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Wednesday, October 24, 2012

हम पर दुःख का परबत टूटा तब हमने दो चार कहे
उस पे भला क्या बीती होगी जिसने शेर हजार कहे

हमें जरा वनवास काटना पड़ा अगर कुछ दिन तो क्या
उसकी सोचो जो जंगल को ही अपना घरबार कहे

सीधे-सच्चे लोगों के दम पर ही दुनिया चलती है
हम कैसे इस बात को माने कहने को संसार कहे

अपना अपना माल सजाये सब बाज़ार में आ बैठे
कोई इसे कहे मजबूरी कोई कारोबार कहे

लूटमार में सबका यारों एक बराबर हिस्सा है
कोई किसको चोर कहे तो किसको चौकीदार कहे

अब किसके आगे हम अपना दुखड़ा रोयें छोड़ो यार
एक बात को आख़िर कोई बोलो कितनी बार कहे

ढूंढ रहे हो गाँव गाँव में जाकर किस सच्चाई को
सच तो सिर्फ़ वही होता है जो दिल्ली दरबार कहे

ढोल पीटता फिरता था जो गली-गली में वादों का
इतना हाहाकार मचा है कुछ तो आख़िरकार कहे

लैला की उल्फत का सौदा नामुमकिन है दोस्त मगर
एक बार फिर तो दोहराना कितने थे दीनार कहे

जिसकी आँखों में ग़ैरत थी वे कब के बेनूर हुए
उसकी खुद्दारी क्या देखें जो खुद को खुद्दार कहे

शेर वही है शेर जो 'राही' लिखे खून या आँसू से
बाक़ी तो सब अल्लम-गल्लम कहे मगर बेकार कहे
-बालस्वरूप राही