Friday, July 5, 2013

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम

(निगाह-ए-आशना = परिचित दृष्टि)

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

(ग़फ़्लत = असावधानी, बेपरवाही)

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

(तौफ़ीक़ = सामर्थ्य, शक्ति)

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

(बेनियाज़ी = स्वछंदता)

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम

(निगाह-ए-नाज़ = चंचल दृष्टि, हाव-भाव भरी)

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
-फ़िराक़ गोरखपुरी

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