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Wednesday, August 14, 2019

हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते

हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते

कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते

आँखों में नमक है तो नज़र क्यूँ नहीं आता
पलकों पे गुहर हैं तो बिखर क्यूँ नहीं जाते

(गुहर = मोती)

अख़बार में रोज़ाना वही शोर है यानी
अपने से ये हालात सँवर क्यूँ नहीं जाते

ये बात अभी मुझ को भी मालूम नहीं है
पत्थर इधर आते हैं उधर क्यूँ नहीं जाते

तेरी ही तरह अब ये तिरे हिज्र के दिन भी
जाते नज़र आते हैं मगर क्यूँ नहीं जाते

(हिज्र = जुदाई)

अब याद कभी आए तो आईने से पूछो
'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते

-महबूब ख़िज़ां

Monday, March 4, 2019

कपड़े सफ़ेद धो के जो पहने तो क्या हुआ
धोना वही जो दिल की सियाही को धोइए

खोया गया है शैख़ क़यामत के वहम में
खोना वही कि आप को आप ही में खोइए

-शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

Monday, February 18, 2019

लुटा दिए थे कभी जो ख़ज़ाने ढूँढते हैं

लुटा दिए थे कभी जो ख़ज़ाने ढूँढते हैं
नए ज़माने में कुछ दिन पुराने ढूँढते हैं

कभी कभी तो ये लगता है मैं वो लम्हा हूँ
कि इक ज़माने से जिस को ज़माने ढूँढते हैं

कुछ एहतियात भी अब के तलब में रखनी पड़ी
सौ उस को और किसी के बहाने ढूँढते हैं

लपक के आते हैं सीने की सम्त तीर ऐसे
परिंदे शाख़ पे जैसे ठिकाने ढूँढते हैं

(सम्त = तरफ़, दिशा की ओर)

हमारी सादा-मिज़ाजी भी क्या क़यामत है
कि अब क़फ़स ही में हम आशियाने ढूँढते हैं

(क़फ़स = पिंजरा)

-मंज़ूर हाशमी

Thursday, May 14, 2015

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया

किसी तरह जो न उस बुत ने ऐतबार किया
मेरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मशार किया

हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया

(शब-ए-वस्ल = मिलन की रात), (अश्क-बार = आँसू बहानेवाला)

ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा, हाए बेक़रार किया

(सर-ए-मज़ार = मज़ार पर)

सुना है तेग को क़ातिल ने आबदार किया
अगर ये सच है तो बे-शुबह हम पे वार किया

(तेग = तलवार), (आबदार = धारदार), (बे-शुबह = बिना शक़)

न आए राह पे वो इज़्ज़ बे-शुमार किया
शब-ए-विसाल भी मैंने तो इन्तिज़ार किया

(इज़्ज़ = नम्रता, विनय), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात)

तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ को उम्मीदवार किया

(वादा-ए-दीदार = दर्शन का वादा)

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआलअन्देश
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया

(ताब = सहनशक्ति, आभा, बल), (मआलअन्देश = दूरदृष्टा)

कहाँ का सब्र कि दम पर है बन आई ज़ालिम
ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आशकार किया

(आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं
आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया

मिले जो यार की शोख़ी से उसकी बेचैनी
तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया

(दिल-ए-मुज़्तरिब = व्याकुल/ बेचैन दिल)

भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
छिपा छिपा के मोहब्बत को आशकार किया

(राज़-ए-निहां = छिपा हुआ रहस्य), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

न उसके दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता
सबा ने ख़ाक़ परेशां मेरा ग़ुबार किया

(सबा = बयार, पुरवाई, हवा)

हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया

(मह्व = निमग्न, तल्लीन), (मह्व-ए-नज़ारा = दृश्य की सुंदरता देखने में तल्लीन), (तग़ाफ़ुल = उपेक्षा, बेरुख़ी)

हमारे सीने में रह गई थी आतिश-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल भी उसको न हम-कनार किया

(आतिश-ए-हिज्र = विरह की चिंगारी), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात), (हम-कनार = बाँहों में भरना)

रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है
वो और इश्क़ भला तुमने एतबार किया

(शेवा-ए-उल्फ़त = प्यार की आदत)

ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह
जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया

(ज़बान-ए-ख़ार = काँटों भरी ज़ुबान), (सदा-ए-बिस्मिल्लाह = ख़ुदा के नाम से शुरू करने की आवाज़), (सर-ए-शोरीदा = उन्मुक्तता)

तेरी निगह के तसव्वुर में हमने ए क़ातिल
लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया

(तसव्वुर = कल्पना, ख़याल)

गज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैंने धोके में
हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया

(कसरत-ए-महफ़िल = सभा की भीड़), (रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी), (हम-कनार = गले लगाना)

हुआ है कोई मगर उसका चाहने वाला
कि आसमां ने तेरा शेवा इख़्तियार किया

(शेवा = आदत, तरीक़ा)

न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया

उन को तर्ज-ए-सितम आ गए तो होश आया
बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होशियार आया

(तर्ज-ए-सितम = अत्याचार, ज़ुल्म करने का तरीक़ा)

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया

(फ़साना-ए-शब-ए-ग़म = दुःख भरी रात की कहानी)

असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही
तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया

(असीरी = क़ैद), (दिल-ए-आशुफ़्ता = आतुर/ बेचैन दिल), (तुर्रा-ए-तर्रार = बल खाए हुए बाल), (तार तार = छिन्न-भिन्न)

कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया

(दावर-ए-महशर = ख़ुदा)

किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बदगुमानी थी
कि डरते डरते खुदा पर भी आशकार किया

(इश्क़-ए-निहाँ = छुपा हुआ प्यार), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे
आख़िर अब मुझे आशोब-ए-रोज़गार किया

(फ़लक = आसमान), (आशोब-ए-रोज़गार = रोज़गार की हलचल/ उपद्रव)

वो बात कर जो कभी आसमां से हो न सके
सितम किया तो बड़ा तूने इफ़्तिख़ार किया

(इफ़्तिख़ार = गौरव, मान)

बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी खाल-ए-सियाह
जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आशकार किया

(मेहर-ए-क़यामत = क़यामत के दिन का सूरज), (खाल-ए-सियाह = काला तिल, Beauty spot), ( 'दाग़'-ए-सियह-रू = शायर के काले चेहरे पर निशान), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

-दाग़


मेहदी हसन/ Mehdi Hasan 
 
 
 
मोहम्मद रफ़ी/ Mohammad Rafi
 
 
पंकज उधास/ Pankaj Udhaas
 
राजकुमारी/ Rajkumaari 
 
कविता कृष्णामूर्ति/ Kavita Krishnamurti 
 
फ़रीदा ख़ानुम/ Fareeda Khanum 
 

Sunday, November 16, 2014

नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी

नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी
किसी की आख़िरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी

(नसीम-ए-सुबह = सुबह की शीतल हवा), (गुलशन = बाग़, बग़ीचा), (गुल = फूल)

 तेरे क़दमों पे सर होगा क़ज़ा सर पे खड़ी होगी
फिर उस सज्दे का क्या कहना अनोखी बंदगी होगी

(क़ज़ा = मौत)

तुम्हें दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी

(दानिस्ता = जान बूझ कर)

मज़ा आ जायेगा महशर में कुछ सुनने सुनाने का
ज़ुबाँ होगी हमारी और कहानी आप की होगी

(महशर = फैसले का दिन, क़यामत का दिन)

सर-ए-महफ़िल बता दूँगा सर-ए-महशर दिखा दूँगा
हमारे साथ तुम होगे ये दुनिया देखती होगी

(सर-ए-महफ़िल = भरी सभा में, सबके सामने), (सर-ए-महशर = क़यामत के दिन)

यही आलम रहा पर्दानशीनों का तो ज़ाहिर है
ख़ुदाई आप से होगी न हम से बंदगी होगी

(आलम = दशा, हालत), (ज़ाहिर = प्रकट)

त'अज्जुब क्या लगी जो आग ऐ 'सीमाब' सीने में
हज़ारों दिल मे अँगारे भरे थे लग गई होगी

-सीमाब अकबराबादी


                                                                 रेशमा/ Reshma 




अज़ीज़ मियाँ/ Aziz Miyan 


जगजीत सिंह/ Jagjit Singh 

Tuesday, November 4, 2014

ये जफ़ा-ए-ग़म का चारा, वो नजात-ए-दिल का आलम

ये जफ़ा-ए-ग़म का चारा, वो नजात-ए-दिल का आलम
तेरा हुस्न दस्त-ए-ईसा, तेरी याद रू-ए-मरीयम

(जफ़ा-ए-ग़म = दुःख का सितम/ अत्याचार/ अन्याय),
(चारा = उपाय, तरक़ीब),
(नजात-ए-दिल = दिल से छुटकारा),  
(आलम = अवस्था, दशा, हालत), 
(दस्त-ए-ईसा = ईसा मसीह हाथ - जो सब घाव भर देता था),
(रू-ए-मरीयम = माँ मरियम की आत्मा - पावन, शुद्ध)

दिल-ओ-जाँ फ़िदा-ए-राहें, कभी आ के देख हमदम
सर-ए-कू-ए-दिलफ़िगारां, शब-ए-आरज़ू का आलम

(दिल-ओ-जाँ फ़िदा-ए-राहें = दिल और जान दोनों रास्ते पर न्यौछावर कर दिए),
(सर-ए-कू-ए-दिलफ़िगारां = दिल की सारी गलियां घायल हैं),
(शब-ए-आरज़ू = इच्छाओं की रात),
(आलम = अवस्था, दशा, हालत)

तेरी दीद से सिवा है, तेरे शौक में बहाराँ
वो चमन जहाँ गिरी है, तेरी गेसूओं की शबनम

(दीद= दर्शन, दीदार), (चमन = बग़ीचा), (गेसू = बाल, ज़ुल्फ़ें), (शबनम = ओस)

(तेरी दीद से सिवा है, तेरे शौक में बहाराँ = वो बहार जिसे तुझे देखने की इच्छा है उसे भी तेरा दीदार नहीं हो रहा है)

लो सुनी गयी हमारी, यूँ फिरे हैं दिन कि फिर से

वही गोशा-ए-क़फ़स है, वही फ़स्ल-ए-गुल का मातम

(गोशा-ए-क़फ़स = पिंजरे का कोना), (फ़स्ल-ए-गुल = बसंत ऋतु, बहार मौसम),  (आलम = अवस्था, दशा, हालत)

ये अजब क़यामतें हैं, तेरी रहगुज़र से गुज़रा
न हुआ कि मर मिटे हम, न हुआ कि जी उठे हम

(रहगुज़र = राह, पथ)

- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

आबिदा परवीन/ Abida Parveen

Sunday, December 1, 2013

सुना है वो हमें भुलाने लगे है
तो क्या हम उन्हे याद आने लगे है

हटाए थे जो राह से दोस्तों की
तो पत्थर मेरे घर में आने लगे है

ये कहना था उनसे मुहब्ब्त है मुझको
ये कहने में मुझको ज़माने लगे है

क़यामत यकीनन करीब आ गई है
"ख़ुमार" अब तो मस्ज़िद में जाने लगे है
-ख़ुमार बाराबंकवी

Wednesday, October 23, 2013

वस्ल हो जाय यहीं, हश्र में क्या रक्खा है ?
आज की बात को क्यों कल पे उठा रक्खा है ?

तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाय
सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है
-अमीर मीनाई

[(वस्ल = मिलन), (हश्र = क़यामत)]
क़रीब है यार रोज़-ए-महशर, छुपेगा कुश्तों का ख़ून कब तक?
जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर, लहू पुकारेगा आस्तीं का
-अमीर मीनाई

[(रोज़-ए-महशर = क़यामत/ प्रलय का दिन), (कुश्तों = जिन्होंने बलिदान दिया हो)]

Sunday, August 11, 2013

ज़ख़्म को फूल, तो सरसर को सबा कहते हैं
जाने क्या दौर है, क्या लोग हैं, क्या कहते हैं

[(सरसर = आँधी), (सबा = पुरवाई, शीतल हवा, मंद समीर)]

क्या क़यामत है, के जिन के लिये, रुक रुक के चले
अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं

(आबला-पा = छाले वाले पाँव)

कोई बतलाओ के इक उम्र का बिछड़ा महबूब
इत्तेफ़ाक़न कहीं मिल जाये तो क्या कहते हैं

ये भी अन्दाज़-ए-सुख़न है के जफ़ा को तेरी
ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अन्दाज़-ओ-अदा कहते हैं

(अन्दाज़-ए-सुख़न = बात कहने का अंदाज़), (जफ़ा  = जुल्म, अत्याचार), (ग़म्ज़ा = प्रेमिका का नखरा और हाव-भाव), (इश्वा = सुन्दर स्त्री का हाव-भाव), (ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अन्दाज़-ओ-अदा = नखरे, अंदाज़ और अदा)

जब तलक दूर है तू, तेरी परस्तिश कर लें
हम जिसे छू न सकें, उस को ख़ुदा कहते हैं

(परस्तिश = पूजा, आराधना)

क्या त'अज्जुब है, के हम अह्ल-ए-तमन्ना को, फ़राज़
वो जो, महरूम-ए-तमन्ना हैं, बुरा कहते हैं

(अह्ल-ए-तमन्ना = इच्छुक लोग), (महरूम-ए-तमन्ना = इच्छा से रहित)

-अहमद फ़राज़

Tuesday, April 30, 2013

बह रहा है कुफ़्र का दरिया कुछ इस अंदाज़ से,
जैसे इस में कोई कश्ती आज तक डूबी न हो।

(कुफ़्र = कृतघ्नता, अकृतज्ञता)

देखना है कौनसी ऐसी क़यामत आएगी,
जो क़यामत हम ग़रीबों ने कभी देखी न हो।
-कँवल ज़ियाई

Sunday, December 23, 2012

नज़र जिसकी  तरफ करके निगाहें  फेर लेते  हो,
क़यामत तक कभी उस दिल की परेशानी नहीं जाती।
-आनन्द नारायण मुल्ला

Wednesday, November 21, 2012

सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ

(शब-ए-फ़ुरक़त = जुदाई की रात)

तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ

अगर मुम्किन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ

हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ

ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत
तेरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ

भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ

तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ

मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ

ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ

-फ़िराक़ गोरखपुरी

Friday, October 12, 2012

भांप ही लेंगे इशारा सर-ऐ-महफ़िल जो किया,
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं.
-जौहर फारुखाबादी

 

Tuesday, October 2, 2012

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा

इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा

[(मानूस = आत्मीय); (ख़िल्वत-ए-ग़म = अकेलेपन का ग़म)]

तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा

[(सर-ए-राह-ए-वफ़ा = प्यार का रास्ता); (बाम-ए-रफ़ाक़त = दोस्ती/ निष्ठा की छत, प्यार की जवाबदारी )]

ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा

(अता = दान)

डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा

-अहमद फ़राज़
Source: http://gunche.blogspot.in

Friday, September 28, 2012

आये हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊं,
मानो, कि हमेशा नहीं अच्छा, कोई दिन और।

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,
क्या खूब, क़यामत का है गोया कोई दिन और।

नांदा हो, जो कहते हो, कि क्यों जीते होग़ालिब
क़िस्मत में है, मरने की तमन्ना कोई दिन और।
-
मिर्जा ग़ालिब

Thursday, September 27, 2012

ग़ज़ब किया तेरे वादे पे एतबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतज़ार किया
-दाग़ देहलवी