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Wednesday, December 29, 2021

सोते सोते चौंक पड़े हम ख़्वाब में हम ने क्या देखा

सोते सोते चौंक पड़े हम ख़्वाब में हम ने क्या देखा 
जो ख़ुद हम को ढूँढ रहा हो ऐसा इक रस्ता देखा 

दूर से इक परछाईं देखी अपने से मिलती-जुलती 
पास से अपने चेहरे में भी और कोई चेहरा देखा 

सोना लेने जब निकले तो हर हर ढेर में मिट्टी थी 
जब मिट्टी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा 

सूखी धरती सुन लेती है पानी की आवाज़ों को 
प्यासी आँखें बोल उठती हैं हम ने इक दरिया देखा 

आज हमें ख़ुद अपने अश्कों की क़ीमत मालूम हुई 
अपनी चिता में अपने-आप को जब हम ने जलता देखा 

चाँदी के से जिन के बदन थे सूरज के से मुखड़े थे 
कुछ अंधी गलियों में हम ने उन का भी साया देखा 

रात वही फिर बात हुई ना हम को नींद नहीं आई 
अपनी रूह के सन्नाटे से शोर सा इक उठता देखा 

-ख़लील-उर-रहमान आज़मी

Sunday, May 30, 2021

दीवार-ए-तकल्लुफ़ है तो, मिस्मार करो ना

दीवार-ए-तकल्लुफ़ है तो, मिस्मार करो ना 
गर उस से मोहब्बत है तो, इज़हार करो ना 

(दीवार-ए-तकल्लुफ़ = औपचारिकता की दीवार), (मिस्मार = तोड़ना)

मुमकिन है तुम्हारे लिए, हो जाऊँ मैं आसाँ 
तुम ख़ुद को मिरे वास्ते, दुश्वार करो ना 

(दुश्वार = मुश्किल)

गर याद करोगे तो, चला आऊँगा इक दिन 
तुम दिल की गुज़रगाह को, हमवार करो ना 

(गुज़रगाह = रास्ता, सड़क), (हमवार = समतल)

कहना है अगर कुछ तो, पस-ओ-पेश करो मत 
खुल के कभी जज़्बात का, इज़हार करो ना 

(पस-ओ-पेश = संकोच, हिचकिचाहट)

हर रिश्ता-ए-जाँ तोड़ के, आया हूँ यहाँ तक 
तुम भी मिरी ख़ातिर कोई, ईसार करो ना 

(रिश्ता-ए-जाँ = जीवन का रिश्ता), (ईसार = त्याग करना) 

"एजाज़" तुम्हारे लिए, साहिल पे खड़ा हूँ 
दरिया-ए-वफ़ा मेरे लिए, पार करो ना

(साहिल=किनारा)

-एजाज़ असद

Wednesday, December 9, 2020

"फ़िराक़" ने तुझे पूजा नहीं, के वक़्त ना था

"फ़िराक़" ने तुझे पूजा नहीं, के वक़्त ना था
"यगाना" ने भी सराहा नहीं, के वक़्त ना था

"मजाज़" ने तिरे आँचल को, कर दिया परचम
तुझे गले से लगाया नहीं, के वक़्त ना था

(परचम = झंडा)

हज़ार दुःख थे ज़माने के, "फ़ैज़" के आगे
सो तेरे हुस्न पे लिक्खा नहीं, के वक़्त ना था

ब-राह-ए-क़ाफ़िला, चलते चले गए "मजरूह"
तुझे पलट के भी देखा नहीं, के वक़्त ना था

(ब-राह-ए-क़ाफ़िला = क़ाफ़िले के साथ)

ये कौन शोला बदन है, बताओ तो जानी ?
जनाब-ए-"जॉन" ने पूछा नहीं, के वक़्त ना था

वो शाम थी के, सितारे सफ़र के देखते थे
"फ़राज़" ने तुझे चाहा नहीं, के वक़्त ना था

कमाल-ए-इश्क़ था, मेरी निगाह में "आसिम"
ज़वाल-ए-उम्र को सोचा नहीं, के वक़्त ना था

(ज़वाल-ए-उम्र = घटती उम्र)

- लिआक़त अली "आसिम"

Monday, October 12, 2020

रस्ता चाहे जैसा दे

रस्ता चाहे जैसा दे
साथी लेकिन अच्छा दे

प्यार पे हँसने वालों को   
प्यार में उलझा दे

जिसमें सदियां जी लूं मैं
इक लम्हा तो ऐसा दे 

जैसा हूं वैसा ही दिखूं  
सीरत जैसा चेहरा दे 

चाहे जितने दे लेकिन  
दर्द कोई तो मीठा दे  

थोड़े दुनियादार रहें
हस्ती जी को समझा दे

-हस्तीमल हस्ती 

Thursday, April 23, 2020

याद में उसकी भीगा कर

याद में उसकी भीगा कर
फूलों जैसा महका कर

भीड़ में ख़ुद को तन्हा कर
ये मंज़र भी देखा कर

बूढ़ों में भी बैठा कर
बच्चों से भी खेला कर

सबको राह दिखा लेकिन
अपनी राह भी देखा कर

किससे भूल नहीं होती
इतना भी मत सोचा कर

तू भी दौलत से भर जा
सबके ग़म को अपनाकर

जन्नत किसने देखी है
जीवन जन्नत जैसा कर

प्यार की अपनी आँखें हैं
देख ही लेगा देखा कर


-हस्तीमल हस्ती

Wednesday, April 22, 2020

कितना सुख है निज अर्पन में

जाने कितने जन्मों का
सम्बंध फलित है इस जीवन में ।।

खोया जब ख़ुद को इस मद में
अपनी इक नूतन छवि पायी,
और उतर कर अनायास
नापी मन से मन की गहराई,
दो कोरों पर ठहरी बूँदें
बह कर एकाकार हुईं जब,
इक चंचल सरिता सब बिसरा
कर जाने कब सिंधु समायी ।

सब तुममय था, तुम गीतों में
गीत गूँजते थे कन-कन में।।

मिलने की बेला जब आयी
दोपहरी की धूप चढ़ी थी,
गीतों को बरखा देने में
सावन ने की देर बड़ी थी,
होंठों पर सुख के सरगम थे,
पीड़ा से सुलगी थी साँसें,
अंगारों के बीच सुप्त सी
खुलने को आकुल पंखुड़ी थी ।

पतझर में बेमौसम बारिश
मोर थिरकता था ज्यों मन में ।।

थीं धुँधली सी राहें उलझीं
पर ध्रुवतारा लक्ष्य अटल था,
बहुत क्लिष्ट थी दुनियादारी
मगर हृदय का भाव सरल था,
लपटों बीच घिरा जीवन पर
साथ तुम्हारा स्निग्ध चाँदनी,
पाषाणों के बीच पल रहे
भावों का अहसास तरल था ।

है आनंद पराजय में अब
कितना सुख है निज अर्पन में ।।

-मानोशी 

आओ साथी जी लेते हैं

आओ साथी जी लेते हैं
विष हो या अमृत हो जीवन
सहज भाव से पी लेते हैं

सघन कंटकों भरी डगर है
हर प्रवाह के साथ भँवर है
आगे हैं संकट अनेक, पर
पीछे हटना भी दुष्कर है।
विघ्नों के इन काँटों से ही
घाव हृदय के सी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

नियति हमारा सबकुछ लूटे
मन में बसा घरौंदा टूटे
जग विरुद्ध हो हमसे लेकिन
जो पकड़ा वो हाथ न छूटे
कठिन बहुत पर नहीं असम्भव
इतनी शपथ अभी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

श्वासों के अंतिम प्रवास तक
जलती-बुझती हुई आस तक
विलय-विसर्जन के क्षण कितने
पूर्णतृप्ति-अनबुझी प्यास तक
बड़वानल ही यदि यथेष्ट है
फिर हम राह वही लेते हैं
आओ साथी जी लेते हैं

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, April 16, 2020

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ
हक़ीक़त है कि रोना चाहता हूँ

(ब-ज़ाहिर = प्रत्यक्ष स्पष्ट रूप से)

अश्क़ आँखों को नम करते नहीं अब
ज़ख़्म यादों से धोना चाहता हूँ

वक़्त बिखरा गया जिन मोतियों को
उन्हे फिर से पिरोना चाहता हूँ

कभी अपने ही दिल की रहगुज़र में
कोई खाली सा कोना चाहता हूँ

नई शुरूआत करने के लिये फिर
कुछ नये बीज बोना चाहता हूँ।

गये जो आत्मविस्मृति की डगर पर
उन्ही में एक होना चाहता हूँ।

भेद प्रायः सभी के खुल चुके हैं
मैं जिन रिश्तों को ढोना चाहता हूँ

नये हों रास्ते मंज़िल नई हो
मैं इक सपना सलोना चाहता हूँ।

'अमित' अभिव्यक्ति की प्यासी जड़ो को
निज अनुभव से भिगोना चाहता हूँ।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, January 23, 2020

सब मिला इस राह में

सब मिला इस राह में
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।

चाह तारों की कहाँ
जब गगन ही आँचल बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए
पथिक को फिर क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं,
कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय में सागर समाया, हर लहर जीवन सुधा हो

धूप में चमके मगर
है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना ।।

जल रही मद्धम कहीं अब भी
पुरानी ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर
गंध सोंधी सी प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस क्षण
कई तरुवर बन तने थे,
एक दिशा विहीन सरिता रुक गयी निर्बाध गति की।

मन कहीं भागे नहीं
फिर से किसी हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना ।।

काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के
उत्तर खोजता,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात
अब क्या सोचता,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को,
समझ पाने के प्रयासों को
भला क्यों कोसता,

शांत हो चित धीर स्थिर मन,
हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना ।।

-मानोशी

Saturday, September 28, 2019

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
आँसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं

(हिज्र = बिछोह, जुदाई)

रस्ता देखने वाली आँखों के अनहोने-ख़्वाब
प्यास में भी दरियाओं जैसी बातें करते हैं

ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं

एक ज़रा सी जोत के बल पर अँधियारों से बैर
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं

-इफ़्तिख़ार आरिफ़

Friday, August 9, 2019

जिस शख्स को ग़म अपने भुलाने नहीं आते

जिस शख्स को ग़म अपने भुलाने नहीं आते
उसके लिए ख़ुशियों के ज़माने नहीं आते

कतरा के न चलिए कभी पथरीली डगर से
आसान सी राहों में खज़ाने नहीं आते

मुश्किल में फ़कत ग़ैर ही दुश्मन नहीं बनते
अपने भी तो अपनों को बचाने नहीं आते

आ जाए अगर वक़्त तो है जान भी हाज़िर
हम उनमें से हैं जिनको बहाने नहीं आते

मैं इसलिए हर शख्स की नज़रों में बुरा हूँ
बस मुझको मेरे ऐब छुपाने नहीं आते

- हस्तीमल हस्ती

Monday, August 5, 2019

कहाँ आ के रुकने थे रास्ते कहाँ मोड़ था उसे भूल जा

कहाँ आ के रुकने थे रास्ते कहाँ मोड़ था उसे भूल जा
जो मिल गया उसे याद रख जो नहीं मिला उसे भूल जा

वो तेरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गईं
दिल-ए-बेख़बर मेरी बात सुन उसे भूल जा उसे भूल जा

मैं तो गुम था तेरे ही ध्यान में, तेरी आस तेरे गुमान में
सबा कह गयी मेरे कान में मेरे साथ आ उसे भूल जा

किसी आँख में नहीं अश्क-ए-ग़म तेरे बाद कुछ भी नहीं है कम
तुझे ज़िन्दगी ने भुला दिया तू भी मुस्कुरा उसे भूल जा

कहीं चाक-ए-जाँ का रफ़ू नहीं किसी आस्तीं पे लहू नहीं
कि शहीद-ए-राह-ए-मलाल का नहीं ख़ूँ-बहा उसे भूल जा

(चाक-ए-जाँ = कटा-फटा शरीर), (शहीद-ए-राह-ए-मलाल = दुःख के रास्ते जान देने वाला)

क्यूँ अटा हुआ है ग़ुबार में ग़म-ए-ज़िंदगी के फ़िशार में
वो जो दर्द था तिरे बख़्त में सो वो हो गया उसे भूल जा

(फ़िशार = दबाव, चिंता), (बख़्त = भाग्य, क़िस्मत)

न वो आँख हीं तेरी आँख थी न वो ख़्वाब हीं तेरा ख्वाब था
दिले मुन्तज़िर तो ये किसलिए है तेरा जागना उसे भूल जा

(मुन्तज़िर = प्रतीक्षारत)

ये जो रात दिन का है खेल सा उसे देख इसपे यकीं न कर
नहीं अक्स कोई भी मुस्तक़िल सरे आईना उसे भूल जा

(मुस्तक़िल = चिरस्थाई, निरंतर, लगातार)

जो बिसाते-जाँ ही उलट गया, वो जो रास्ते से पलट गया,
उसे रोकने से हुसूल क्या? उसे भूल जा...उसे भूल जा

(हुसूल = लाभ, निष्कर्ष, नतीजा)

तो ये किसलिए शबे हिज्र के उसे हर सितारे में देखना
वो फ़लक के जिसपे मिले थे हम कोई और था उसे भूल जा

तुझे चाँद बन के मिला था जो, तेरे साहिलों पे खिला था जो
वो था एक दरिया विसाल का, सो उतर गया उसे भूल जा

-अमजद इस्लाम अमजद

Wednesday, June 19, 2019

सवाल कितने वबाल कितने

सवाल कितने वबाल कितने
हैं ज़िन्दगी में ये जाल कितने।

(वबाल = मुसीबत/ तकलीफ़)

ज़रा से रस्ते में ज़िन्दगी के
उरूज़ कितने ज़वाल कितने।

(उरूज़ = बुलंदी, ऊंचाई), (ज़वाल = अवनति, पतन)

सभी की क़िस्मत में हैं मुअय्यन
फ़िराक़ कितने विसाल कितने।

(मुअय्यन = तय/निश्चित), (फ़िराक़ = विरह, वियोग), (विसाल = मिलन)

जो तेरी फुरक़त में दिन गुज़ारे
थे ज़िन्दगी में मुहाल कितने।

(फुरक़त = विरह, वियोग), (मुहाल = कठिन)

चलो जो दुनिया में तो संभल के
क़दम क़दम पर हैं जाल कितने।

- विकास वाहिद

Monday, June 17, 2019

बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला

बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला
नया सफ़र भी बहुत ही गुरेज़-पा निकला

(गुरेज़-पा = छलने वाला, कपटपूर्ण, गोलमाल)

न जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही
जिसे क़रीब से देखा वो दूसरा निकला

हमें तो रास न आई किसी की महफ़िल भी
कोई ख़ुदा कोई हम-साया-ए-ख़ुदा निकला

हज़ार तरह की मय पी हज़ार तरह के ज़हर
न प्यास ही बुझी अपनी न हौसला निकला

हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं
पुकारा हम ने तो सदियों का फ़ासला निकला

अब अपने-आप को ढूँडें कहाँ कहाँ जा कर
अदम से ता-ब-अदम अपना नक़्श-ए-पा निकला

(अदम = परलोक, शून्य, अस्तित्व हीनता),  (ता-ब-अदम = अनंत काल), (नक़्श-ए-पा = पैरों के निशान, पदचिन्ह)

-ख़लील-उर-रहमान आज़मी

Sunday, June 16, 2019

आ हिज्र का डर निकालते हैं
रस्ते से सफ़र निकालते हैं

(हिज्र = जुदाई),

पत्थरों में कहीं तो है वो सूरत
जो अहल-ए-हुनर निकालते हैं

(अहल-ए-हुनर = हुनरमंद, कलाकार)

-अंजुम ख़याली

Friday, June 7, 2019

चराग़-ए-राहगुज़र लाख ताबनाक सही
जला के अपना दिया रौशनी मकान में ला

(ताबनाक = प्रकाशमान, चमकदार, चमकीला)

है वो तो हद्द-ए-गिरफ़्त-ए-ख़याल से भी परे
ये सोच कर ही ख़याल उस का अपने ध्यान में ला

(हद्द-ए-गिरफ़्त-ए-ख़याल = विचारों की सीमा से परे)

-अकबर हैदराबादी


Saturday, June 1, 2019

मत पूछो के कितने पहुँचे

मत पूछो के कितने पहुँचे
पहुँचे जैसे तैसे पहुँचे

उस से छुप कर मिलना था
मुखबिर मुझ से पहले पहुँचे

पहले बाद में जा पहुँचे थे
बाद में जाकर पहले पहुँचे

झूठ गवाही माँग रहा था
सबसे पहले सच्चे पहुँचे

रस्ते में क्या ज़ुल्म हुआ है
जो भी पहुँचे रोते पहुँचे

मेरे साथ तो बस इक दो थे
जाने बाकी कैसे पहुँचे

-ज़हरा शाह


مت پوچھو کہ کتنے پہنچے
پہنچے جیسے تیسے پہنچے

اس سے چھپ کر ملنا تھا پر
مخبر مجھ سے پہلے پہنچے

پہلے بعد میں جا پہنچے تھے
بعد میں جا کر پہلے پہنچے

جھوٹ گواہی مانگ رہا تھا
سب سے پہلے سچے پہنچے

رستے میں کیا ظلم ہوا ہے
جو بھی پہنچے روتے پہنچے

میرے ساتھ تو بس اک دو تھے
جانے باقی کیسے پہنچے

زہرا شاہ

Mat poocho ke kitne pohanche
Pohanche jaise tese pohanche

Us se chup kar milna tha
Mukhbar mujh se pehle pohanche

Pehle baad mein ja pohanche the
Baad mein ja kar pehle pohanche

Jhoot gawahi maang raha tha
Sab se pehle sache pohanche

Raste mein kya zulm hua hai
Jo bhi pohanche rote pohanche

Mere sath tou bss ik do the
Jaane baki kaise pohanche

-Zahra shah

Tuesday, May 28, 2019

न रस्मो राह का चर्चा, न हुस्ने यार की बातें

न रस्मो राह का चर्चा, न हुस्ने यार की बातें
यहाँ जिस से मिलो करता है कारोबार की बातें

इसी के साये में हमने कई सदियाँ गुज़ारी हैं
हमारे सामने मत कीजिये तलवार की बातें

मेरे मालिक मेरी माँ की दुआ की लाज रख लेना
मेरे आँगन में अब होने लगीं दीवार की बातें

-आरिफ़ "मीर"

Friday, May 24, 2019

ख़िज़ां की रुत में गुलाब लहजा बनाके रखना, कमाल ये है

ख़िज़ां की रुत में गुलाब लहजा बनाके रखना, कमाल ये है
हवा की ज़द पे दिया जलाना, जला के रखना, कमाल ये है

(ख़िज़ां = पतझड़), (ज़द=निशाना, सामना, target)

ज़रा सी लरज़िश पे तोड़ देते हैं, सब तअल्लुक़, ज़माने वाले
सो ऐसे वैसों से भी तअल्लुक़, बना के रखना, कमाल ये है

(लरज़िश = थरथराहट, कँपकँपी, ग़लती)

किसी को देना ये मश्वरा के, वो दुःख बिछड़ने का, भूल जाए
और ऐसे लम्हे में अपने आँसू, छुपा के रखना, कमाल ये है

ख़याल अपना, मिज़ाज अपना, पसंद अपनी, कमाल क्या है
जो यार चाहे वो हाल अपना, बना के रखना, कमाल ये है

किसी की राह से ख़ुदा की ख़ातिर, उठा के कांटे, हटा के पत्थर
फिर उस के आगे निगाह अपनी, झुका के रखना, कमाल ये है

वो जिसको देखे तो दुःख का लश्कर भी लड़खाए, शिकस्त खाए
लबों पे अपने वो मुस्कुराहट, सजा के रखना, कमाल ये है

(लश्कर=भीड़, फ़ौज)

हज़ार ताक़त हो, सौ दलीलें हों, फिर भी लहजे में आजिज़ी से
अदब की लज़्ज़त, दुआ की ख़ुश्बू, बसा के रखना,कमाल ये है

(आजिज़ी = विनय, नम्रता, बेबसी, लाचारी), (अदब=शिष्टता, सभ्यता)

-मुबारक सिद्दीक़ी

Thursday, May 16, 2019

जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम

जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम
बेदार हो गए किसी ख़्वाब-ए-गिराँ से हम

(बेदार = जागृत, जागना), (ख़्वाब-ए-गिराँ =  बड़ा सपना)

ऐ नौ-बहार-ए-नाज़ तिरी निकहतों की ख़ैर
दामन झटक के निकले तिरे गुल्सिताँ से हम

(ऐ नौ-बहार-ए-नाज़ = नयी बहार के नाज़-नख़रे ), (निकहतों = ख़ुशबुओं)

पिंदार-ए-आशिक़ी की अमानत है आह-ए-सर्द
ये तीर आज छोड़ रहे हैं कमाँ से हम

(पिंदार-ए-आशिक़ी = प्रेम का अभिमान या समझ)

आओ ग़ुबार-ए-राह में ढूँढें शमीम-ए-नाज़
आओ ख़बर बहार की पूछें ख़िज़ाँ से हम

(ग़ुबार-ए-राह = रास्ते की धूल का तूफ़ान), (शमीम-ए-नाज़ = प्यार की खुशबू), (ख़िज़ाँ = पतझड़)

आख़िर दुआ करें भी तो किस मुद्दआ' के साथ
कैसे ज़मीं की बात कहें आसमाँ से हम

-अहमद नदीम क़ासमी