वो और हैं जो पीते हैं मौसम को देखकर
आती रही बहार में तौबाशिकन हवा
-दाग़
(तौबाशिकन = प्रतिज्ञा तोड़नेवाली)
वाइज़ का था लिहाज़ तो फ़स्ले-ख़िज़ाँ तलक
लो आ गई बहार में तौबाशिकन हवा
-अमीर मीनाई
[(वाइज़ = धर्मोपदेशक), (फ़स्ले-ख़िज़ाँ = पतझड़)]
ज़बाँ से गर किया भी वादा तूने, तो यक़ीं किसको
निगाहें साफ़ कहती हैं कि देखो यूँ मुकरते हैं
-दाग़
तसल्ली ख़ाक़ हो वादों से उनके, चितवनें उनकी
इशारों से यूँ कहती हैं, कि देखो यूँ मुकरते हैं
-अमीर मीनाई
यूँ तो बरसों न पिलाऊँ, न पीऊँ ऐ ज़ाहिद
तौबा करते ही बदल जाती है नीयत मेरी
-दाग़
(ज़ाहिद = संयमी, विरक्त)
तौबा की जान को, बिजली है, चमक बिजली की
बदली आते ही बदल जाती है नीयत मेरी
-अमीर मीनाई
ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी, कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
-मिर्ज़ा ग़ालिब
(रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब = जिस दिन बादल निकलते हैं और जिस दिन चाँदनी रात होती है)
क्यों तूने चश्मे-लुत्फ़ से देखा ग़ज़ब किया ?
क़ुर्बान उस निगाह के जिसमें ग़रूर था
-दाग़
(चश्मे-लुत्फ़ = आनंद या अनुकंपा की नज़र से)
नीची रक़ीब से न हुई आँख उम्र भर
झुकता मैं क्या ? नज़र में तुम्हारा ग़रूर था
-अमीर मीनाई
(रक़ीब = प्रतिद्वंदी)
Wednesday, October 23, 2013
लिपटा मैं बोसा लेके तो बोले कि देखिये
यह दूसरी ख़ता है, वह पहला क़ुसूर था
-अमीर मीनाई
(बोसा = चुम्बन)
हम बोसा लेके उनसे अजब चाल चल गए
यूँ बख़्शवा लिया कि यह पहला क़ुसूर था
-दाग़
एक तरफ़ दाग़ और अमीर हैं कि ख़ता करते हैं फिर शान से माफ़ी माँग लेते हैं और दूसरी तरफ़ ग़ालिब हैं कि जागते हुए नहीं बल्कि सोते हुए भी और वो भी पाँव का बोसा लेने की हिम्मत नहीं कर पाते।
ले तो लूँ, सोते में उस के पाँव का बोसा, मगर
ऐसी बातों से, वह काफ़िर बदगुमाँ हो जाएगा
-मिर्ज़ा ग़ालिब
वस्ल हो जाय यहीं, हश्र में क्या रक्खा है ?
आज की बात को क्यों कल पे उठा रक्खा है ?
तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाय
सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है
-अमीर मीनाई
[(वस्ल = मिलन), (हश्र = क़यामत)]
न शाख़े-गुल ही ऊँची है, न दीवारे-चमन, बुलबुल !
तेरी हिम्मत की कोताही, तेरी क़िस्मत की पस्ती है
-अमीर मीनाई
[(शाख़े-गुल = पेड़ की डाली), (दीवारे-चमन = बाग़ की दीवार)]
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो
-अमीर मीनाई