क़रीब है यार रोज़-ए-महशर, छुपेगा कुश्तों का ख़ून कब तक?
जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर, लहू पुकारेगा आस्तीं का
-अमीर मीनाई
[(रोज़-ए-महशर = क़यामत/ प्रलय का दिन), (कुश्तों = जिन्होंने बलिदान दिया हो)]
जो चुप रहेगी ज़बान-ए-ख़ंजर, लहू पुकारेगा आस्तीं का
-अमीर मीनाई
[(रोज़-ए-महशर = क़यामत/ प्रलय का दिन), (कुश्तों = जिन्होंने बलिदान दिया हो)]
No comments:
Post a Comment