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Tuesday, July 6, 2021

माना के तिरा फ़ैज़ अभी, आम नहीं है

माना के तिरा फ़ैज़ अभी, आम नहीं है
क्या "क़ैस" की ख़ातिर भी, कोई जाम नहीं है ? 

(फ़ैज़ = लाभ, उपकार, कृपा)

मेरी ये शिकायत के मुझे, टाल रहे हैं 
उनका ये बहाना के अभी, शाम नहीं है

दिन भर तिरी यादें हैं तो, शब भर तिरे सपने
दीवाने को अब और कोई, काम नहीं है

वो दिल ही नहीं जिस में तिरी, याद नहीं है
वो लब ही नहीं जिस पे तिरा, नाम नहीं है

अपनों से शिकायत है ना, ग़ैरों से गिला है
तक़दीर ही ऐसी है कि, आराम नहीं है

ये "क़ैस"-ए-बला-नोश भी, क्या चीज़ है, यारों 
बद-क़ौल है, बद-फ़ेल है, बद-नाम नहीं है

("क़ैस"-ए-बला-नोश = शराबी "क़ैस"), (बद-क़ौल = बुरा बोलने वाला), (बद-फ़ेल = बुरे काम करने वाला)

राजकुमार "क़ैस"

Thursday, May 7, 2020

कुछ नहीं बदला, दीवाने थे दीवाने ही रहे

कुछ नहीं बदला, दीवाने थे दीवाने ही रहे
हम नये शहरों में रहकर भी पुराने ही रहे

दिल की बस्ती में हज़ारों इंक़लाब आये मगर
दर्द के मौसम सुहाने थे सुहाने ही रहे

हमने अपनी सी बहुत की वो नहीं पिघला कभी
उसके होठों पर बहाने थे बहाने ही रहे

ऐ परिंदों हिजरतें करने से क्या हासिल हुआ
चोंच में थे चार दाने, चार दाने ही रहे

-इक़बाल अशहर

(हिजरतें = प्रवास, Migration)

Thursday, October 24, 2019

हालत-ए-हिज्र में जो रक़्स नहीं कर सकता
उस के हक़ में यही बेहतर है कि पागल हो जाए
-अब्बास ताबिश

(हालत-ए-हिज्र = जुदाई की हालत) , (रक़्स = नृत्य)

Monday, July 29, 2019

आओ कोई तफ़रीह का सामान किया जाए

आओ कोई तफ़रीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाइ'ज़ को परेशान किया जाए

(वाइ'ज़ = धर्मोपदेशक)

मुफ़्लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़ारों पे ये एलान किया जाए

(मुफ़्लिस=ग़रीब)

वो शख़्स जो दीवानों की इज़्ज़त नहीं करता
उस शख़्स का भी चाक गरेबान किया जाए

(चाक गरेबान = फटा हुआ गरिबान/ कंठी)

पहले भी 'क़तील' आँखों ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुक़सान किया जाए

(बीनाई = आँखों की दृष्टि)

-क़तील शिफ़ाई

Sunday, February 17, 2019

न सुनती है न कहना चाहती है

न सुनती है न कहना चाहती है
हवा इक राज़ रहना चाहती है

न जाने क्या समाई है कि अब की
नदी हर सम्त बहना चाहती है

(सम्त = तरफ़, दिशा की ओर)

सुलगती राह भी वहशत ने चुन ली
सफ़र भी पा-बरहना चाहती है

(पा-बरहना = नंगे पैर)

तअल्लुक़ की अजब दीवानगी है
अब उस के दुख भी सहना चाहती है

उजाले की दुआओं की चमक भी
चराग़-ए-शब में रहना चाहती है

(चराग़-ए-शब = रात का दिया)

भँवर में आँधियों में बादबाँ में
हवा मसरूफ़ रहना चाहती है

(मसरूफ़ = जिसे फुर्सत न हो, काम में लगा हुआ, प्रवृत्त, संलग्न, मश्गूल)

-मंज़ूर हाशमी

Friday, February 1, 2019

रास्ता सोचते रहने से किधर बनता है
सर में सौदा हो तो दीवार में दर बनता है
-जलील 'आली'

(सौदा = दीवानगी, जुनून, पागलपन), (दर = दरवाज़ा)

Monday, June 11, 2018

क्या इक दरिया अपना पानी चुन सकता है

क्या इक दरिया अपना पानी चुन सकता है
पानी भी क्या अपनी रवानी चुन सकता है

जीना है दुनिया में दुनिया की शर्तों पर
कौन क़फ़स में दाना-पानी चुन सकता है

(क़फ़स = पिंजरा)

दिल तो वो दीवाना है जो मह़फ़िल में भी
अपनी मर्ज़ी की वीरानी चुन सकता है

छोड़ दिया है मैंने दर-दर सजदा करना
तू कोई दीगर पेशानी चुन सकता है

मैंने तो ख़त में लिक्खे हैं अपने मआ’नी
वो इस ख़त में अपने मआ’नी चुन सकता है

जीना ही जब इतना मुश्किल है तो कोई
कैसे मरने की आसानी चुन सकता है

हर किरदार को चुन लेती है उसकी कहानी
क्या कोई किरदार कहानी चुन सकता है

- राजेश रेड्डी

Tuesday, March 28, 2017

कितने भूले हुए नग़्मात सुनाने आए

कितने भूले हुए नग़्मात सुनाने आए
फिर तिरे ख़्वाब मुझे मुझ से चुराने आए

फिर धनक-रंग तमन्नाओं ने घेरा मुझ को
फिर तिरे ख़त मुझे दीवाना बनाने आए

(धनक-रंग = इंद्रधनुष के रंग)

फिर तिरी याद में आँखें हुईं शबनम शबनम
फिर वही नींद न आने के ज़माने आए

फिर तिरा ज़िक्र किया बाद-ए-सबा ने मुझ से
फिर मिरे दिल को धड़कने के बहाने आए

(बाद-ए-सबा = पूर्व से आने वाली हवा, पुरवाई)

फिर मिरे कासा-ए-ख़ाली का मुक़द्दर जागा
फिर मिरे हाथ मोहब्बत के ख़ज़ाने आए

(कासा-ए-ख़ाली = ख़ाली भिक्षापात्र)

शर्त सैलाब समोने की लगा रक्खी थी
और दो अश्क भी हम से न छुपाने आए

(सैलाब समोने = तूफ़ान को सोखना/ समेटना)

-इक़बाल अशहर

Monday, November 7, 2016

यूँ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं!
-ज़हीर देहलवी

Tuesday, December 22, 2015

थोड़ा सा माहौल बनाना होता है

थोड़ा सा माहौल बनाना होता है
वरना किसके साथ ज़माना होता है

दुनिया में भरमार है नकली लोगों की
सौ में कोई एक दीवाना होता है

रात हमारे घर जल्दी आ जाया कर
हमें सवेरे काम पे जाना होता है

आज बिछड़ते वक़्त मुझे मालूम हुआ
लोगों में अहसास का खाना होता है

लाल किले की दीवारों पर लिखवा दो
दिल सबसे महफूज़ ठिकाना होता है

अच्छे लोगों पर ही उँगली उठती है
सच की किस्मत में अफसाना होता है

आँसू पहली शर्त है इस समझौते की
ग़म तो साँसों का जुर्माना होता है

इश्क़ में सब खुश होकर सूली चढ़ते हैं
सारा ज़ब्र रज़ा कराना होता है

(ज़ब्र = किसी बात के लिए मजबूर करना, अन्याय, अत्याचार), (रज़ा = स्वीकृति, मर्ज़ी, इच्छा)

-शकील जमाली 

Sunday, May 31, 2015

कब खुला आना जहाँ में और कब जाना खुला

कब खुला आना जहाँ में और कब जाना खुला
कब किसी किरदार पर आख़िर ये अफ़साना खुला

पहले दर की चुप खुली फिर ख़ामुशी दीवारों की
खुलते-खुलते ही हमारे घर का वीराना खुला

(दर = दरवाज़ा)

जब तलक ज़िन्दा रहे समझे कहाँ जीने को हम
वक़्त जब खोने का आ पहुँचा है तो पाना खुला

जानने के सब मआनी ही बदल कर रह गए
हमपे जिस दिन वो हमारा जाना-पहचाना खुला

हर किसी के आगे यूँ खुलता कहाँ है अपना दिल
सामने दीवानों को देखा तो दीवाना खुला

थरथराती लौ में उसकी इक नमी-सी आ गई
जलते-जलते शम्अ पर जब उसका परवाना खुला

होंटों ने चाहे तबस्सुम से निभाई दोस्ती
शायरी में लेकिन अपनी ग़म से याराना खुला

(तबस्सुम = मुस्कराहट)

-राजेश रेड्डी

Tuesday, May 19, 2015

ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ

ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ
बस अपने आप को मंज़ूर हो जाऊँ

नसीहत कर रही है अक़्ल कब से
कि मैं दीवानगी से दूर हो जाऊँ

न बोलूँ सच तो कैसा आईना मैं
जो बोलूँ सच तो चकनाचूर हो जाऊँ

है मेरे हाथ में जब हाथ तेरा 
अजब क्या है जो मग़रूर हो जाऊँ

बहाना कोई तो ऐ ज़िन्दगी दे
कि जीने के लिए मजबूर हो जाऊँ

सराबों से मुझे सैराब कर दे
नशे में तिश्नगी के चूर हो जाऊँ

(सराबों = मृगतृष्णाओं), (सैराब = भरपूर, भरा हुआ), (तिश्नगी = प्यास)

मिरे अंदर से गर दुनिया निकल जाए  
मैं अपने-आप में भरपूर हो जाऊँ

-राजेश रेड्डी

Sunday, November 16, 2014

दिल जलाने की बात करते हो, आशियाने की बात करते हो

आशियाने की बात करते हो
दिल जलाने की बात करते हो

सारी दुनिया के रंज-ओ-ग़म  दे कर
मुस्कुराने की बात करते हो

(रंज = कष्ट, दुःख, आघात, पीड़ा)

हम को अपनी ख़बर नहीं यारों 
तुम ज़माने की बात करते हो

ज़िक्र मेरा सुना तो चिढ़ के कहा
किस दीवाने की बात करते हो

हादसा था गुज़र गया होगा
किसके जाने की बात करते हो

रस्म-ए-उल्फ़त, ख़ुलूस, तर्ज़-ए-वफ़ा 
किस ज़माने की बात करते हो

(रस्म-ए-उल्फ़त = प्रेम/ स्नेह की परम्परा), (ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठा), (तर्ज़-ए-वफ़ा = वफ़ा की रीति/ ढंग)

-जावेद क़ुरैशी


रेशमा/ Reshma 

फ़रीदा ख़ानम/ Farida Khanum 

नूरजहाँ/ Noorjahan 

Saturday, November 8, 2014

याद उसे भी एक अधूरा अफ़साना तो होगा

याद उसे भी एक अधूरा अफ़साना तो होगा
कल रस्ते मेंं उसने हमको पहचाना तो होगा

डर हमको भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से
लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल, अब जाना तो होगा

कुछ बातों के मतलब हैं और कुछ मतलब की बातें
जो ये फ़र्क़ समझ लेगा वो दीवाना तो होगा

 दिल की बातें नहीं हैं तो दिलचस्प ही कुछ बातें हों
ज़िंदा रहना है तो दिल को बहलाना तो होगा

जीत के भी वो शर्मिंदा है, हार के भी हम नाज़ाँ
कम से कम वो दिल ही दिल में ये माना तो होगा

-जावेद अख़्तर

Wednesday, May 21, 2014

जुगनू ही दीवाने निकले
अँधियारा झुठलाने निकले

ऊँचे लोग सयाने निकले
महलों में तहख़ाने निकले

वो तो सबकी ही ज़द में था
किसके ठीक निशाने निकले

आहों का अंदाज नया था
लेकिन ज़ख़्म पुराने निकले

जिनको पकड़ा हाथ समझकर
वो केवल दस्ताने निकले
-विज्ञान व्रत

Friday, July 5, 2013

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम

(निगाह-ए-आशना = परिचित दृष्टि)

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

(ग़फ़्लत = असावधानी, बेपरवाही)

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

(तौफ़ीक़ = सामर्थ्य, शक्ति)

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

(बेनियाज़ी = स्वछंदता)

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम

(निगाह-ए-नाज़ = चंचल दृष्टि, हाव-भाव भरी)

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
-फ़िराक़ गोरखपुरी

सबकी बात न माना कर

सबकी बात न माना कर
खुद को भी पहचाना कर

दुनिया से लड़ना है तो
अपनी ओर निशाना कर

या तो मुझसे आकर मिल
या मुझको दीवाना कर

बारिश में औरों पर भी
अपनी छतरी ताना कर

बाहर दिल की बात न ला
दिल को भी तहखाना कर

शहरों में हलचल ही रख
मत इनको वीराना कर
-कुँअर बेचैन

Wednesday, June 26, 2013

कोई मौक़ा नहीं मिलता हमें अब मुस्कुराने का
बला का शौक़ था हम को कभी हँसने-हँसाने का

हमें भी टीस की लज्ज़त पसंद आने लगी है क्या
ख़याल आता नहीं ज़ख्मों पे अब मरहम लगाने का

मेरी दीवानगी क्यों मुन्तज़िर है रुत बदलने की
कोई मौसम भी होता है जुनूँ को आज़माने का

(मुन्तज़िर = इंतज़ार या प्रतीक्षा करने वाला, प्रतीक्षारत)

उन्हें मालूम है फिर लौट आएंगे असीर उनके
खुला रहता है दरवाज़ा हमेशा क़ैदखाने का

(असीर = बंदी, क़ैदी)

चटानों को मिली है छूट रस्ता रोक लेने की
मेरी लहरों को हक़ हासिल नहीं है सर उठाने का

अकड़ती जा रही हैं रोज़ गर्दन की रगें 'आलम'
हमें ए काश! आ जाए हुनर भी सर झुकाने का
-आलम खुर्शीद

Thursday, May 23, 2013

कल जहाँ दीवार थी, है आज इक दर देखिए
क्या समाई थी भला दीवाने के सर, देखिए

पुर-सुकूँ लगती है कितनी झील के पानी पे बत
पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए

[(पुर-सुकूँ = शांतिमय), (बत = हंस, बतख)]

छोडकर जिसको गए थे आप कोई और था
अब मै कोई और हूँ वापस तो आकर देखिए

छोटे-से घर में थे देखे ख़्वाब महलों के कभी
और अब महलों में हैं तो ख़्वाब में घर देखिए

ज़ह्ने-इन्सानी इधर, आफ़ाक़ की वुसअत उधर
एक मंज़र है यहाँ अन्दर कि बाहर देखिए

[(ज़ह्ने-इन्सानी = मानव का मस्तिष्क), (आफ़ाक़ = दुनियाएँ), (वुसअत = विस्तार)]

अक़्ल ये कहती है दुनिया मिलती है बाज़ार में
दिल मगर ये कहता है कुछ और बेहतर देखिए

-जावेद अख़्तर

Saturday, May 18, 2013

क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो,
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।
-मियाँदाद ख़ाँ सय्याह