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Sunday, October 25, 2020

बात बिगड़ी हुई बनाने में

बात बिगड़ी हुई बनाने में
रो पड़े हम उसे हंसाने में।

ज़िन्दगी जी कहाँ किसी ने भी
लोग मसरूफ़ थे ज़माने में।

तेरी तस्वीर ही नहीं थी बस
और सब था शराबख़ाने में।

तुम को ग़म है या दर्द है कोई
क्या है तकलीफ़ मुस्कुराने में।

ये तअल्लुक़ भी कांच जैसे हैं
टूट जाते हैं बस निभाने में।

शख़्स वो जो क़रीब था मेरे
हो गया दूर आज़माने में।

सीढ़ियां तो मिली नहीं हमको
सांप ही थे हरेक ख़ाने में।

बेच आए हैं वो अना शायद
अपनी दस्तार को बचाने में।

(अना = आत्मसम्मान), (दस्तार = पगड़ी)

उसको तो चार दिन लगे थे बस
हमको अरसा लगा भुलाने में।

अब तो "वाहिद" गुरेज़ है उसको
हमको आवाज़ भी लगाने में।

(गुरेज़ = उपेक्षा, बचना)

- विकास "वाहिद"

Monday, September 21, 2020

ज़ूम

तुझे ऐ ज़िंदगी अब आँख भर के देखना है,
तेरी बारीकियों को 'ज़ूम' कर के देखना है

ग़लत इल्ज़ाम कैसे ‘फ़ेस’ करती है हक़ीक़त,
ये ख़ुद पर ही कोई इल्ज़ाम धर के देखना है.

ज़माने का चलन है~ भावनाएँ ‘कैश’ करना,
ज़माने पर भरोसा फिर भी कर के देखना है.

किसी की शख़्सियत का ‘वेट’ है किस-किस के ऊपर ?
पहाड़ों से तराई में उतर के देखना है.

चिता की राख से और क़ब्र की गहराइयों से,
कहाँ जाते हैं सारे लोग, मर के देखना है.

डरा हूँ दोस्तों की भीड़ से अक्सर, मगर अब-
मुझे अपने अकेलेपन से डर के देखना है.

-आलोक श्रीवास्तव 

Friday, May 8, 2020

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना

अदावत पे लिखना न नफ़रत पे लिखना
जो लिखना कभी तो मुहब्बत पे लिखना।

है ग़ाफ़िल बहुत ही यतीमों से दुनिया
लिखो तुम तो उनकी अज़ीयत पे लिखना।

(ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर), (अज़ीयत = पीड़ा, अत्याचार, व्यथा, यातना, कष्ट, तक़लीफ़)

चले जब हवा नफ़रतों की वतन में
ज़रूरी बहुत है मुहब्बत पे लिखना।

हसीनों पे लिखना अगर हो ज़रूरी
तो सूरत नहीं उनकी सीरत पे लिखना।

अगर बात निकले लिखो अपने घर पे
इबादत बराबर है जन्नत पे लिखना।

सितम कौन समझा है इसके कभी भी
है मुश्किल ज़माने की फितरत पे लिखना।

अगर मुझपे लिखना पड़े बाद मेरे
तो चाहत पे लिखना अक़ीदत पे लिखना।

(अक़ीदत = श्रद्धा, आस्था, विश्वास)

-विकास वाहिद

Thursday, April 30, 2020

वो नहीं मेरा मगर उस से मोहब्बत है तो है

वो नहीं मेरा मगर उस से मोहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों रिवाजों से बग़ावत है तो है

सच को मैं ने सच कहा जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाक़त है तो है

कब कहा मैं ने कि वो मिल जाए मुझ को मैं उसे
ग़ैर ना हो जाए वो बस इतनी हसरत है तो है

जल गया परवाना गर तो क्या ख़ता है शम्अ' की
रात भर जलना जलाना उस की क़िस्मत है तो है

दोस्त बिन कर दुश्मनों सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है

दूर थे और दूर हैं हर दम ज़मीन-ओ-आसमाँ
दूरियों के बा'द भी दोनों में क़ुर्बत है तो है

(क़ुर्बत = नज़दीकी)

-दीप्ति मिश्रा

Tuesday, April 28, 2020

मुझ को ख़ुद तक जाना था

मुझ को ख़ुद तक जाना था
इश्क़ तो एक बहाना था

रब तक आना जाना था
सच से जब याराना था

हम न समझ पाए वरना
दुःख भी एक तराना था

हाय वहाँ भी बच निकले
हमको जहाँ दिख जाना था

पँख बिना भी उड़ते थे
वो भी एक ज़माना था

-हस्तीमल 'हस्ती'

Friday, December 27, 2019

कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुक़द्दस ख़्वाब थे
हर ज़माने में शहादत के यही अस्बाब थे
-हसन नईम

(मुक़द्दस = पवित्र, पाक), (अस्बाब = कारण, हालात)

Monday, November 25, 2019

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा

वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा

तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में
वो श्याम तो किसी मीरा की चश्म-ए-तर में रहा

(चश्म-ए-तर = भीगी आँखें)

वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की
मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा

हज़ारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में
उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा

-गोपालदास नीरज

Wednesday, November 20, 2019

अश्क ढलते नहीं देखे जाते

अश्क ढलते नहीं देखे जाते
दिल पिघलते नहीं देखे जाते

(अश्क = आँसू)

फूल दुश्मन के हों या अपने हों
फूल जलते नहीं देखे जाते

तितलियाँ हाथ भी लग जाएँ तो
पर मसलते नहीं देखे जाते

जब्र की धूप से तपती सड़कें
लोग चलते नहीं देखे जाते

(जब्र = अन्याय, ज़ुल्म)

ख़्वाब-दुश्मन हैं ज़माने वाले
ख़्वाब पलते नहीं देखे जाते

देख सकते हैं बदलता सब कुछ
दिल बदलते नहीं देखे जाते

-अब्दुल्लाह जावेद


Saturday, August 31, 2019

रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए

रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए
हक़ बात लब पे आई तो हम बे-हुनर हुए

कल तक जहाँ में जिन को कोई पूछता न था
इस शहर-ए-बे-चराग़ में वो मो'तबर हुए

(मो'तबर =विश्वसनीय, भरोसेमंद)

बढ़ने लगी हैं और ज़मानों की दूरियाँ
यूँ फ़ासले तो आज बहुत मुख़्तसर हुए

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त)

दिल के मकाँ से ख़ौफ़ के साए न छट सके
रस्ते तो दूर दूर तलक बे-ख़तर हुए

(बे-ख़तर = बिना ख़तरे के, सुरक्षित)

अब के सफ़र में दर्द के पहलू अजीब हैं
जो लोग हम-ख़याल न थे हम-सफ़र हुए

बदला जो रंग वक़्त ने मंज़र बदल गए
आहन-मिसाल लोग भी ज़ेर-ओ-ज़बर हुए

(आहन-मिसाल = लोहे की तरह), (ज़ेर-ओ-ज़बर = ज़माने का उलट-फेर, संसार की ऊँच-नीच)

-खलील तनवीर

Thursday, August 15, 2019

लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Friday, July 26, 2019

क़दम मिला के ज़माने के साथ चल न सके
बहुत सँभल के चले हम मगर सँभल न सके
-जिगर बरेलवी

Saturday, June 29, 2019

यूँ तो हम ज़माने में कब किसी से डरते हैं
आदमी के मारे हैं, आदमी से डरते हैं
-"ख़ुमार" बाराबंकवी

Friday, May 24, 2019

ख़िज़ां की रुत में गुलाब लहजा बनाके रखना, कमाल ये है

ख़िज़ां की रुत में गुलाब लहजा बनाके रखना, कमाल ये है
हवा की ज़द पे दिया जलाना, जला के रखना, कमाल ये है

(ख़िज़ां = पतझड़), (ज़द=निशाना, सामना, target)

ज़रा सी लरज़िश पे तोड़ देते हैं, सब तअल्लुक़, ज़माने वाले
सो ऐसे वैसों से भी तअल्लुक़, बना के रखना, कमाल ये है

(लरज़िश = थरथराहट, कँपकँपी, ग़लती)

किसी को देना ये मश्वरा के, वो दुःख बिछड़ने का, भूल जाए
और ऐसे लम्हे में अपने आँसू, छुपा के रखना, कमाल ये है

ख़याल अपना, मिज़ाज अपना, पसंद अपनी, कमाल क्या है
जो यार चाहे वो हाल अपना, बना के रखना, कमाल ये है

किसी की राह से ख़ुदा की ख़ातिर, उठा के कांटे, हटा के पत्थर
फिर उस के आगे निगाह अपनी, झुका के रखना, कमाल ये है

वो जिसको देखे तो दुःख का लश्कर भी लड़खाए, शिकस्त खाए
लबों पे अपने वो मुस्कुराहट, सजा के रखना, कमाल ये है

(लश्कर=भीड़, फ़ौज)

हज़ार ताक़त हो, सौ दलीलें हों, फिर भी लहजे में आजिज़ी से
अदब की लज़्ज़त, दुआ की ख़ुश्बू, बसा के रखना,कमाल ये है

(आजिज़ी = विनय, नम्रता, बेबसी, लाचारी), (अदब=शिष्टता, सभ्यता)

-मुबारक सिद्दीक़ी

Tuesday, May 21, 2019

भला है कौन, बुरा कौन, इस ज़माने में
बुरा, बुरा भी नहीं, भला, भला भी नहीं
-"फ़िराक़" गोरखपुरी

Monday, May 20, 2019

सियाह-ख़ाना-ए-दिल पर नज़र भी करता है

सियाह-ख़ाना-ए-दिल पर नज़र भी करता है
मेरी ख़ताओं को वो दरगुज़र भी करता है

(सियाह-ख़ाना-ए-दिल = दिल का अँधेरा कोना), (दरगुज़र = अनदेखा)

परिंद ऊँची उड़ानों की धुन में रहता है
मगर ज़मीं की हदों में बसर भी करता है

तमाम उम्र के दरिया को मोड़ देता है
वो एक हर्फ़ जो दिल पर असर भी करता है

(हर्फ़ = अक्षर)

वो लोग जिन की ज़माना हँसी उड़ाता है
इक उम्र बाद उन्हें मो'तबर भी करता है

(मो'तबर = विश्वसनीय, भरोसेमंद)

जला के दश्त-ए-तलब में उम्मीद की शमएँ
अज़िय्यतों से हमें बे-ख़बर भी करता है

(दश्त-ए-तलब = इच्छाओं के रेगिस्तान), (अज़िय्यतों = यातनाओं, तकलीफ़ों)

-खलील तनवीर

Friday, May 10, 2019

पहले अपना मुआयना करना

पहले अपना मुआयना करना
फिर ज़माने पे तब्सरा करना

(तब्सरा = आलोचना, समीक्षा, तन्कीद)

एक सच्ची पुकार काफ़ी है
हर घड़ी क्या ख़ुदा-खुदा करना

ग़ैर मुमकिन भी है गुनाह भी है
पर को परवाज़ से जुदा करना

अहमियत वे अना की क्या जानें
ख़ूँ में जिनके है याचना करना

(अना = आत्मसम्मान)

आप ही अपने काम आएँगे
सीखिए ख़ुद से मशवरा करना

-हस्तीमल 'हस्ती'

Tuesday, May 7, 2019

ब-रंग-ए-नग़मा बिखर जाना चाहते हैं हम

ब-रंग-ए-नग़मा बिखर जाना चाहते हैं हम
किसी के दिल में उतर जाना चाहते हैं हम

(ब-रंग-ए-नग़मा = राग/ लय/ तराने के रंग की तरह)

ज़माना और अभी ठोकरें लगाए हमें
अभी कुछ और सँवर जाना चाहते हैं हम

उसी तरफ़ हमें जाने से रोकता है कोई
वो एक सम्त जिधर जाना चाहते हैं हम

(सम्त = तरफ़, दिशा की ओर)

वहाँ हमारा कोई मुंतज़िर नहीं फिर भी
हमें न रोक कि घर जाना चाहते हैं हम

 (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

नदी के पार खड़ा है कोई चराग़ लिए
नदी के पार उतर जाना चाहते हैं हम

उन्हें भी जीने के कुछ तजरबे हुए होंगे
जो कह रहे हैं कि मर जाना चाहते हैं हम

कुछ इस अदा से कि कोई चराग़ भी न बुझे
हवा की तरह गुज़र जाना चाहते हैं हम

ज़ियादा उम्र तो होती नहीं गुलों की मगर
गुलों की तरह निखर जाना चाहते हैं हम

-वाली आसी

Saturday, May 4, 2019

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो

लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो
होश वाले हो तो हर बात को समझा न करो

(लफ़्ज़ ओ मंज़र = शब्द और दृश्य), (मआनी = अर्थ, मतलब, माने)

वो नहीं है न सही तर्क-ए-तमन्ना न करो
दिल अकेला है इसे और अकेला न करो

(तर्क-ए-तमन्ना = इच्छाओं/ चाहतों का त्याग)

बंद आँखों में हैं नादीदा ज़माने पैदा
खुली आँखों ही से हर चीज़ को देखा न करो

(नादीदा = अदृष्ट, अप्रत्यक्ष, अगोचर, Unseen)

दिन तो हंगामा-ए-हस्ती में गुज़र जाएगा
सुब्ह तक शाम को अफ़्साना-दर-अफ़्साना करो

(हंगामा-ए-हस्ती = जीवन की उथल-पुथल/ अस्तव्यस्तता)

-महमूद अयाज़

Monday, April 22, 2019

क़दम मिला के ज़माने के साथ चल न सके
बहुत सँभल के चले हम मगर सँभल न सके
-जिगर बरेलवी

Tuesday, April 16, 2019

इक पल बग़ैर देखे उसे क्या गुज़र गया

इक पल बग़ैर देखे उसे क्या गुज़र गया
ऐसे लगा कि एक ज़माना गुज़र गया

सब के लिए बुलंद रहे हाथ उम्र भर
अपने लिए दुआओं का लम्हा गुज़र गया

कोई हुजूम-ए-दहर में करता रहा तलाश
कोई रह-ए-हयात से तन्हा गुज़र गया

(हुजूम-ए-दहर = दुनिया की भीड़), (रह-ए-हयात = ज़िन्दगी की राह)

मिलना तो ख़ैर उस को नसीबों की बात है
देखे हुए भी उस को ज़माना गुज़र गया

दिल यूँ कटा हुआ है किसी की जुदाई में
जैसे किसी ज़मीन से दरिया गुज़र गया

इस बात का मलाल बहुत है मुझे 'अदीम'
वो मेरे सामने से अकेला गुज़र गया

हम देखने का ढंग समझते रहे 'अदीम'
इतने में ज़िंदगी का तमाशा गुज़र गया

बाक़ी बस एक नाम-ए-ख़ुदा रह गया 'अदीम'
सब कुछ बहा के वक़्त का दरिया गुज़र गया

-अदीम हाशमी