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Wednesday, April 22, 2020

आओ साथी जी लेते हैं

आओ साथी जी लेते हैं
विष हो या अमृत हो जीवन
सहज भाव से पी लेते हैं

सघन कंटकों भरी डगर है
हर प्रवाह के साथ भँवर है
आगे हैं संकट अनेक, पर
पीछे हटना भी दुष्कर है।
विघ्नों के इन काँटों से ही
घाव हृदय के सी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

नियति हमारा सबकुछ लूटे
मन में बसा घरौंदा टूटे
जग विरुद्ध हो हमसे लेकिन
जो पकड़ा वो हाथ न छूटे
कठिन बहुत पर नहीं असम्भव
इतनी शपथ अभी लेते हैं
आओ साथी जी लेते है

श्वासों के अंतिम प्रवास तक
जलती-बुझती हुई आस तक
विलय-विसर्जन के क्षण कितने
पूर्णतृप्ति-अनबुझी प्यास तक
बड़वानल ही यदि यथेष्ट है
फिर हम राह वही लेते हैं
आओ साथी जी लेते हैं

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Thursday, October 24, 2019

एक पुराने दुःख ने पुछा

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

जग ने मेरे सुख-पन्छी के पाँखों में पत्थर बांधे हैं
मेरी विपदाओं ने अपने पैरों मे पायल साधे हैं
एक वेदना मुझसे बोली मैंने अपनी आँख न खोली
उत्तर दिया, चली मत आना मैंने वो उर बदल दिया है

(उर = ह्रदय, दिल)

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

वैरागिन बन जाएँ वासना, बना सकेगी नहीं वियोगी
साँसों से आगे जीने की हठ कर बैठा मन का योगी
एक पाप ने मुझे पुकारा मैंने केवल यही उचारा
जो झुक जाए तुम्हारे आगे मैंने वो सर बदल दिया है

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

मन की पावनता पर बैठी, है कमजोरी आँख लगाए
देखें दर्पण के पानी से, कैसे कोई प्यास बुझाए
खंडित प्रतिमा बोली आओ, मेरे साथ आज कुछ गाओ
उत्तर दिया, मौन हो जाओ, मैंने वो स्वर बदल दिया है

एक पुराने दुःख ने पुछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो?
उत्तर दिया,चले मत आना मैंने वो घर बदल दिया है

-शिशुपाल सिंह 'निर्धन'

Saturday, September 28, 2019

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं
आँसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं

(हिज्र = बिछोह, जुदाई)

रस्ता देखने वाली आँखों के अनहोने-ख़्वाब
प्यास में भी दरियाओं जैसी बातें करते हैं

ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं

एक ज़रा सी जोत के बल पर अँधियारों से बैर
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं

-इफ़्तिख़ार आरिफ़

Friday, August 2, 2019

चमकती चीज़ को सोना समझ कर

चमकती चीज़ को सोना समझ कर
बहुत पछताये किसको क्या समझ कर

न जाने कितनी सारी बेड़ियों को
पहन लेते हैं हम गहना समझ कर

हमारी प्यास की शिद्दत न पूछो
समुन्दर पी गये क़तरा समझ कर

(शिद्दत = तीव्रता), (क़तरा = कण, बूँद)

समुन्दर के ख़ज़ाने मुंतज़िर थे
हमीं उतरे नहीं गहरा समझ कर

 (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

भँवर तक हमको पहुँचाया उसी ने
जिसे थामे थे हम तिनका समझ कर

-राजेश रेड्डी

Wednesday, April 10, 2019

उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है

उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है
अजीब दिल है गिरूँ तो सँभाल लेता है

ये कैसा शख़्स है कितनी ही अच्छी बात कहो
कोई बुराई का पहलू निकाल लेता है

ढले तो होती है कुछ और एहतियात की उम्र
कि बहते बहते ये दरिया उछाल लेता है

बड़े-बड़ों की तरह-दारियाँ नहीं चलतीं
उरूज तेरी ख़बर जब ज़वाल लेता है

(उरूज = बुलंदी, ऊँचाई), (ज़वाल = हृास, पतन)

जब उस के जाम में इक बूँद तक नहीं होती
वो मेरी प्यास को फिर भी सँभाल लेता है

-वसीम बरेलवी

Tuesday, January 29, 2019

पीता हूँ जितनी उतनी ही बढ़ती है तिश्नगी
साक़ी ने जैसे प्यास मिला दी शराब में
-नामालूम 

Thursday, January 24, 2019

जाने वाले मुझे कुछ अपनी निशानी दे जा
रूह प्यासी न रहे, आँख में पानी दे जा
-मिदहत-उल-अख़्तर

Sunday, December 30, 2018

यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है

यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है
वो कौन है जो है भी नहीं और उदास है

मुमकिन है लिखने वाले को भी ये ख़बर न हो
क़िस्से में जो नहीं है वही बात ख़ास है

माने न माने कोई हक़ीक़त तो है यही
चर्ख़ा है जिस के पास उसी की कपास है

इतना भी बन-सँवर के न निकला करे कोई
लगता है हर लिबास में वो बे-लिबास है

छोटा बड़ा है पानी ख़ुद अपने हिसाब से
उतनी ही हर नदी है यहाँ जितनी प्यास है

-निदा फ़ाज़ली

Sunday, December 23, 2018

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा

उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा

इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे
रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा

(तबस्सुम = मुस्कुराहट)

प्यास जिस नहर से टकराई वो बंजर निकली
जिस को पीछे कहीं छोड़ आए वो दरिया होगा

मिरे बारे में कोई राय तो होगी उस की
उस ने मुझ को भी कभी तोड़ के देखा होगा

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा

-निदा फ़ाज़ली

Friday, December 21, 2018

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
शीशा उठा कि जू-ए-मआनी निकल पड़े

(संग-ए-लफ़्ज़ = शब्द का पत्थर), (गिरानी = भारीपन, बोझ), (शीशा = शराब की बोतल), (जू-ए-मआनी = अर्थों/ मतलबों/ Meanings की नदी)

प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े

(दश्त = जंगल), (मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

मुझ को है मौज मौज गिरह बाँधने का शौक़
फिर शहर की तरफ़ न रवानी निकल पड़े

(रवानी  = बहाव, प्रवाह, धार)

होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े

'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े

(ख़ाना-ए-दिल = हृदय रुपी घर)

-इक़बाल साजिद

Tuesday, March 28, 2017

हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे

हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे
किस को सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे

(सहरा = रेगिस्तान),  (सैराब = भरपूर, भरा हुआ)

उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
ऐ मिरी जान के दुश्मन, तुझे अल्लाह रक्खे

हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा
कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे

दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है
जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे

(वाबस्ता =  सम्बन्धित, सम्बद्ध, बंधा हुआ)

कम नहीं तमअ-ए-इबादत भी तो हिर्स-ए-ज़र से
फ़क़्र तो वो है कि जो दीन न दुनिया रक्खे

(तमअ-ए-इबादत = झूठी प्रार्थना), (हिर्स-ए-ज़र = पैसे का लालच), (फ़क़्र = साधुता, दरवेशी)

हँस न इतना भी फ़क़ीरों के अकेले-पन पर
जा ख़ुदा मेरी तरह तुझ को भी तन्हा रक्खे

ये क़नाअत है, इताअत है, कि चाहत है 'फ़राज़'
हम तो राज़ी हैं वो जिस हाल में जैसा रक्खे

(क़नाअत = सन्तोष), (इताअत = हुक्म मानना, आज्ञापालन)

-अहमद फ़राज़

Wednesday, May 4, 2016

सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया

सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया
कोई चराग़ तो जलता हुआ नज़र आया

दुखों ने राब्ते मज़बूत कर दिए अपने
तमाम शहर बदलता हुआ नज़र आया

(राब्ता = मेल-जोल, सम्बन्ध)

शदीद प्यास ज़मीं पर गिराने वाली थी
कि एक चश्मा उबलता हुआ नज़र आया

(शदीद = कठिन, मुश्किल, कठोर, घोर), (चश्मा = पानी का सोता)

वो मेरे साथ भला कितनी दूर जाएगा
जो हर कदम पे सँभलता हुआ नज़र आया

नई हवा से बचूँ कैसे मैं कि शहर मेरा
नए मिज़ाज में ढलता हुआ नज़र आया

तवकआत ही उठने लगीं ज़माने से
जो एक शख़्स बदलता हुआ नज़र आया

(तवकआत = उम्मीदें, आशायें)

शिकस्त दे के मुझे खुश तो था बहुत 'आलम'
मगर वो हाथ भी मलता हुआ नज़र आया

-आलम खुर्शीद

Tuesday, March 22, 2016

ऐ अब्र-ए-मुहब्बत, तू कहीं और बरसना
मैं रेत का टीला हूँ, मेरी प्यास बहुत है
-नामालूम

(अब्र-ए-मुहब्बत = मुहब्बत के बादल)

Thursday, March 3, 2016

प्यास को बेहिसाब मत करना

प्यास को बेहिसाब मत करना
ज़िन्दगी को अज़ाब मत करना

(अज़ाब = कष्ट, यातना, पीड़ा, दुःख, तकलीफ)

जाग कर ख़्वाब देखना लेकिन
नींद में ख़्वाब ख़्वाब मत करना

-चाँदनी पाण्डेय‬

Wednesday, February 24, 2016

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में

रेंग रहे हैं साये अब वीराने में
धूप उतर आई कैसे तहख़ाने में

जाने कब तक गहराई में डूबूँगा
तैर रहा है अक्स कोई पैमाने में

उस मोती को दरिया में फेंक आया हूँ
मैं ने सब कुछ खोया जिसको पाने में

हम प्यासे हैं ख़ुद अपनी कोताही से
देर लगाई हम ने हाथ बढ़ाने में

क्या अपना हक़ है हमको मालूम नहीं
उम्र गुज़ारी हम ने फ़र्ज़ निभाने में

वो मुझ को आवारा कहकर हँसते हैं
मैं भटका हूँ जिनको राह पे लाने में

कब समझेगा मेरे दिल का चारागर
वक़्त लगेगा ज़ख्मों को भर जाने में

(चारागर = चिकित्सक)

हँस कर कोई ज़ह्र नहीं पीता 'आलम'
किस को अच्छा लगता है मर जाने में

- आलम खुर्शीद

सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया

सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया
कोई चिराग़ तो जलता हुआ नज़र आया

दुखों ने राब्ते मज़बूत कर दिए अपने
तमाम शहर बदलता हुआ नज़र आया

(राब्ते = मेल-जोल, संबंध)

ये प्यास मुझको ज़मीं पर गिराने वाली थी
कि एक चश्मा उबलता हुआ नज़र आया

(चश्मा = पानी का सोता)

वो मेरे साथ भला कितनी दूर जाएगा
जो हर कदम पे सँभलता हुआ नज़र आया

नई हवा से बचूँ कैसे मैं कि शहर मेरा
नए मिज़ाज में ढलता हुआ नज़र आया

तवक़्क़आत ही उठने लगीं ज़माने से
जो एक शख़्स बदलता हुआ नज़र आया

(तवक़्क़आत = उम्मीदें, आशाएं)

शिकस्त दे के मुझे खुश तो था बहुत 'आलम'
मगर वो हाथ भी मलता हुआ नज़र आया।

- आलम खुर्शीद

सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना

सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना
उदास आँखों में खुशरंग ख़्वाब रख देना

(सराब = मृगतृष्णा)

सदा से प्यास ही इस ज़िन्दगी का हासिल है
मेरे हिसाब में ये बेहिसाब रख देना

वफ़ा, ख़ुलूस, मुहब्बत, सराब ख़्वाबों के
हमारे नाम ये सारे अज़ाब रख देना

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठां), (सराब = मृगतृष्णा), (अज़ाब = कष्ट, यातना, पीड़ा, दुःख, तकलीफ)

सुना है चाँद की धरती पे कुछ नहीं उगता
वहाँ भी गोमती, झेलम, चिनाब रख देना

क़दम क़दम पे घने कैक्टस उग आए हैं
मेरी निगाह में अक्से-गुलाब रख देना

(अक्से-गुलाब = गुलाब का प्रतिबिम्ब/ तस्वीर)

मैं खो न जाऊँ कहीं तीरगी के जंगल में
किसी शजर के तले आफ़ताब रख देना

(तीरगी = अन्धकार), (शजर = पेड़, वृक्ष), (आफ़ताब = सूरज)

- आलम खुर्शीद

बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में

बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में
रह गया मैं फिर भी प्यासा ख़्वाब में

जी रहा हूँ और दुनिया में मगर
देखता हूँ और दुनिया ख़्वाब में

रोज़ आता है मेरा ग़म बाँटने
आसमाँ से इक सितारा ख़्वाब में

इस जमीं पर तो नज़र आता नहीं
बस गया है जो सरापा ख़्वाब में

(सरापा = सिर से पाँव तक)

मुद्दतों से दिल है उसका मुंतज़िर
कोई वादा कर गया था ख़्वाब में

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

एक बस्ती है जहाँ खुश हैं सभी
देख लेता हूँ मैं क्या-क्या ख़्वाब में

असल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
क्यों नज़र आये तमाशा ख़्वाब में

खोल कर आँखें पशेमाँ हूँ बहुत
खो गया जो कुछ मिला था ख़्वाब में

(पशेमाँ = लज्जित)

- आलम खुर्शीद

Friday, January 8, 2016

न अब वो प्यास न, प्यासे के ख़्वाब जैसा कुछ

न अब वो प्यास, न प्यासे के ख़्वाब जैसा कुछ
मगर है सामने अब तक सराब जैसा कुछ

(सराब = मृगतृष्णा)

अब उस का नाम, न् उसकी कोई कहानी याद
जो बरसों मैं ने पढ़ा था किताब कैसा कुछ

कोई शबीह निगाहों में दौड़ जाती है
कभी जो देखूँ कहीं माहताब जैसा कुछ

(शबीह = तस्वीर, चित्र), (माहताब = चन्द्रमा, चाँद)

कहीं सुकूं से मुझे रहने ही नहीं देता
मेरी रगों में रवां इज़्तिराब जैसा कुछ

(रवां = बहता हुआ), (इज़्तिराब = घबराहट, बेचैनी)

ख्याल आया कि लिक्खूँ मैं दास्ताँ अपनी
बना भी खाका तो खाना-खराब जैसा कुछ

(खाना-खराब = अभागा)

भटक रहा हूँ कि दरिया कहीं नज़र आए
उठाए फिरता हूँ सर पर अज़ाब जैसा कुछ

(अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट, पाप)

लरज़ रहे हैं मेरे दिल के तार भी 'आलम'
कहीं पे बजने लगा है रबाब जैसा कुछ

(रबाब = सारंगी की तरह का एक प्रकार का बाजा)

-आलम खुर्शीद

نہ اب وہ پیاس نہ پیاسے کے خواب جیسا کچھ
 مگر ہے سامنے اب تک سراب جیسا کچھ

اب اس کا نام نہ اس کی کوئی کہانی یاد
 جو برسوں پڑھتا رہا میں کتاب جیسا کچھ
 کوئی شبیہ نگاہوں میں دوڑ جاتی ہے
 کبھی جو دیکھوں کہیں ماہتاب جیسا کچھ
 مجھے سکوں سے کہیں رہنے ہی نہیں دیتا
 مرے لہو میں رواں اضطراب جیسا کچھ
 خیال آیا کہ لکھوں میں داستاں اپنی
 بنا بھی خاکہ تو خانہ خراب جیسا کچھ
 بھٹک رہا ہوں کہ دریا کہیں نظر آۓ
 اٹھاۓ پھرتا ہوں سر پر عذاب جیسا کچھ
 اب اس بساط پہ کوئی گمان کرنا کیا
 کہ بہتے آب پہ میں ہوں حباب جیسا کچھ
 لرز رہے ہیں مرے دل کے تار بھی عالم
 کہیں پہ بجنے لگا ہے رباب جیسا کچھ

Tuesday, October 27, 2015

जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है

जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है
मरो तो ऐसे कि जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं |

ये  एक  राज़  के दुनिया न जिसको जान  सकी
यही वो राज़ है जो ज़िंदगी का  हासिल  है,
तुम्हीं  कहो  तुम्हे ये बात कैसे  समझाऊँ
कि ज़िंदगी  की  घुटन ज़िंदगी की कातिल  है,
हर  इक  निगाह  को  कुदरत का  ये इशारा है
जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है ।

जहां में आ के जहां से खिचें-खिचें न रहो
वो  ज़िंदगी  ही  नही  जिसमें  आस  बुझ  जाए,
कोई भी प्यास दबाये से दब नहीं सकती
इसी  से  चैन  मिलेगा  कि प्यास  बुझ  जाए,
ये  कह के मुड़ता  हुआ  ज़िंदगी  का  धारा  है
जियो तो  ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है

ये  आसमां, ये ज़मीं, ये फ़िज़ा, ये नज़्ज़ारे
तरस  रहे  हैं  तुम्हारी मेरी नज़र  के लिए
नज़र चुरा  के हर इक शै को  यूं  न ठुकराओ
कोई  शरीक-ए-सफ़र  ढूँढ़ लो सफ़र के लिए
बहुत  करीब  से  मैंने  तुम्हें  पुकारा  है
जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है ।

-साहिर लुधियानवी