Showing posts with label -शायर: मुज़फ़्फ़र रज़्मी. Show all posts
Showing posts with label -शायर: मुज़फ़्फ़र रज़्मी. Show all posts

Friday, January 8, 2016

ज़मीं पर आओ, फिर देखो, हमारी अहमियत क्या है
बुलंदी से कभी ज़र्रों का अंदाजा नहीं होता
-मुज़फ़्फ़र रज़्मी

Wednesday, November 21, 2012

इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई

इस राज़ को क्या जानें साहिल के तमाशाई,
हम डूब के समझे हैं दरिया तेरी गहराई।

(साहिल = किनारा)

जाग ऐ मेरे हमसाया ख़्वाबों के तसलसुल से,
दीवार से आँगन में अब धूप उतर आई।

[(हमसाया = पड़ोसी), (तसलसुल = निरंतरता)]

चलते हुए बादल के साए के तअक्कुब में,
ये तशनालबी मुझको सहराओं में ले आई।

[(साए = परछाई), (तअक्कुब = पीछा करना), (तशनालबी = प्यास), (सहराओं = रेगिस्तानों)]

ये जब्र भी देखा है तारीख़  की नज़रों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।

[(जब्र = ज़ुल्म), (तारीख़ = इतिहास)]

क्या सानेहा याद आया 'रज़्मी' की तबाही का,
क्यों आपकी नाज़ुक सी आँखों में नमी आई।

(सानेहा = आपत्ति, मुसीबत, दुर्घटना)

-मुज़फ़्फ़र रज़्मी