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Sunday, June 23, 2019

हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था

हर एक शख़्स ख़फ़ा मुझ से अंजुमन में था
कि मेरे लब पे वही था जो मेरे मन में था

 (अंजुमन = सभा, महफ़िल)

कसक उठी थी कुछ ऐसी कि चीख़ चीख़ पड़ूँ
रहा मैं चुप ही कि बहरों की अंजुमन में था

उलझ के रह गई जामे की दिलकशी में नज़र
उसे किसी ने न देखा जो पैरहन में था

(जामे  = पोशाक), (पैरहन = लिबास, वस्त्र)

कभी मैं दश्त में आवारा इक बगूला सा
कभी मैं निकहत-ए-गुल की तरह चमन में था

(दश्त = जंगल), (बगूला = बवंडर, चक्रवात), (निकहत-ए-गुल = गुलाब की खुशबू)

मैं उस को क़त्ल न करता तो ख़ुद-कुशी करता
वो इक हरीफ़ की सूरत मिरे बदन में था

(हरीफ़ = प्रतिद्वंदी, विरोधी)

उसी को मेरे शब-ओ-रोज़ पर मुहीत न कर
वो एक लम्हा-ए-कमज़ोर जो गहन में था

(शब-ओ-रोज़ = रात और दिन), (मुहीत = आच्छादित, छाया हुआ, व्यापक, फैला हुआ), (गहन = ग्रहण)

मिरी सदा भी न मुझ को सुनाई दी 'साबिर'
कुछ ऐसा शोर बपा सहन-ए-अंजुमन में था

(सदा = आवाज़), ( सहन-ए-अंजुमन = महफ़िल का आँगन)

-नो-बहार सिंह "साबिर"



Tuesday, June 18, 2019

फ़रिश्तों से भी अच्छा मैं बुरा होने से पहले था

फ़रिश्तों से भी अच्छा मैं बुरा होने से पहले था
वो मुझ से इंतिहाई ख़ुश ख़फ़ा होने से पहले था

किया करते थे बातें ज़िंदगी-भर साथ देने की
मगर ये हौसला हम में जुदा होने से पहले था

-अनवर शऊर

Friday, December 16, 2016

यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे

यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज-ए-सबा हो जैसे

(मौज-ए-सबा = पुरवाई का झोंका)

लोग यूँ देख के हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न मिल हम से ख़ुदा हो जैसे

(शिर्क = किसी और को ईश्वर/ ख़ुदा के समान मानना)

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे एहसान किया हो जैसे

ऐसे अंजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे

हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे

ज़िंदगी बीत रही है 'दानिश'
एक बे-जुर्म सज़ा हो जैसे

-एहसान दानिश



Saturday, August 6, 2016

इस बात पर ख़फ़ा है मिरा शहरे-नामुराद
सोना निकालता हूँ मैं मिट्टी के ढेर से
-आलम खुर्शीद

Friday, July 8, 2016

जाता क्या है

तू क्या है ये तुझको पता है
क्या है गर दुनिया ही ख़फ़ा है

मारे दुनिया तू ना मरेगा
गर तुझको अब भी जीना है

सोच रहा है दुनिया की तू
अच्छा इसने किसको कहा है

क्या खोया है सोचूं क्यूं मैं
जो रह जाए वो अच्छा है

प्यार किया था प्यार किये जा
सोच नहीं के मिलता क्या है

मिलते हैं दुनिया में कितने
तेरे जैसा कौन हुआ है

सब ख़ुश हैं तो ख़ुश हो 'रोहित'
ऐसा कर के जाता क्या है

-रोहित जैन

https://rohitler.wordpress.com/

Wednesday, February 24, 2016

क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे

क़ुर्बतों के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे
यूँ किसी के साथ रहकर हम जुदा रहने लगे

(क़ुर्बतों = निकटता, सामीप्य)

किस भरोसे पर किसी से आश्नाई कीजिये
आश्ना चेहरे भी तो नाआश्ना रहने लगे

(आश्नाई = मैत्री, दोस्ती), (आश्ना = मित्र, दोस्त, परिचित), (नाआश्ना = अपरिचित, नावाक़िफ़, अनभिज्ञ)

हर सदा ख़ाली मकानों से पलट आने लगी
क्या पता अब किस जगह अहले-वफ़ा रहने लगे

(सदा = आवाज़), (अहले-वफ़ा = वफ़ा करने वाले)

रंग-ओ-रौगन बाम-ओ-दर के उड़ ही जाते हैं जनाब
जब किसी के घर में कोई दूसरा रहने लगे

(बाम-ओ-दर = छत और दरवाज़ा)

हिज्र कि लज़्ज़त जरा उस के मकीं से पूछिये
हर घड़ी जिस घर का दरवाज़ा खुला रहने लगे

(हिज्र = बिछोह, जुदाई), (लज़्ज़त = आनंद), (मकीं = मकान में रहने वाला, निवासी)

इश्क़ में तहज़ीब के हैं और ही कुछ सिलसिले
तुझ से हो कर हम ख़फ़ा, खुद से ख़फ़ा रहने लगे

फिर पुरानी याद कोई दिल में यूँ रहने लगी
इक खंडहर में जिस तरह जलता दिया रहने लगे

आसमाँ से चाँद उतरेगा भला क्यों ख़ाक पर
तुम भी 'आलम' वाहमों में मुब्तला रहने लगे

(वाहमों = कल्पनाओं, भ्रमों), (मुब्तला = ग्रस्त, जकड़ा हुआ, फँसा हुआ मुग्ध, आसक्त)

- आलम खुर्शीद

Wednesday, May 20, 2015

अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम

अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम
ख़ुद को समेटते हैं यहाँ से वहाँ से हम

क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकून
नाराज़ हैं ज़मीं से ख़फ़ा आसमाँ से हम

अब तो सराब ही से बुझाने लगे हैं प्यास
लेने लगें हैं काम यक़ीं का गुमाँ से हम

(सराब = मृगतृष्णा), (गुमाँ = भ्रम, वहम)

लेकिन हमारी आँखों ने कुछ और कह दिया
कुछ और कहते रह गए अपनी ज़बाँ से हम

आईने से उलझता है जब भी हमारा अक्स
हट जाते हैं बचा के नज़र दरमियाँ से हम

मिलते नहीं हैं अपनी कहानी में हम कहीं
गायब हुए हैं जब से तेरी दास्ताँ से हम

क्या जाने किस निशाने पे जाकर लगेंगे कब
छोड़े तो जा चुके हैं किसी के कमां से हम

ग़म बिक रहे थे मेले में ख़ुशियों के नाम पर
मायूस होक लौटे हैं हर इक दुकाँ से हम

कुछ रोज़ मंज़रों से जब उट्ठा नहीं धुआं
गुज़रे हैं सांस रोक के अम्न-ओ-अमां से हम

-राजेश रेड्डी

https://youtu.be/4iu6QRriOV4

 

Saturday, December 20, 2014

एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा

एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा था ख़ुदा हो बैठा

(संग = पत्थर)

उठ के मंज़िल ही अगर आये तो शायद कुछ हो
शौक़-ए-मंज़िल तो मेरा आबला-पा हो बैठा

(आब्ला-पा = छाले वाले पाँव)

मसलह्त छीन गई क़ुव्वत-ए-ग़ुफ़्तार मगर
कुछ न कहना ही मेरा मेरी ख़ता हो बैठा

(मस्लहत = समझदारी), (क़ुव्वत-ए-ग़ुफ़्तार = बात करने की ताकत)

शुक्रिया ऐ मेरे क़ातिल ऐ मसीहा मेरे
ज़हर जो तूने दिया था वो दवा हो बैठा

जान-ए-शहज़ाद को मिन-जुम्ला-ए-आदा पा कर
हूक वो उट्ठी कि जी तन से जुदा हो बैठा

(मिन-जुम्ला-ए-आदा = दुश्मनों में से एक)

-फ़रहत शहज़ाद

मेहदी हसन/ Mehdi Hassan

आबिदा परवीन/ Abida Parveen

Saturday, August 30, 2014

फ़ासला तो है मगर, कोई फ़ासला नहीं
मुझ से तुम जुदा सही, दिल से तो जुदा नहीं

आसमाँ की फ़िक्र क्या, आसमाँ ख़फ़ा सही
आप ये बताइये, आप तो ख़फ़ा नहीं

(ख़फ़ा = नाराज़)

कारवाँ-ए-आरज़ू इस तरफ़ ना रुख़ करे
उन की रहगुज़र है दिल, आम रास्ता नहीं

(कारवाँ-ए-आरज़ू = इच्छाओं का काफ़िला), (रहगुज़र = राहगुज़र = रास्ता, मार्ग सड़क)

कश्तियाँ नहीं तो क्या, हौसले तो पास हैं 
कह दो नाख़ुदाओं से, तुम कोई ख़ुदा नहीं 

(नाख़ुदा = नाविक, मल्लाह)

लीजिये बुला लिया आपको ख़याल में 
अब तो देखिये हमें, कोई देखता नहीं  

इक शिकस्त-ए-आईना बन गयी है सानेहा
टूट जाए दिल अगर, कोई हादसा नहीं

(शिकस्त-ए-आईना = आईने का टूटना), (सानेहा = आपत्ति, मुसीबत, दुर्घटना)

आइये चराग़-ए-दिल आज ही जलाएँ हम
कैसी कल हवा चले, कोई जानता नहीं

(चराग़-ए-दिल =  दिल के दीपक)

किस लिए 'शमीम' से इतनी बद-गुमानियाँ
मिल के देखिये कभी, आदमी बुरा नहीं

(बद-गुमानियाँ = बुरे ख़्याल रखना, कुधारणा

-शमीम करहानी 

Sunday, December 1, 2013

तेरे दर से उठकर जिधर जाऊं मैं
चलूँ दो कदम और ठहर जाऊं मैं

अगर तू ख़फ़ा हो तो परवा नहीं
तेरा ग़म ख़फ़ा हो तो मर जाऊं मैं

तब्बसुम ने इतना डसा है मुझे
कली मुस्कुराए तो डर जाऊं मैं

सम्भाले तो हूँ खुदको, तुझ बिन मगर
जो छू ले कोई तो बिखर जाऊं मैं
-ख़ुमार बाराबंकवी

Friday, July 5, 2013

उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे

उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे

उसने पोंछे ही नहीं अश्क़ मेरी आँखों से
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे

बस उसी दिन से ख़फ़ा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आईना इक रोज दिखाया था जिसे

छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई
इक ग़ज़ल शौक़ से मैंने कभी गाया था जिसे

दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे

होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे

वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है
मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे

-कुँअर बेचैन

Monday, May 13, 2013

मुझको आदत है रूठ जाने की,
आप मुझे मना लिया कीजे ।
-जॉन एलिया

Wednesday, March 6, 2013

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है

ये किसका तसव्वुर है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है

 [(तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद), (फ़साना = विवरण, हाल), (अश्क = आँसू), (तस्बीह = माला)]

हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है

वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है

वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है

(जमाल = बहुत सुन्दर रूप, सौंदर्य, ख़ूबसूरती)

या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है

अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में
 मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है

जो उनपे गुज़रती है किसने उसे जाना है 
अपनी ही मुसीबत है अपना ही फ़साना है 

आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है

ऐ इश्क़-ए जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़-ए जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर को हँस-हँस के रुलाना है

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

दिल संग-ए-मलामत का हरचंद निशाना है
दिल फिर भी मेरा दिल है दिल ही तो ज़माना है

(संग-ए-मलामत = निंदा)

आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है

-जिगर मुरादाबादी

जगजीत सिंह/ Jagjit Singh

https://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=RQ7VuIEzAtA



Jagjit Singh Rare live version




आबिदा परवीन/ Abida Parveen



आशा भोंसले/ Asha Bhonsle



Chitra Singh


आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें
मुझको ये वहम नहीं है कि खु़दा है मुझमें

मेरे चहरे पे मुसलसल हैं निगाहें उसकी
जाने किस शख़्स को वो ढूँढ रहा है मुझमें

(मुसलसल = लगातार)

हँसना चाहूँ भी तो हँसने नहीं देता मुझको
ऐसा लगता है कोई मुझसे ख़फ़ा है मुझमें

मैं समुन्दर हूँ उदासी का अकेलेपन का
ग़म का इक दरिया अभी आके मिला है मुझमें

इक ज़माना था कई ख्वाबों से आबाद था मैं
अब तो ले दे के बस इक दश्त बचा है मुझमें

किसको इल्ज़ाम दूँ मैं किसको ख़तावार कहूँ
मेरी बरबादी का बाइस तो छुपा है मुझमें

-राजेश रेड्डी

Monday, February 25, 2013

मिलते हैं इस अदा से कि गोया ख़फ़ा नहीं,
क्या आपकी निगाह से हम आशना नहीं ।
-हसरत मोहानी

(आशना = परिचित)
 

Wednesday, February 13, 2013

तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों,
अब हो चला यक़ीं कि बुरे हम हैं दोस्तों ।

(बरहम = नाराज़)

किस को हमारे हाल से निस्बत है क्या करें,
आँखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो ।

अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे,
अपनी तलाश में तो हमीं हम हैं दोस्तों ।

कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा,
कुछ शहर के चराग़ भी मद्धम हैं दोस्तों ।

इस शहर-ए-आरज़ू से भी बाहर निकल चलो,
अब दिल की रौनक़ें भी कोई दम हैं दोस्तो ।

सब कुछ सही 'फ़राज़' पर इतना ज़रूर है,
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो ।

-अहमद फ़राज़

Friday, February 8, 2013

इन दिनों तुम जो रूठे-रूठे हो,
ज़िन्दगी भी ख़फ़ा-ख़फ़ा सी है।

और कुछ देर मुस्कुराते हैं,
फिर वही हम, वही उदासी है।
-वसीम बरेलवी

Tuesday, January 22, 2013

मेरे अशआरों से ख़फ़ा हैं, कुछ दोस्त मेरे,
दुखती रगों पे, उँगलियाँ तो नहीं रख बैठा ?

-शायर: नामालूम

Wednesday, January 16, 2013

प्यार करना भी जुर्म है शायद,
आज दुनिया ख़फ़ा-सी लगती है।
-बशीर बद्र

Friday, January 4, 2013

अजीब शख्स है नाराज़ हो के हँसता है,
मैं चाहता हूँ, ख़फ़ा हो तो ख़फ़ा ही लगे।

हज़ारों भेस में फिरते हैं राम और रहीम,
कोई ज़रूरी नहीं है भला, भला ही लगे।
-बशीर बद्र