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Saturday, December 18, 2021

शबनम भीगी घास पे चलना कितना अच्छा लगता है

शबनम भीगी घास पे चलना कितना अच्छा लगता है 
पाँव तले जो मोती बिखरें झिलमिल रस्ता लगता है 

जाड़े की इस धूप ने देखो कैसा जादू फेर दिया 
बेहद सब्ज़ दरख़्तों का भी रंग सुनहरा लगता है 

(सब्ज़ = हरा)

भेड़ें उजली झाग के जैसी सब्ज़ा एक समुंदर सा 
दूर खड़ा वो पर्बत नीला ख़्वाब में खोया लगता है 

जिस ने सब की मैल कसाफ़त धोई अपने हाथों से 
दरिया कितना उजला है वो शीशे जैसा लगता है 

(कसाफ़त = गंदगी, प्रदूषण)

अंदर बाहर एक ख़मोशी एक जलन बेचैनी से 
किस को हम बतलाएँ आख़िर ये सब कैसा लगता है 

शाम लहकते जज़्बों वाली 'फ़िक्री' कब की राख हुई 
चाँद-रू पहली किरनों वाला दर्द का मारा लगता है 

-प्रकाश फ़िक्री

Sunday, August 4, 2019

वो दिल भी जलाते हैं रख देते हैं मरहम भी

वो दिल भी जलाते हैं रख देते हैं मरहम भी
क्या तुर्फ़ा तबीअत है शोला भी हैं शबनम भी

(तुर्फ़ा अनोखा, अजीब)

ख़ामोश न था दिल भी ख़्वाबीदा न थे हम भी
तन्हा तो नहीं गुज़रा तन्हाई का आलम भी

(ख़्वाबीदा =सोया हुआ, सुप्त)

छलका है कहीं शीशा ढलका है कहीं आँसू
गुलशन की हवाओं में नग़मा भी है मातम भी

हर दिल को लुभाता है ग़म तेरी मोहब्बत का
तेरी ही तरह ज़ालिम दिल-कश है तिरा ग़म भी

इंकार-ए-मोहब्बत को तौहीन समझते हैं
इज़हार-ए-मोहब्बत पर हो जाते हैं बरहम भी

(बरहम = नाराज़)

तुम रूक के नहीं मिलते हम झुक के नहीं मिलते
मालूम ये होता है कुछ तुम भी हो कुछ हम भी

पाई न ‘शमीम’ अपने साक़ी की नज़र यकसाँ
हर आन बदलता है मय-ख़ाने का मौसम भी

(यकसाँ = समान, एक जैसा)

- 'शमीम' करहानी

Tuesday, July 9, 2019

ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था
क़ाइल ही तिरी बात का अंदर से नहीं था
-राजेन्द्र मनचंदा बानी

(क़ाइल = सहमत, राज़ी)

Friday, July 5, 2019

गुलों ने ख़ारों के छेड़ने पर, सिवा ख़मोशी के दम न मारा
शरीफ़ उलझें गर किसी से, तो फिर शराफ़त कहाँ रहेगी?

- शाद अज़ीमाबादी

(ख़ार = कांटे)

Wednesday, May 15, 2019

सफ़र के साथ सफ़र की कहानियाँ होंगी

सफ़र के साथ सफ़र की कहानियाँ होंगी
हर एक मोड़ पे जादू-बयानियाँ होंगी

तमाम रास्ता काँटों भरा है सोच भी ले
क़दम क़दम पे यहाँ बद-गुमानियाँ होंगी

बने बनाए हुए रास्तों को ढूँडेंगे
वो जिन के साथ में मुर्दा निशानियाँ होंगी

रगों से दर्द का रिश्ता भी छूट जाएगा
फिर इस के बा'द सुलगती ख़मोशियाँ होंगी

-खलील तनवीर

Saturday, April 13, 2019

मुझी में गूँज रही है मिरे सुख़न की सदा
नवा-ए-गर्म हूँ मैं दश्त-ए-बे-ज़बान में हूँ

(शायरी, कविता, बातें), (सदा = आवाज़), (नवा-ए-गर्म = उत्साहित आवाज़/ गीत), (दश्त-ए-बे-ज़बान = बिना आवाज़ का रेगिस्तान/ जंगल)

'अदीम' बैठा हुआ हूँ परों के ढेर पे मैं
ख़ुश इस तरह हूँ कि जैसे किसी उड़ान में हूँ

-अदीम हाशमी

Friday, February 1, 2019

ज़र्द पत्तों की है चाहत, रंग धानी चाहिये

ज़र्द पत्तों की है चाहत, रंग धानी चाहिये
हर नये किरदार को ताज़ा कहानी चाहिये

कब तलक बैठा रहूँ मैं अपनी ख़ामोशी लिए
अब मेरी तन्हाई से आवाज़ आनी चाहिए

सब गुलों के दोस्त हैं या ख़ुशबुओं के पहरेदार
किसको कांटो की यहाँ पर बागबानी चाहिए

तेरी यादों के सिवा कुछ भी नहीं इस ज़हन में
बेवजह ज़िंदा रखे वो शय भुलानी चाहिए

सोने चांदी की हों या फिर हों मुहब्बत की 'मलंग'
पाँव जो जकड़े वो ज़ंजीरें छुड़ानी चाहिए

- सुधीर बल्लेवार 'मलंग'

Friday, December 28, 2018

ये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी में

ये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी में
किसी को ढूँढते हैं हम किसी में

जो खो जाता है मिल कर ज़िंदगी में
ग़ज़ल है नाम उस का शाएरी में

निकल आते हैं आँसू हँसते हँसते
ये किस ग़म की कसक है हर ख़ुशी में

कहीं चेहरा कहीं आँखें कहीं लब
हमेशा एक मिलता है कई में

चमकती है अंधेरों में ख़मोशी
सितारे टूटते हैं रात ही में

सुलगती रेत में पानी कहाँ था
कोई बादल छुपा था तिश्नगी में

बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी
सलीक़ा चाहिए आवारगी में

-निदा फ़ाज़ली

Monday, January 29, 2018

रफ़्ता रफ़्ता लफ़्ज़ गूँगे हो गए
और गहरी हो गईं ख़ामोशियाँ
-अहमद शनास

Sunday, December 10, 2017

करती है यूँ भी बात मोहब्बत कभी कभी
नज़रें मिलीं न होंट हिले बात हो गई

हम को निगल सकें ये अँधेरों में दम कहाँ
जब चाँदनी से अपनी मुलाक़ात हो गई

-राजेन्द्र नाथ रहबर

Sunday, October 1, 2017

सच के हक़ में खड़ा हुआ जाए

सच के हक़ में खड़ा हुआ जाए
जुर्म भी है तो ये किया जाए

हर मुसाफ़िर में ये शऊर कहाँ
कब रुका जाए कब चला जाए

हर क़दम पर है गुमराही
किस तरफ़ मेरा काफ़िला जाए

बात करने से बात बनती है
कुछ कहा जाए कुछ सुना जाए

राह मिल जाए हर मुसाफ़िर को
मेरी गुमराही काम आ जाए

इसकी तह में हैं कितनी आवाजें
ख़ामोशी को कभी सुना जाए

-हस्तीमल 'हस्ती'

Friday, August 4, 2017

जो दिल पे असर करती ऐसी हो फ़ुग़ाँ कोई

जो दिल पे असर करती ऐसी हो फ़ुग़ाँ कोई
वो दर्द कहाँ ढूंढे है दर्द कहाँ कोई

(फ़ुग़ाँ = आर्तनाद, दुहाई)

ख़ामोश ही रह कर मैं कह डालूंगा अफ़साना
हालात बयां कर दे ऐसी है ज़ुबाँ कोई

अब तक जो गुज़ारी है किस तरह भुलाऊं मैं
मेरी ये कहानी है किरदार रवां कोई

चुपचाप ही मर जाऊँ या दिल की सदा कह दूँ
इस दिल की सदा सुन ले ऐसा है यहाँ कोई

'अरमान' सुलगते दिन सुलगी हैं सभी रातें
मिल जाए क़रार-ए-दिल ऐसा हो समाँ कोई

-अश्वनी त्यागी 'अरमान'

Saturday, November 5, 2016

सिर्फ़ ख़यालों में न रहा कर

सिर्फ़ ख़यालों में न रहा कर
ख़ुद से बाहर भी निकला कर

लब पे नहीं आतीं सब बातें
ख़ामोशी को भी समझा कर

उम्र सँवर जाएगी तेरी
प्यार को अपना आईना कर

जब तू कोई क़लम ख़रीदे
पहले उन का नाम लिखा कर

सोच समझ सब ताक़ पे रख कर
प्यार में बच्चों सा मचला कर

-हस्तीमल 'हस्ती'


sirf ḳhayaalon mein na rahaa kar
khud se baahar bhi niklaa kar

lab pe nahin aatin sab baaten
ḳhaamoshi ko bhi samjhaa kar

umr sanvar jaayegi teri
pyaar ko apnaa aaiina kar

jab tu koi qalam kharide
pahle un kaa naam likhaa kar

soch samajh sab taaq pe rakh kar
pyaar men bachchon saa machlaa kar

-Hastimal Hasti

Saturday, September 24, 2016

सारा ज़माना जब खिलाफ बोलता है

सारा ज़माना जब खिलाफ बोलता है
तो समझ ले के तू साफ़ बोलता है

जो लोग बहुत ख़ामोश रहा करते हैं
ज़माने में उनका औसाफ़ बोलता है

(औसाफ़ = खूबियां)

दफन कर दो इसे तुम चाहे कितना
ज़मीं से निकल के इंसाफ बोलता है

मेरा कोई हुनर शामिल नहीं इसमें
बस लहजे में कोई अस्लाफ बोलता है

(अस्लाफ = पूर्वज)

लाख कोशिश करें हम दूरी मिटाने की
चेहरों से मगर इख़्तिलाफ़ बोलता है

(इख़्तिलाफ़ = मतभेद)

नई है पीढ़ी मुरव्वत से नहीं वाक़िफ़
बेटा अब तो बाप से साफ़ बोलता है

बुरे वक़्त में तूने मदद की हो जिसकी
अक्सर वही तेरे खिलाफ बोलता है

तुम लाख छुपा लो हमसे जुदाई का हाल
हक़ीक़त ये भीगा हुआ गिलाफ बोलता है

(गिलाफ = तकिये का खोल)

-विकास वाहिद

Tuesday, July 26, 2016

ख़ामोश ज़िंदगी जो बसर कर रहे हैं हम
गहरे समंदरों में सफ़र कर रहे हैं हम
‪-रईस अमरोहवी‬

Monday, May 2, 2016

आए कुछ अब्र कुछ शराब आये

आए कुछ अब्र कुछ शराब आये
उसके बाद आए जो अज़ाब आये

(अब्र = बादल), (अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट)

बाम-ए-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साक़ी में आफ़ताब आये

(बाम = छत), (मीना = शराब रखने के पात्र), (माहताब = चन्द्रमा), (दस्त-ए-साक़ी = साक़ी का हाथ), (आफ़ताब = सूरज)

हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो
सामने फिर वो बेनक़ाब आये

उम्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आये

(वरक़ = किताब के पन्ने, पृष्ठ), (मेहर–ओ–वफ़ा = प्यार और वफ़ा), (बाब = किताब का अध्याय, परिच्छेद)

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आये

(ग़म-ए-जहाँ = दुनिया के दुःख)

ना गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में रोज़ यूँ इंक़लाब आये

(सरदारी = अध्यक्षता, स्वामित्व)

जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम
जब भी हम ख़ानाख़राब आए

(बज़्म-ए-ग़ैर = ग़ैर की महफ़िल), (दर-ओ-बाम = दरवाज़े और छत), (ख़ानाख़राब  = अभागा, बदनसीब)

इस तरह अपनी ख़ामोशी गूंजी
गोया हर सिम्त से ज़वाब आये

(गोया = मानो, जैसे), (सिम्त = दिशा, ओर)

'फ़ैज़' की राह सर-ब-सर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे कामयाब आये

(सर-ब-सर = बिलकुल, सरासर)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Mehdi Hassan/ मेहदी हसन 



Begum Akhtar/ बेगम अख़्तर 



Jagjit Singh/ जगजीत सिंह


Runa Laila/ रूना लैला


Thursday, April 21, 2016

ज़िन्दगी है और मैं हूँ

ज़िन्दगी है और मैं हूँ
बस यही है और मैं हूँ

शोर के दोनों सिरों पर
ख़ामुशी है और मैं हूँ

बंद इक कमरे में बैठी
ख़ुदकुशी है और मैं हूँ

शहर में यादों की तेरी
इक नदी है और मैं हूँ

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Wednesday, March 9, 2016

तह-ब-तह है राज़ कोई आब की तहवील में

तह-ब-तह है राज़ कोई आब की तहवील में
ख़ामुशी यूँ ही नहीं रहती है गहरी झील में

(तह-ब-तह = एक के नीचे एक, परत दर परत), (आब = पानी), (तहवील = सपुर्दगी, अमानत, खज़ाना)

मैं ने बचपन में अधूरा ख़्वाब देखा था कोई
आज तक मसरूफ़ हूँ उस ख़्वाब की तकमील में

(मसरूफ़ = मशगूल, काम में लगा हुआ), (तकमील = पूरा होने की क्रिया या भाव, निष्पादन, पूर्ति)

हर घड़ी अहकाम जारी करता रहता है ये दिल
हाथ बांधे मैं खड़ा हूँ हुक्म की तामील में

(अहकाम = हुक्म का बहुवचन, आदेश), (तामील = आज्ञा का पालन)

कब मिरी मर्ज़ी से कोई काम होता है तमाम
हर घड़ी रहता हूँ मैं क्यूँ बेसबब ताजील में

(बेसबब = बिना कारण), (ताजील = जल्दी, शीघ्रता)

मांगती है अब मोहब्बत अपने होने का सुबूत
और मैं जाता नहीं इज़हार की तफ़्सील में

(इज़हार = ज़ाहिर या प्रकट करना), (तफ़्सील = विस्तृत वर्णन, ब्योरा)

मुद्दआ तेरा समझ लेता हूँ तेरी चाल से
तू परेशां है अबस अल्फ़ाज़ की तावील में

(अबस = व्यर्थ, नाहक), (तावील = व्याख्या)

अपनी ख़ातिर भी तो 'आलम' चीज़ रखनी थी कोई
अब कहाँ कुछ भी बचा है तेरी इस ज़म्बील में

(ज़म्बील = थैली, विशेषतः वो थैली जिसमें फ़कीर लोग भीख में मिली हुई चीज़ें रखते हैं)

-आलम खुर्शीद

Wednesday, February 24, 2016

मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में

मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में
एक लहर झूमती है मेरे अंग-अंग में

(मानूस = हिला हुआ, जिसकी घबराहट दूर हो गयी हो, मुहब्बत करने वाला)

ख़ामोश बह रहा था ये दरिया अभी-अभी
देखा मुझे तो आ गई मौजें तरंग में

वुसअत में आसमान भी लगता था कम मुझे
पर ज़िंदगी गुज़र गई इक शहरे-तंग में

(वुसअत = विस्तार)

किरदार क्या है मेरा, यही सोचता हूँ मैं
मर्ज़ी नहीं है, फिर भी मैं शामिल हूँ जंग में

शीशा मिज़ाज हूँ मैं, मगर ये भी खूब है
अपना सुराग ढूँढ़ता रहता हूँ संग में

(संग = पत्थर)

इक-दूसरे से टूट के मिलते तो हैं मगर
मसरूफ़ सारे लोग हैं इक सर्द जंग में

क्या फ़र्क है ये अहले-नज़र ही बताएँगे
कुछ फ़र्क तो ज़रूर है फूलों के रंग में

(अहले-नज़र = निगाह वाले)

- आलम खुर्शीद

Thursday, December 31, 2015

कहानी के कभी अंजाम से आग़ाज़ तक जाएँ

कहानी के कभी अंजाम से आग़ाज़ तक जाएँ
ये ख़्वाहिश है किसी दिन ज़िन्दगी के राज़ तक जाएँ

(अंजाम = अंत, समाप्ति, परिणाम ), (आग़ाज़ = प्रारम्भ)

निकल कर साज़ के तारों से पहुँचेंगे वो ही दिल तक
जो नग़मे दिल के तारों से निकल कर साज़ तक जाएँ

कहा करती है कितनी अनकही बातें ख़मोशी भी
ज़रूरी तो नहीं नाले किसी आवाज़ तक जाएँ

(नाले = आर्तनाद, पुकार, चीत्कार, रुदन, रोना)

हमें फ़ुर्सत ही कब है ज़िन्दगी का बोझ ढोने से
उठाने के लिए जो हम किसी के नाज़ तक जाएँ

फ़लक यूँ तो बस इक परवाज़ की दूरी पे है, लेकिन
हम इन टूटे परों से कैसे उस परवाज़ तक जाएँ

(फ़लक = आसमान), (परवाज़ = उड़ान), (परों = पंखों)

बची है इक यही सूरत जहाँ में अम्न की अब तो
पलटकर तीर अपने अपने तीरअंदाज़ तक जाएँ

(अम्न = शांति, सुकून), (तीरअंदाज़ = तीर चलाने वाला)

किसी एज़ाज़ को आना है तो आएगा ख़ुद हम तक
हम अहल-ए-फ़न हैं क्यों चल कर किसी एज़ाज़ तक जाएँ

(एज़ाज़ = सम्मान, प्रतिष्ठा, इज़्ज़त), (अहल-ए-फ़न = कलाकार, गुणवान, हुनरमंद)

तमन्ना है कभी छू पाएँ 'ग़ालिब' के तख़य्युल को
ये अरमां है किसी दिन 'मीर' के अंदाज़ तक जाएँ

(तख़य्युल = सोच, विचार, कल्पना, खयाल)

-राजेश रेड्डी