Wednesday, October 23, 2013

क़रीब है यार रोज़-ए-महशर, छुपेगा कुश्तों का ख़ून कब तक?
जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर, लहू पुकारेगा आस्तीं का
-अमीर मीनाई

[(रोज़-ए-महशर = क़यामत/ प्रलय का दिन), (कुश्तों = जिन्होंने बलिदान दिया हो)]

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