बदन के ज़ख्म तो भर देता है लेकिन
दिल के अन्दर कुछ तब्दीली हो जाती है

पी लेता हूँ अमृत जब मैं ज़ह्र के बदले
काया रंगत और भी नीली हो जाती है

मुद्दत में उल्फ़त के फूल खिला करते हैं
पल में नफरत छैल-छबीली हो जाती है

पूछ रहे हैं मुझ से पेड़ों के सौदागर
आब ओ हवा कैसे ज़हरीली हो जाती है

मूरख! उसके मायाजाल से बच के रहना
जब तब उसकी रस्सी ढीली हो जाती है

गूंध रहा हूँ शब्दों को नरमी से लेकिन
जाने कैसे बात नुकीली हो जाती है

दर्द की लहरों को सुर में तो ढालो 'आलम'
बंसी की हर तान सुरीली हो जाती है

-आलम खुर्शीद

Thursday, June 20, 2013

बचपन से तो ग़म खाए हैं, नयनों का जल पीते हैं,
किश्तों किश्तों रोज़ मरे हम टुकड़ा टुकड़ा जीते हैं |
लम्हा लम्हा दिन कटते हैं,पल पल युग सा बीता है,
शिव ने तो इक बार पिया ,हम रोज़ हलाहल पीते हैं|
-आर० सी० शर्मा "आरसी"

Sunday, June 9, 2013

ज़िन्दगी तुझ को जिया है कोई अफ़सोस नहीं
ज़हर ख़ुद मैनें पिया है कोई अफ़सोस नहीं

मैनें मुजरिम को भी मुजरिम न कहा दुनिया में
बस यही जुर्म किया है कोई अफ़सोस नहीं

मेरी क़िस्मत में लिखे थे ये उन्हीं के आँसू
दिल के ज़ख़्मों को सिया है कोई अफ़सोस नहीं

अब गिरे संग कि शीशों की हो बारिश 'फ़ाकिर'
अब कफ़न ओढ़ लिया है कोई अफ़सोस नहीं

(संग = पत्थर)

-सुदर्शन फ़ाकिर






Wednesday, May 29, 2013

कुछ न किसी से बोलेंगे
तन्हाई में रो लेंगे

हम बेरहबरों का क्या
साथ किसी के हो लेंगे

ख़ुद तो हुए रुसवा लेकिन
तेरे भेद न खोलेंगे

जीवन ज़हर भरा साग़र
कब तक अमृत घोलेंगे

नींद तो क्या आयेगी "फ़राज़"
मौत आई तो सो लेंगे
-अहमद फ़राज़

Monday, May 20, 2013

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जितना-जितना आँचल था, उतनी ही सौग़ात मिली

रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली


होंठों तक आते-आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आँखों में, सादा-सी जो बात मिली
-मीना कुमारी 'नाज़'