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Sunday, March 3, 2019

नावक-ए-नाज़ से मुश्किल है बचाना दिल का
दर्द उठ उठ के बताता है ठिकाना दिल का
-अमीर मीनाई

(नावक-ए-नाज़ = प्यार के बाण)

Friday, March 1, 2019

ज़ब्त देखो उधर निगाह न की
मर गए मरते मरते आह न की
-अमीर मीनाई

Thursday, February 28, 2019

वाए क़िस्मत वो भी कहते हैं बुरा
हम बुरे सब से हुए जिन के लिए
-अमीर मीनाई

Wednesday, February 27, 2019

तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर
-अमीर मीनाई
फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का
-अमीर मीनाई

(वादा-ए-वस्ल = मिलन का वादा)

Tuesday, February 26, 2019

मुद्दत में शाम-ए-वस्ल हुई है मुझे नसीब
दो-चार साल तक तो इलाही सहर न हो
-अमीर मीनाई

(शाम-ए-वस्ल = मिलन की शाम), (सहर  = सुबह, सवेरा)

Monday, February 25, 2019

ख़ुदा ने नेक सूरत दी तो सीखो नेक बातें भी
बुरे होते हो अच्छे हो के ये क्या बद-ज़बानी है
-अमीर मीनाई

कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद

कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद
याद आएगी बहुत मेरी वफ़ा मेरे बाद

(जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार)

है वसीयत मेरी मरक़द पे ये लिख दे अहबाब
के करे कोई किसी से न वफ़ा मेरे बाद

(मरक़द = कब्र), (अहबाब = स्वजन, दोस्त, मित्र)

शुक्र है कुछ तो मुहब्बत में हुआ रंग-ए-असर
तीन दिन उसने लगाई न हिना मेरे बाद

खूं मेरा करके बहुत हाथ मले क़ातिल ने
न जमा पर न जमा रंग-ए-हिना मेरे बाद

-अमीर मीनाई





Friday, February 22, 2019

कौन सी जा है जहाँ जल्वा-ए-माशूक़ नहीं
शौक़-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर
-अमीर मीनाई

(जल्वा-ए-माशूक़ = प्रेमिका की सुंदरता/ छवि), (शौक़-ए-दीदार = देखने की लालसा/ इच्छा)

Friday, January 3, 2014

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिये

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैंने दुनिया छोड़ दी जिन के लिये

लाश पर इबरत ये कहती है 'अमीर'
आये थे दुनिया में इस दिन के लिये
-अमीर मीनाई

Friday, November 1, 2013

हिर्सो हविसो ताबो तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जानेवाले हैं, सामान तो गया
-दाग़

बाक़ी है 'अमीर' अब तो फ़क़त जान का जाना
होशो ख़िरदो ताबो तवाँ जा चुके कब के
-अमीर मीनाई

सब गए, दिल, दिमाग़, ताबो तवाँ
मैं रहा हूँ, सो क्या रहा हूँ मैं

-मीर तक़ी मीर

हिर्सो = लालसा
हविसो = तृष्णा
ताबो = तेज
तवाँ = बल
ख़िरदो = बुद्धि, अक़ल 
वो और हैं जो पीते हैं मौसम को देखकर
आती रही बहार में तौबाशिकन हवा
-दाग़

(तौबाशिकन = प्रतिज्ञा तोड़नेवाली)

वाइज़ का था लिहाज़ तो फ़स्ले-ख़िज़ाँ तलक
लो आ गई बहार में तौबाशिकन हवा
-अमीर मीनाई

[(वाइज़ = धर्मोपदेशक), (फ़स्ले-ख़िज़ाँ =  पतझड़)]

ज़बाँ से गर किया भी वादा तूने, तो यक़ीं किसको
निगाहें साफ़ कहती हैं कि देखो यूँ मुकरते हैं
-दाग़

तसल्ली ख़ाक़ हो वादों से उनके, चितवनें उनकी
इशारों से यूँ कहती हैं, कि देखो यूँ मुकरते हैं
-अमीर मीनाई
यूँ तो बरसों न पिलाऊँ, न पीऊँ ऐ ज़ाहिद
तौबा करते ही बदल जाती है नीयत मेरी
-दाग़

(ज़ाहिद = संयमी, विरक्त)


तौबा की जान को, बिजली है, चमक बिजली की
बदली आते ही बदल जाती है नीयत मेरी
-अमीर मीनाई


ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी, कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
-मिर्ज़ा ग़ालिब

(रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब = जिस दिन बादल निकलते हैं और जिस दिन चाँदनी रात होती है)
क्यों तूने चश्मे-लुत्फ़ से देखा ग़ज़ब किया ?
क़ुर्बान उस निगाह के जिसमें ग़रूर था
-दाग़

(चश्मे-लुत्फ़ = आनंद या अनुकंपा की नज़र से)

नीची रक़ीब से न हुई आँख उम्र भर
झुकता मैं क्या ? नज़र में तुम्हारा ग़रूर था
-अमीर मीनाई

(रक़ीब = प्रतिद्वंदी)

Wednesday, October 23, 2013

लिपटा मैं बोसा लेके तो बोले कि देखिये
यह दूसरी ख़ता है, वह पहला क़ुसूर था
-अमीर मीनाई

(बोसा = चुम्बन)

हम बोसा लेके उनसे अजब चाल चल गए
यूँ बख़्शवा लिया कि यह पहला क़ुसूर था
-दाग़

एक तरफ़ दाग़ और अमीर हैं कि ख़ता करते हैं फिर शान से माफ़ी माँग लेते हैं और दूसरी तरफ़ ग़ालिब हैं कि जागते हुए नहीं बल्कि सोते हुए भी और वो भी पाँव का बोसा लेने की हिम्मत नहीं कर पाते।

ले तो लूँ, सोते में उस के पाँव का बोसा, मगर
ऐसी बातों से, वह काफ़िर बदगुमाँ हो जाएगा
-मिर्ज़ा ग़ालिब
वस्ल हो जाय यहीं, हश्र में क्या रक्खा है ?
आज की बात को क्यों कल पे उठा रक्खा है ?

तुझ से माँगूँ मैं तुझी को कि सभी कुछ मिल जाय
सौ सवालों से यही एक सवाल अच्छा है
-अमीर मीनाई

[(वस्ल = मिलन), (हश्र = क़यामत)]
न शाख़े-गुल ही ऊँची है, न दीवारे-चमन, बुलबुल !
तेरी हिम्मत की कोताही, तेरी क़िस्मत की पस्ती है
-अमीर मीनाई

[(शाख़े-गुल = पेड़ की डाली), (दीवारे-चमन = बाग़ की दीवार)]
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो
-अमीर मीनाई

[(उल्फ़त = प्यार, मोहब्बत, दोस्ती), (जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार), (लज़्ज़त = आनंद)]
जो निगाह की थी ज़ालिम ! तो फिर आँख क्यों चुराई ?
वही तीर क्यों न मारा जो जिगर के पार होता
-अमीर मीनाई


कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता
-मिर्ज़ा ग़ालिब