Thursday, September 27, 2012

ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं,
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर, बेख़बर नहीं।

(मसरूफ़ = संलग्न, लीन, Busy)

अब तो खुद अपने खून ने भी साफ़ कह दिया-
मैं आपका रहूँगा मगर उम्र भर नहीं।

आ ही गए ख्व़ाब तो फिर जाएँगे कहाँ,
आँखों से आगे इनकी कोई रहगुज़र नहीं।

कितना जीएँ, कहाँ से जीएँ और किस लिए,
ये इख़्तियार हम पे है तक़दीर पर नहीं।

माज़ी की राख उल्टें तो चिंगारियाँ मिलें,
बेशक किसी को चाहो मगर इस क़दर नहीं।
-आलोक श्रीवास्तव

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