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Saturday, April 27, 2019

आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें
हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं
-साहिर लुधियानवी

Tuesday, November 8, 2016

एक मुलाक़ात

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल, लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं
ये जान कर तुझे जाने कितना ग़म पहुँचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

किसी की हो के तू इस तरह मेरे घर आई
कि जैसे फिर कभी आए तो घर मिले न मिले
नज़र उठाई, मगर ऐसी बे-यकीनी से
कि जिस तरह कोई पेशे-नज़र मिले न मिले
तू मुस्कुराई, मगर मुस्कुरा के रुक सी गई
कि मुस्कुराने से ग़म की खबर मिले न मिले
रुकी तो ऐसे, कि जैसे तिरी रियाज़त को
अब इस समर से ज़ियादा समर मिले न मिले
गई तो सोग में डूबे क़दम ये कह के गए
सफ़र है शर्त, शरीके-सफ़र मिले न मिले

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल,लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं
ये जान कर तुझे क्या जाने कितना ग़म पहुंचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

-साहिर लुधियानवी


(पेशे-नज़र = नज़र/ आँखों के सामने), (रियाज़त = तपस्या, साधना), (समर = फल, नतीजा), (शरीके-सफ़र = सहयात्री, यात्रा का साथी)

Tuesday, October 25, 2016

ना मुँह छुपा के जियो और ना सर झुका के जियो

ना मुँह छुपा के जियो और ना सर झुका के जियो
ग़मों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो

घटा में छुप के सितारे फ़ना नहीं होते
अंधेरी रात के दिल में दीये जला के जियो

ना जाने कौन सा पल मौत की अमानत हो
हर एक पल की ख़ुशी को गले लगा के जियो

ये ज़िन्दगी किसी मंज़िल पे रूक नहीं सकती
हर इक मक़ाम से आगे क़दम बढ़ा के जियो

-साहिर लुधियानवी


न मुँह छुपा के जिये हम न सर झुका के जिये
सितमगरों की नज़र से नज़र मिला के जिये
अब एक रात अगर कम जिये तो कम ही सही
यही बहुत है कि हम मिशअलें जला के जिये
-साहिर लुधियानवी
(मिशअलें = मशालें)

na muñh chhupā ke jiye ham na sar jhukā ke jiye
sitamgaroñ kī nazar se nazar milā ke jiye
ab ek raat agar kam jiye to kam hī sahī
yahī bahut hai ki ham mish.aleñ jalā ke jiye
-Sahir Ludhianvi



Na munh chhupaa ke jio, aur naa sar jhukaa ke jio
Gamon kaa daur bhi aaye to muskuraa ke jio

Ghataa mein chhup ke sitaare fanaa nahin hote
Andheri raat ke dil mein diye jalaa ke jio

Na jaane kaun saa pal maut ki amaanat ho
Har ek pal ki khushi ko gale lagaa ke jio

Ye zindagi kisi manzil pe ruk nahin sakati
Har ek makaam se aage kadam badhaa ke jio

-Sahir Ludhianvi

Sunday, September 25, 2016

ख़ून अपना हो या पराया हो

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर

(नस्ल-ए-आदम = इंसान का वंश), (मग़रिब = पश्चिम), (मशरिक = पूर्व),(अम्न-ए-आलम = दुनिया की शांति)

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

(रूह-ए-तामीर = आत्मा का निर्माण), (ज़ीस्त = जीवन)

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

-साहिर लुधियानवी

Friday, November 13, 2015

संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है

संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है
इक धुँध से आना है इक धुँध में जाना है

(फ़साना = विवरण, हाल), (शय = वस्तु, चीज़)

ये राह कहाँ से है ये राह कहाँ तक है
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है

इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया
इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है

क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते
इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है

हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का
जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है

-साहिर लुधियानवी



 

Tuesday, October 27, 2015

जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है

जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है
मरो तो ऐसे कि जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं |

ये  एक  राज़  के दुनिया न जिसको जान  सकी
यही वो राज़ है जो ज़िंदगी का  हासिल  है,
तुम्हीं  कहो  तुम्हे ये बात कैसे  समझाऊँ
कि ज़िंदगी  की  घुटन ज़िंदगी की कातिल  है,
हर  इक  निगाह  को  कुदरत का  ये इशारा है
जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है ।

जहां में आ के जहां से खिचें-खिचें न रहो
वो  ज़िंदगी  ही  नही  जिसमें  आस  बुझ  जाए,
कोई भी प्यास दबाये से दब नहीं सकती
इसी  से  चैन  मिलेगा  कि प्यास  बुझ  जाए,
ये  कह के मुड़ता  हुआ  ज़िंदगी  का  धारा  है
जियो तो  ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है

ये  आसमां, ये ज़मीं, ये फ़िज़ा, ये नज़्ज़ारे
तरस  रहे  हैं  तुम्हारी मेरी नज़र  के लिए
नज़र चुरा  के हर इक शै को  यूं  न ठुकराओ
कोई  शरीक-ए-सफ़र  ढूँढ़ लो सफ़र के लिए
बहुत  करीब  से  मैंने  तुम्हें  पुकारा  है
जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है ।

-साहिर लुधियानवी



Thursday, February 26, 2015

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया

साहिर लुधियानवी, जयदेव और विजय आनंद एक दूसरे के अच्छे मित्र थे। बात सन् 1961 से भी पहले की है। दिन भर के काम के बाद बैठे थे तीनों यूँ ही थकान उतारने। गप-शप के बीच जयदेव ने सैफ़ुद्दीन सैफ़ का ये शेर सुनायाः

"हम को तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया"

शेर सुना कर जयदेव ने साहिर से कहा कि इस शेर को कहने वाला शायर एक प्रश्न छोड़ गया है और तुम्हें उसका जवाब देना है। साहिर भी कम नहीं थे। उन्होंने जवाब देने के लिये उस बैठक में ही एक पूरी गजल बना डाली और जयदेव को सुनाई जो इस प्रकार हैः

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया

हम तो समझे थे कि हम भूल गये हैं उनको
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया

किस लिये जीते हैं हम किसके लिये जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया

जयदेव ने उनके इस ग़ज़ल की खूब तारीफ़ की और कहा कि वे इसके लिये एक अच्छी सी धुन अवश्य बनायेंगे। विजय आनंद ने भी साहिर से कहा कि वे इस गीत को अपने निर्देशन वाली किसी न किसी फिल्म में अवश्य लेंगे। कुछ दिनों बाद ही विजय आनंद को फिल्म हम दोनों के निर्देशन का काम सौंपा गया और अपने वादे के मुताबिक उन्होंने उस फिल्म में गीत को ले लिया। तो इस प्रकार बातों बातों में ही बन गयी थी ये ग़ज़ल!

નિમિશ પંડ્યા जी के सौजन्य से


Saturday, November 8, 2014

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलनेवाले हैं
-साहिर लुधियानवी

(बर्क़ = बिजली)


Tuesday, January 7, 2014

किसको बताएं कैसे बताएं
आज अजब है दिल का आलम
चैन भी है कुछ हल्का हल्का
दर्द भी है कुछ मद्धम मद्धम
-साहिर लुधियानवी

Monday, January 6, 2014

तुम दूर हो तो मौत भी आए न हमको रास
तुम पास हो तो जान भी दे दें ख़ुशी से हम
-साहिर लुधियानवी

Saturday, July 13, 2013

अपने सीने से लगाये हुये उम्मीद की लाश
मुद्दतों ज़ीस्त को नाशाद किया है मैनें
तूने तो एक ही सदमे से किया था दो चार
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैनें
जब भी राहों में नज़र आये हरीरी मलबूस
सर्द आहों से तुझे याद किया है मैनें

[(जीस्त = ज़िंदगी), (नाशाद = ग़मग़ीन, उत्साहहीन), (हरीरी मलबूस = रेशमा कपड़े का टुकड़ा)]

और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
एक सुनसान सी मग़्मूम घटा छाई है
तू दमकते हुए आरिज़ की शुआएं लेकर
गुलशुदा शम्मएँ जलाने को चली आई है

[(आरिज़ = गाल), (शुआएं = किरणे) ]

मेरी महबूब ये हन्गामा-ए-तजदीद-ए-वफ़ा
मेरी अफ़सुर्दा जवानी के लिये रास नहीं
मैं ने जो फूल चुने थे तेरे क़दमों के लिये
उन का धुंधला-सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं

[(तज़दीद = पुनरोद्भव, फिर से जाग उठना),  (अफ़सुर्दा = मुरझाई हुई, कुम्हलाई हुई), (तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद)]

एक यख़बस्ता उदासी है दिल-ओ-जाँ पे मुहीत
अब मेरी रूह में बाक़ी है न उम्मीद न जोश
रह गया दब के गिराँबार सलासिल के तले
मेरी दरमान्दा जवानी की उमंगों का ख़रोश

(यख़बस्ता = जमी हुई), (मुहीत = घेरे हुए), (गिराँबार = तनी हुई, कसी हुई), (सलासिल = ज़ंजीर), (दरमान्दा = असहाय, बेसहारा)

-साहिर लुधियानवी
मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली
तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं

चार दिन की ये रफ़ाक़त जो रफ़ाक़त भी नहीं
उम्र भर के लिए आज़ार हुई जाती है
ज़िन्दगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर सांस गिरांबार हुई जाती है

[(रफ़ाक़त = मित्रता, मेलजोल), (आज़ार = दुःख, कष्ट), (गिरांबार = बोझ)]

मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख़्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आती है
कभी इख़लास की मूरत कभी हरजाई है

[(शबिस्तान = रात को रहने का स्थान, शयनगार), (पैकर = चेहरा, मुख), (इख़लास = दोस्ती, मित्रता)]

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं
तूने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओ का इज़हार करूं या न करूं

तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज़ की क़सम
तेरी पलकें मेरी आंखों पे झुकी रहती हैं

(आरिज़ = गाल)

तेरे हाथों की हरारत तेरे सांसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूंढती रहती हैं तख़ईल की बाहें तुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तनहाई में

(पहनाई = विस्तार, विशालता), (तख़ईल = ख्याल, सोच)

तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर
ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो

(अल्ताफ़-ओ-करम = कृपा और मेहरबानियाँ)

कौन जाने मेरी इम्रोज़ का फ़र्दा क्या है
क़ुबर्तें बढ़ के पशेमान भी हो जाती है
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें
देखते देखते अंजान भी हो जाती है

[(इम्रोज़ = आज), (फ़र्दा = आने वाला दिन), (क़ुबर्तें = नजदीकियां), (पशेमान = शर्मिंदा)]

मेरी दरमांदा जवानी की तमाओं के
मुज़महिल ख़्वाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलिस्ता भी है, वीराने भी
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझको

[(दरमांदा = थका हुआ, शिथिल), (तमाओं = इच्छाओं), (मुज़महिल = शिथिल, थक हुआ), (ताबीर = परिणाम, फल)]

-साहिर लुधियानवी

Thursday, June 27, 2013

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है , बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है , टपकेगा तो जम जाएगा

ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क-ए-इन्साफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
तेग़-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा

[(ख़ाक-ए-सहरा = मरुस्थल की रेत), (कफ़-ए-क़ातिल = हत्यारे की हथेली), (फ़र्क-ए-इन्साफ़ = न्याय के सिर),  (पा-ए-सलासिल = बेड़ियों के पैरों पर), (तेग़-ए-बेदाद = अत्याचार की तलवार), (लाश-ए-बिस्मिल = घायल देह)]

लाख बैठे कोई छुप छुप के कमींगाहों में
ख़ून ख़ुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग़
साजिशें लाख उढ़ाती रहें ज़ुल्मत का नक़ाब
लेके हर बूँद निकलती है हथेली पे चिराग़

[(कमींगाहों = वह स्थान जहां से छुपकर वार किया जाए), (जल्लाद = कसाई), (मस्कन = ठिकाना, रहने की जगह), (सुराग़ = पता), (ज़ुल्मत = अँधेरा)]

ज़ुल्म की किस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुसवा से कहो
जब्र की हिक्मत-ए-पुरकार के ईमा से कहो
महमिले-मजलिसे-अक़वाम की लैला से कहो
ख़ून दीवाना है, दामन पे लपक सकता है
शोलए-तुंद है , ख़िरमन पे लपक सकता है

[(किस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुसवा =  व्यर्थ और अपमानित भाग्य), (जब्र = क्रूरता), (हिक्मत-ए-पुरकार के ईमा = चतुरतापूर्ण उपाय), (महमिले-मजलिसे-अक़वाम की लैला = संयुक्त राष्ट्र संघ), (शोलए-तुंद= भीषण ज्वाला), (ख़िरमन = अन्न का ढेर)]

तुम ने जिस ख़ून को मक़तल में दबाना चाहा
आज वो कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बन के
ख़ून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
सर जो उठता है तो दबता नहीं आईनों से

[(मक़तल = वधस्थल), (आईन = विधान, क़ानून)]

ज़ुल्म की बात ही क्या, ज़ुल्म की औकात ही क्या
ज़ुल्म बस ज़ुल्म है , आग़ाज़ से अंजाम तलक
ख़ून फिर ख़ून है , सौ शक्ल बदल सकता है-
ऐसी शक्लें के मिटाओ तो मिटाए न बने
ऐसे शोले, कि बुझाओ तो बुझाए न बने
ऐसे नारे, कि दबाओ तो दबाये न बने ।

(आग़ाज़ से अंजाम = आरंभ से अंत तक)

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है , बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है , टपकेगा तो जम जाएगा

-साहिर लुधियानवी 
चंद कलियां निशात की चुनकर
मुद्दतों महवे यास रहता हूं

(निशात = आनंद), (महवे यास = निराशा में तल्लीन)

तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही
तुझ से मिलकर उदास रहता हूं
-साहिर लुधियानवी
ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ा न कर सके
हम अपने जौहरों को नुमायाँ न कर सके

[(अर्ज़ा = सस्ता), (जौहर = गुण, दक्षता),  (नुमायाँ = व्यक्त, ज़ाहिर)]

होकर ख़राब-ए-मय तेरे ग़म तो भुला दिये
लेकिन ग़म-ए-हयात का दर्मा न कर सके

[(ग़म-ए-हयात = जीवन का दुःख), (दर्मा = उपचार, चिकित्सा, इलाज)]

टूटा तलिस्म-ए-अहद-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह
फिर आरज़ू की शमा फ़ुरोजां न कर सके

[(तलिस्म-ए-अहद-ए-मोहब्बत = प्यार के इकरार का जादू), (फ़ुरोजां = प्रकाशमान, रौशन)]

हर शय क़रीब आ के कशिश अपनी खो गई
वो भी इलाज-ए-शौक़-ए-गुरेज़ाँ न कर सके

[(शय = वस्तु, चीज़), (इलाज-ए-शौक़-ए-गुरेज़ाँ = चाहत के इलाज से बचकर निकलना)]

किस दरजा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमाँ न कर सके

मायूसियों ने छीन लिये दिल के वल-वले
वो भी निशात-ए-रूह का सामाँ न कर सके

(निशात-ए-रूह = आत्मिक आनंद)
-साहिर लुधियानवी

Wednesday, June 12, 2013

नज्रे साहिर (साहिर लुधियानवी को समर्पित)

यूँ वो जुल्मत से रहा दस्तो-गरेबाँ यारो
उस से लरजाँ थे बहुत शब के निगहबाँ यारो

[(जुल्मत = अंधकार), (दस्तो-गरेबाँ = संघर्ष करता हुआ), (लरजाँ=कंपित /थरथराते हुए), (निगहबाँ=रक्षक)]

उस से हर गाम दिया हौसले -ताज़ा हमें
वो न इक पल भी रहा हमसे गुरेजाँ यारो

[(गाम = डग, कदम, पग), (हौसले -ताज़ा= नया हौसला), (गुरेजाँ =भागा हुआ, बचकर निकलने वाला)]

उसने मानी न कभी तीरगी-ए-शब से शिकस्त
दिल अँधेरों में रहा उसका फ़रोज़ाँ यारो

[(तीरगी-ए-शब= रात का अँधेरा), (फ़रोज़ाँ= प्रकाशमान, रौशन)]

उसको हर हाल में जीने की अदा आती थी
वो न हालात से होता था परीशाँ यारो

उसने बातिल से न ता-जीस्त किया समझौता
दहर में उस सा कहाँ साहिबो-ईमाँ यारो

[(बातिल = असत्य), (ता-जीस्त = जीवन भर), (साहिबो-ईमाँ = ईमान वाला)]

उसको थी कश्मकशे-दैरो-हरम से नफ़रत
उस सा हिन्दू न कोई उस सा मुसलमाँ यारो

(कश्मकशे-दैरो-हरम = मंदिर मस्जिद के झगड़े)

उसने सुल्तानी-ए-जम्हूर के नग्मे लिखे
रूह शाहों की रही उससे परीशाँ यारो

(सुल्तानी-ए-जम्हूर = आम जनता की बादशाहत)

अपने अशआर की शमाओं से उजाला करके
कर गया शब का सफ़र कितना वो आसाँ यारो

उसके गीतों से ज़माने को सँवारे, आओ
रुहे-साहिर को अगर करना है शादाँ यारो

(शादाँ =प्रसन्न)

-हबीब जालिब 

Saturday, April 20, 2013

भड़का रहे हैं आग लबे-नग़मा-गर से हम,
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम ।

(लबे-नग़मा-गर = गायनरत होंठ)

ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है,
क्यों देखें ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम ।

देगा किसी मक़ाम पे ख़ुद राहज़न का साथ,
ऐसे भी बदगुमान न थे राहबर से हम।

माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके,
कुछ ख़ार कम तो कर गये गुज़रे जिधर से हम।

[(गुलज़ार = बाग़, बगीचा, हरा-भरा, आनंद और शोभायुक्त), (ख़ार = कांटे)]

-साहिर लुधियानवी



Thursday, November 15, 2012

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है!

कि ज़िंदगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में,
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी।
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है,
तेरी नज़र की शुआयों में खो भी सकती थी।

 [(शादाब = हरी-भरी), (तीरगी = अंधेरा, अंधकार), (ज़ीस्त = जीवन, ज़िंदगी), (शुआअ = सूर्य की किरण, रश्मि)]

अजब ना था कि मैं बेगाना-ऐ-अलम रहकर,
तेरे जमाल की रानाइयों में खो रहता।
तेरा गुदाज़ बदन, तेरी नीमबाज़ आंखें,
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता।

[(बेगाना-ऐ-अलम = दुखों से अपरिचित), (जमाल = सौंदर्य), (रानाई/ रअनाई = बनाव-श्रृंगार), (गुदाज़ = मृदुल, मांसल), (नीमबाज़ = अधखुली), (महव = निमग्न, तल्लीन)]

पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने की,
तेरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता।
हयात चीखती फिरती बरहना-सर और मैं,
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साए में छुप के जी लेता।

[(तल्खियां = कटुताएं), (हलावत = माधुर्य, रस), (हयात = जीवन), (बरहना-सर = नंगे सिर)]

मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है,
कि तू नहीं, तेरा ग़म ,तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं।

[(आलम = स्थिति), (जुस्तजू = तलाश, खोज), (आरज़ू = इच्छा)]

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले,
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों से।
मुहीब साए मेरी सिम्त बढ़ते आते हैं,
हयात-ओ-मौत के पुरहौल खारज़ारों से।

[(मुहीब = भयानक), (सिम्त = ओर, तरफ), (हयात-ओ-मौत = जीवन और मृत्यु), (पुरहौल खारज़ारों से = भयावह कंटीले जंगलों से)]

न कोई जादा, न मंज़िल, न रौशनी का सुराग़,
भटक रही है ख़लाओं में ज़िंदगी मेरी।
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊंगा कभी खो कर,
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर यूंही,
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है!

[(जादा = पगडंडी, मार्ग), (ख़लाओं में = शून्य में), (हमनफ़स = साथी, मित्र, सहचर)]


-साहिर लुधियानवी



Wednesday, October 24, 2012

मायूस तो हूँ वादे से तेरे
कुछ आस नहीं कुछ आस भी है

मैं अपने ख़्यालों के सदके
तू पास नहीं और पास भी है

हमने तो ख़ुशी माँगी थी मगर
जो तूने दिया अच्छा ही दिया

जिस ग़म का तआल्लूक़ हो तुझसे
वो रास नहीं और रास भी है

पलकों से लरजते अश्क़ों से
तस्वीर झलकती है तेरी

दीदार की प्यासी आँखों को
अब प्यास नहीं और प्यास भी है
-साहिर लुधियानवी

Friday, October 12, 2012

मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया,
हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया ।
नफरत जो सिखाये वह धर्म तेरा नहीं है,
इंसान को रौंदे वह कदम तेरा नहीं है ।
-साहिर लुधियानवी