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Saturday, May 23, 2015

खोज

खोजियों, तुम नहीं मानोगे,
लेकिन संतों का कहना सही है ।
जिस घर में हम घूम रहे हैं,
उससे निकलने का रास्ता नहीं है ।

शून्य और दीवार, दोनों एक हैं ।
आकार और निराकार, दोनों एक हैं ।

जिस दिन खोज शांत होगी,
तुम आप-से-आप यह जानोगे

कि खोज पाने की नहीं,
खोने की थी ।
यानी तुम सचमुच में जो हो,
वही होने की थी ।

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

पुस्तक: भग्न वीणा

शांति की कामना

पानी का अचल होना
मन की शांति और आभा का प्रतीक है ।

पानी जब अचल होता है,
उसमें आदमी का
मुख दिखलाई पड़ता है ।
हिलते पानी का बिम्ब भी हिलता है ।

मन जब अचल पानी के
समान शांत होता है,
उसमें रहस्यों का रहस्य मिलता है ।

मन रे, अचल सरोवर के समान
शांत हो जा ।

जग कर तूने जो भी खेल खेले,
सब गलत हो गया ।
अब सब कुछ भूल कर
नींद में सो जा ।  

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

पुस्तक: भग्न वीणा

जूठा पत्ता

रामकृष्ण और रमण
रोग की यातना दोनों ने सही थी ।
मगर अपने अंतिम दिनों में
महर्षि ने एक बात कही थी ।

जीवन भोज है
शरीर केले का पत्ता है ।

इस पत्ते पर आदमी
भोजन तो बड़े प्रेम से करता है ।
लेकिन खाना ख़त्म होते ही
वह उसे फेंक देता है ।

जूठा पत्ता भी कभी कोई
सँभाल कर धरता है ।   

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

पुस्तक: भग्न वीणा 

Thursday, June 13, 2013

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा ?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे ।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से ।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो , तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की ।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

Thursday, April 18, 2013

समर शेष है

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,          (हालाहल = ज़हर), (हाला = शराब)
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज: वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा        (न्यास = विश्वास), (सत्वर = तुरंत, शीघ्र)
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
-रामधारी सिंह 'दिनकर'