ये जफ़ा-ए-ग़म का चारा, वो नजात-ए-दिल का आलम
तेरा हुस्न दस्त-ए-ईसा, तेरी याद रू-ए-मरीयम
(जफ़ा-ए-ग़म = दुःख का सितम/ अत्याचार/ अन्याय),
(चारा = उपाय, तरक़ीब),
(नजात-ए-दिल = दिल से छुटकारा), (आलम = अवस्था, दशा, हालत), (दस्त-ए-ईसा = ईसा मसीह हाथ - जो सब घाव भर देता था),
(रू-ए-मरीयम = माँ मरियम की आत्मा - पावन, शुद्ध)
दिल-ओ-जाँ फ़िदा-ए-राहें, कभी आ के देख हमदम
सर-ए-कू-ए-दिलफ़िगारां, शब-ए-आरज़ू का आलम
(दिल-ओ-जाँ फ़िदा-ए-राहें = दिल और जान दोनों रास्ते पर न्यौछावर कर दिए),
(सर-ए-कू-ए-दिलफ़िगारां = दिल की सारी गलियां घायल हैं),
(शब-ए-आरज़ू = इच्छाओं की रात), (आलम = अवस्था, दशा, हालत)
तेरी दीद से सिवा है, तेरे शौक में बहाराँ
वो चमन जहाँ गिरी है, तेरी गेसूओं की शबनम
(तेरी दीद से सिवा है, तेरे शौक में बहाराँ = वो बहार जिसे तुझे देखने की इच्छा है उसे भी तेरा दीदार नहीं हो रहा है)
लो सुनी गयी हमारी, यूँ फिरे हैं दिन कि फिर से
वही गोशा-ए-क़फ़स है, वही फ़स्ल-ए-गुल का मातम
(गोशा-ए-क़फ़स = पिंजरे का कोना), (फ़स्ल-ए-गुल = बसंत ऋतु, बहार मौसम), (आलम = अवस्था, दशा, हालत)
ये अजब क़यामतें हैं, तेरी रहगुज़र से गुज़रा
न हुआ कि मर मिटे हम, न हुआ कि जी उठे हम
(रहगुज़र = राह, पथ)
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आबिदा परवीन/ Abida Parveen
Sunday, December 1, 2013
सुना है वो हमें भुलाने लगे है
तो क्या हम उन्हे याद आने लगे है
हटाए थे जो राह से दोस्तों की
तो पत्थर मेरे घर में आने लगे है
ये कहना था उनसे मुहब्ब्त है मुझको
ये कहने में मुझको ज़माने लगे है
क़यामत यकीनन करीब आ गई है
"ख़ुमार" अब तो मस्ज़िद में जाने लगे है
-ख़ुमार बाराबंकवी
Wednesday, October 23, 2013
वस्ल हो जाय यहीं, हश्र में क्या रक्खा है ?
आज की बात को क्यों कल पे उठा रक्खा है ?
तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाय
सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है
-अमीर मीनाई
[(वस्ल = मिलन), (हश्र = क़यामत)]
क़रीब है यार रोज़-ए-महशर, छुपेगा कुश्तों का ख़ून कब तक?
जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर, लहू पुकारेगा आस्तीं का
-अमीर मीनाई
[(रोज़-ए-महशर = क़यामत/ प्रलय का दिन), (कुश्तों = जिन्होंने बलिदान दिया हो)]
Sunday, August 11, 2013
ज़ख़्म को फूल, तो सरसर को सबा कहते हैं
जाने क्या दौर है, क्या लोग हैं, क्या कहते हैं
क्या क़यामत है, के जिन के लिये, रुक रुक के चले
अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं
(आबला-पा = छाले वाले पाँव)
कोई बतलाओ के इक उम्र का बिछड़ा महबूब
इत्तेफ़ाक़न कहीं मिल जाये तो क्या कहते हैं
ये भी अन्दाज़-ए-सुख़न है के जफ़ा को तेरी
ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अन्दाज़-ओ-अदा कहते हैं
(अन्दाज़-ए-सुख़न = बात कहने का अंदाज़), (जफ़ा = जुल्म, अत्याचार), (ग़म्ज़ा = प्रेमिका का नखरा और हाव-भाव), (इश्वा = सुन्दर स्त्री का हाव-भाव), (ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अन्दाज़-ओ-अदा = नखरे, अंदाज़ और अदा)
जब तलक दूर है तू, तेरी परस्तिश कर लें
हम जिसे छू न सकें, उस को ख़ुदा कहते हैं
(परस्तिश = पूजा, आराधना)
क्या त'अज्जुब है, के हम अह्ल-ए-तमन्ना को, फ़राज़
वो जो, महरूम-ए-तमन्ना हैं, बुरा कहते हैं
(अह्ल-ए-तमन्ना = इच्छुक लोग), (महरूम-ए-तमन्ना = इच्छा से रहित)
-अहमद फ़राज़
Tuesday, April 30, 2013
बह रहा है कुफ़्र का दरिया कुछ इस अंदाज़ से,
जैसे इस में कोई कश्ती आज तक डूबी न हो।
(कुफ़्र = कृतघ्नता, अकृतज्ञता)
देखना है कौनसी ऐसी क़यामत आएगी,
जो क़यामत हम ग़रीबों ने कभी देखी न हो।
-कँवल ज़ियाई
Sunday, December 23, 2012
नज़र जिसकी तरफ करके निगाहें फेर लेते हो, क़यामत तक कभी उस दिल की परेशानी नहीं जाती। -आनन्द नारायण मुल्ला
Wednesday, November 21, 2012
सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ
(शब-ए-फ़ुरक़त = जुदाई की रात)
तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ
अगर मुम्किन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ
हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ
ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत
तेरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ
भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ
ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ
-फ़िराक़ गोरखपुरी
Friday, October 12, 2012
भांप ही लेंगे इशारा सर-ऐ-महफ़िल जो किया, ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं. -जौहर फारुखाबादी
Tuesday, October 2, 2012
आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा
इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा
[(मानूस = आत्मीय); (ख़िल्वत-ए-ग़म = अकेलेपन का ग़म)]
तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा
[(सर-ए-राह-ए-वफ़ा = प्यार का रास्ता); (बाम-ए-रफ़ाक़त = दोस्ती/ निष्ठा की छत, प्यार की जवाबदारी )]
ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा
(अता = दान)
डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा