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Sunday, July 18, 2021

मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना 
कहीं से तुम बयाँ करते कहीं से हम बयाँ करते 
-वहशत रज़ा अली कलकत्वी

Saturday, September 26, 2020

कब किससे हम मिलें हैं दुनिया में इत्तिफ़ाक़न 
इन सोहबतों में कोई माज़ी का सिलसिला है
-स्मृति रॉय 

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)


Monday, February 11, 2019

वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है

वो सूरज इतना नज़दीक आ रहा है
मिरी हस्ती का साया जा रहा है

ख़ुदा का आसरा तुम दे गए थे
ख़ुदा ही आज तक काम आ रहा है

बिखरना और फिर उन गेसुओं का
दो-आलम पर अँधेरा छा रहा है

जवानी आइना ले कर खड़ी है
बहारों को पसीना आ रहा है

कुछ ऐसे आई है बाद-ए-मुआफ़िक़
किनारा दूर हटता जा रहा है

(बाद-ए-मुआफ़िक़ = अनुकूल हवा)

ग़म-ए-फ़र्दा का इस्तिक़बाल करने
ख़याल-ए-अहद-ए-माज़ी आ रहा है

(ग़म-ए-फ़र्दा = आगे आने वाले कल का दुःख), (ख़याल-ए-अहद-ए-माज़ी = भूतकाल के विचार)

वो इतने बे-मुरव्वत तो नहीं थे
कोई क़स्दन उन्हें बहका रहा है

(क़स्दन = जानबूझ कर)

कुछ इस पाकीज़गी से की है तौबा
ख़यालों पर नशा सा छा रहा है

ज़रूरत है कि बढ़ती जा रही है
ज़माना है कि घटता जा रहा है

हुजूम-ए-तिश्नगी की रौशनी में
ज़मीर-ए-मय-कदा थर्रा रहा है

(तिश्नगी = प्यास)

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे कश्तियों को
बड़ी शिद्दत का तूफ़ाँ आ रहा है

कोई पिछले पहर दरिया-किनारे
सितारों की धुनों पर गा रहा है

ज़रा आवाज़ देना ज़िंदगी को
'अदम' इरशाद कुछ फ़रमा रहा है

(इरशाद = आदेश, आज्ञा देना, हुक्म करना, दीक्षा देना, हिदायत करना)

-अब्दुल हमीद अदम

Thursday, October 6, 2016

तिशनगी जिसकी सराबों पे भरोसा न करे

तिशनगी जिसकी सराबों पे भरोसा न करे
घर में बैठा रहे सहराओं में जाया न करे

(तिशनगी = प्यास), (सराबों = मृगतृष्णाओं), (सहराओं = रेगिस्तानों)

यूँ मेरे माज़ी के ज़ख़्मों को कुरेदा न करे
भूल बैठा है तो फिर याद भी आया न करे

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)

दिल से जाना है ख़ुशी को तो चली ही जाये
रोज़ घर छोड़ के जाने का तमाशा न करे

ज़िन्दगी बख़्शेगी मर जाने के बेहतर मौक़े
उससे कहिए अभी मरने का इरादा न करे

खुल के हंसता भी नहीं टूट के रोता भी नहीं
दिल वो काहिल जो कोई काम भी पूरा न करे

चाह जीने की नहीं हौसला मरने का नहीं
हाल ऐसा भी ख़ुदा और किसी का न करे

इतनी सी बात पे वो रूठ गया है फिर से
मैंने बस इतना कहा था कि वो रूठा न करे

दिल को समझाये कोई चार ही दिन की तो है बात
रंज जीने का अब इतना भी ज़्यादा न करे

- राजेश रेड्डी

Thursday, September 27, 2012

ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं,
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर, बेख़बर नहीं।

(मसरूफ़ = संलग्न, लीन, Busy)

अब तो खुद अपने खून ने भी साफ़ कह दिया-
मैं आपका रहूँगा मगर उम्र भर नहीं।

आ ही गए ख्व़ाब तो फिर जाएँगे कहाँ,
आँखों से आगे इनकी कोई रहगुज़र नहीं।

कितना जीएँ, कहाँ से जीएँ और किस लिए,
ये इख़्तियार हम पे है तक़दीर पर नहीं।

माज़ी की राख उल्टें तो चिंगारियाँ मिलें,
बेशक किसी को चाहो मगर इस क़दर नहीं।
-आलोक श्रीवास्तव

Wednesday, September 26, 2012

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से,
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराए हैं।

मेरे हमराह भी रुसवाईयां हैं मेरे माज़ी की,
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं।

तआर्रुफ़ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर,
ताल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा।

वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।

-साहिर लुधियानवी

http://www.youtube.com/watch?v=2wcb9hfHHAE