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Thursday, October 22, 2020

 बीती बातें, गुज़रे लम्हे, बिखरे सपने, भूले क़ौल
आख़िर इन टूटी क़बरों पर कब तक फूल चढ़ाओगे
- नामालूम

(क़ौल = वादा, कथन, उक्ति, वचन)

Sunday, May 10, 2020

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है

सब कुछ झूट है लेकिन फिर भी बिल्कुल सच्चा लगता है
जान-बूझ कर धोका खाना कितना अच्छा लगता है

ईंट और पत्थर मिट्टी गारे के मज़बूत मकानों में
पक्की दीवारों के पीछे हर घर कच्चा लगता है

आप बनाता है पहले फिर अपने आप मिटाता है
दुनिया का ख़ालिक़ हम को इक ज़िद्दी बच्चा लगता है

(ख़ालिक़ = बनानेवाला, सृष्टिकर्ता, ईश्वर)

इस ने सारी क़स्में तोड़ें सारे वा'दे झूटे थे
फिर भी हम को उस का होना अब भी अच्छा लगता है

उसे यक़ीं है बे-ईमानी बिन वो बाज़ी जीतेगा
अच्छा इंसाँ है पर अभी खिलाड़ी कच्चा लगता है

-दीप्ति मिश्रा

Saturday, December 7, 2019

पलकों पे बरसात सम्हाले बैठे हैं

पलकों पे बरसात सम्हाले बैठे हैं
हम अपने जज़्बात सम्हाले बैठे हैं।

ख़्वाबों में तेरे आने की ख़्वाहिश में
मुद्दत से इक रात सम्हाले बैठे हैं।

और हमें क्या काम बचा है फ़ुरक़त में
क़ुर्बत के लम्हात सम्हाले बैठे हैं।

(फ़ुरक़त = विरह), (क़ुर्बत = नज़दीकी)

हमको डर है बस तेरी रुसवाई का
इस ख़ातिर हर बात सम्हाले बैठे हैं।

(रुसवाई = बदनामी)

शहरों में ले आया हमको रिज़्क़ मगर
भीतर हम देहात सम्हाले बैठे हैं।

(रिज़्क़ = आजीविका)

बच्चों के उजले मुस्तक़बिल की ख़ातिर
हम मुश्किल हालात सम्हाले बैठे हैं।

(मुस्तक़बिल = भविष्य)

हमने तो बस एक ख़ुशी ही मांगी थी
अब ग़म की इफ़रात सम्हाले बैठे हैं।

(इफ़रात = अधिकता, प्रचुरता)

वादे, धोखे, आंसू,आहें और जफ़ा
तेरी सब सौग़ात सम्हाले बैठे हैं।

(जफ़ा =अत्याचार, अन्याय)

 - विकास वाहिद २/१२/२०१९

Wednesday, February 27, 2019

फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का
-अमीर मीनाई

(वादा-ए-वस्ल = मिलन का वादा)

Friday, January 26, 2018

एक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हमने

एक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हमने
पहले यार बनाया, फिर समझाया हमने

ख़ुद भी आख़िरकार उन्हीं वादों से बहले
जिनसे सारी दुनिया को बहलाया हमने

भीड़ ने यूं ही रहबर मान लिया है वरना
अपने अलावा किसको घर पहुंचाया हमने

(रहबर = रास्ता दिखाने वाला, पथप्रदर्शक)

मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली
ऐसा मरने का माहौल बनाया हमने

घर से निकले, चौक गए, फिर पार्क में बैठे
तन्हाई को जगह जगह बिखराया हमने

भूले भटकों सा अपना हुलिया था लेकिन
दश्त को अपनी वहशत से चौंकाया हमने

(दश्त = जंगल)

जब 'शारिक़' पहचान गए मंज़िल की हक़ीक़त
फिर रस्ते को रस्ते भर उलझाया हमने

-शारिक़ कैफ़ी 

Wednesday, January 25, 2017

दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई

दिल जिस से फ़रोज़ाँ हो, हो सोज़-ए-निहाँ कोई
जो दिल पे असर करती ऐसी हो फुग़ाँ कोई

(फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, रौशन), (सोज़-ए-निहाँ = अंदर की आग)

इक रोज़ मुक़र्रर है जाने के लिए सबका
सुनते हैं सितारों से आगे है जहाँ कोई

क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा पे टालो हो मुलाक़ातें
ले जाये क़ज़ा किस दिन जाने है कहाँ कोई

(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा), (क़ज़ा = मौत)

ढूंढें भी कहाँ तुम को, किस ठौर ठिकाना है
छोड़े हैं कहाँ तुमने क़दमों के निशाँ कोई

करते हो यक़ीं इतना हर बात पे क्यूँ सबकी
मुकरे न कहे से जो ऐसी है ज़ुबां कोई

उस बज़्म-ए-सुख़न में क्यूँ कहते हो ग़ज़ल अय दिल
है दाद नहीं मिलती अपनों से जहाँ कोई

मत पूछ मेरा मज़हब सज्दे में ही रहता हूँ
नाक़ूस बजे चाहे होती हो अज़ाँ कोई

(नाक़ूस = शंख जो फूंक कर बजाया जाता है)

-स्मृति रॉय

Saturday, April 9, 2016

बहुत हो गया दिल जलाने का मौसम

बहुत हो गया दिल जलाने का मौसम
यही है यही मुस्कुराने का मौसम।

चलो आज फिर से कसम ये उठा लें
न आये कभी दिल दुखाने का मौसम।

सुनो आज मौसम यही कह रहा है
सभी से दिलों को मिलाने का मौसम।

कहीं आग से घर किसी का जले ना
लगी आग फिर से बुझाने का मौसम।

खिजाएं यहाँ फिर पलट कर न आएं
नए पेड़ फिर से लगाने का मौसम।

तुम्हारे हमारे सदा बीच हो अब
किये जो भी वादे निभाने का मौसम ।

बहुत ठण्ड है आज लेकिन करें क्या
तेरी आँख में डूब जाने का मौसम।

चलो हाथ दिल पर रखो और कह दो
यही है दिलों को मिलाने का मौसम।

मिला कर नज़र हो गए तुम परीशां
नरम धूप है गुनगुनाने का मौसम।

अगर हम बहकने लगें रोक देना
नहीं ये नहीं गुल खिलाने का मौसम।

किसी को किसी से मुहब्बत नहीं है
चलो 'आरसी' दूर जाने का मौसम।

-आर. सी . शर्मा "आरसी"

Thursday, February 25, 2016

किस लम्हे हम तेरा ध्यान नहीं करते

किस लम्हे हम तेरा ध्यान नहीं करते
हाँ कोई अहद-ओ-पैमान नहीं करते

(अहद-ओ-पैमान = प्रतिज्ञा और वादा)

हर दम तेरी माला जपते हैं लेकिन
गलियों कूचों में ऐलान नहीं करते

अपनी कहानी दिल में छुपा कर रखते हैं
दुनिया वालों को हैरान नहीं करते

इक कमरे को बंद रखा है बरसों से
वहाँ किसी को हम मेहमान नहीं करते

इक जैसा दुःख मिलकर बाँटा करते हैं
इक दूजे पर हम एहसान नहीं करते

कुछ रस्ते मुश्किल ही अच्छे लगते हैं
कुछ रस्तों को हम आसान नहीं करते

रस्ते में जो मिलता है मिल लेते हैं
अच्छे बुरे की अब पहचान नहीं करते

जी करता है भालू बन्दर नाम रखें
कौन सी वहशत हम इंसान नहीं करते

'आलम' उसके फूल तो कब के सूख गए
क्यूँ ताज़ा अपना गुलदान नहीं करते

- आलम खुर्शीद


Wednesday, February 24, 2016

बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में

बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में
रह गया मैं फिर भी प्यासा ख़्वाब में

जी रहा हूँ और दुनिया में मगर
देखता हूँ और दुनिया ख़्वाब में

रोज़ आता है मेरा ग़म बाँटने
आसमाँ से इक सितारा ख़्वाब में

इस जमीं पर तो नज़र आता नहीं
बस गया है जो सरापा ख़्वाब में

(सरापा = सिर से पाँव तक)

मुद्दतों से दिल है उसका मुंतज़िर
कोई वादा कर गया था ख़्वाब में

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

एक बस्ती है जहाँ खुश हैं सभी
देख लेता हूँ मैं क्या-क्या ख़्वाब में

असल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
क्यों नज़र आये तमाशा ख़्वाब में

खोल कर आँखें पशेमाँ हूँ बहुत
खो गया जो कुछ मिला था ख़्वाब में

(पशेमाँ = लज्जित)

- आलम खुर्शीद

Thursday, December 17, 2015

जो भी टूटा है वो टूटा है सँवरने के लिए

जो भी टूटा है वो टूटा है सँवरने के लिए
कौन रोता है तेरी याद में मरने के लिए

आँख नम होती है जब भी मैं समझ लेता हूँ
कोई खुशबू सी है तैयार बिखरने के लिए

तोड़ना चाहो जो वादे तो सबब मत ढूंढो
बेजुबानी भी बहुत होगी मुकरने के लिए

(सबब = कारण)

अबके पानी के बरसने का सबब तू जाने
रंग बरसे हैं तेरी मांग ही भरने के लिए

ज़िद पे आ जाऊँ तो खुद को भी डुबो देता हूँ
हौसला चाहिए दरिया में उतरने के लिए

तंग हाथों भी बहुत खर्च किया है खुद को
मेरी आदत है बहुत हद से गुजरने के लिए

‪-अस्तित्व अंकुर‬

Friday, July 3, 2015

The woods are lovely, dark and deep,
But I have promises to keep,
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep.
-Robert Frost

बच्चन जी का अनुवाद:

गहन सघन मनमोहक वन तरु, मुझको आज बुलाते हैं,
किन्तु किये जो वादे मैने याद मुझे आ जाते हैं
अभी कहाँ आराम बदा, यह मूक निमंत्रण छलना है
अरे अभी तो मीलों मुझको, मीलों मुझको चलना है ।

-हरिवंश राय बच्चन

 

Thursday, May 14, 2015

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया

किसी तरह जो न उस बुत ने ऐतबार किया
मेरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मशार किया

हंसा हंसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लिया मुझे दे-दे के बेकरार किया

(शब-ए-वस्ल = मिलन की रात), (अश्क-बार = आँसू बहानेवाला)

ये किसने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा, हाए बेक़रार किया

(सर-ए-मज़ार = मज़ार पर)

सुना है तेग को क़ातिल ने आबदार किया
अगर ये सच है तो बे-शुबह हम पे वार किया

(तेग = तलवार), (आबदार = धारदार), (बे-शुबह = बिना शक़)

न आए राह पे वो इज़्ज़ बे-शुमार किया
शब-ए-विसाल भी मैंने तो इन्तिज़ार किया

(इज़्ज़ = नम्रता, विनय), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात)

तुम्हें तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ को उम्मीदवार किया

(वादा-ए-दीदार = दर्शन का वादा)

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआलअन्देश
उन्हों ने वादा किया हम ने ऐतबार किया

(ताब = सहनशक्ति, आभा, बल), (मआलअन्देश = दूरदृष्टा)

कहाँ का सब्र कि दम पर है बन आई ज़ालिम
ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आशकार किया

(आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादां, कि ग़ैर कहते हैं
आख़िर कुछ न बनी, सब्र इख्तियार किया

मिले जो यार की शोख़ी से उसकी बेचैनी
तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया

(दिल-ए-मुज़्तरिब = व्याकुल/ बेचैन दिल)

भुला भुला के जताया है उनको राज़-ए-निहां
छिपा छिपा के मोहब्बत को आशकार किया

(राज़-ए-निहां = छिपा हुआ रहस्य), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

न उसके दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता
सबा ने ख़ाक़ परेशां मेरा ग़ुबार किया

(सबा = बयार, पुरवाई, हवा)

हम ऐसे मह्व-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया

(मह्व = निमग्न, तल्लीन), (मह्व-ए-नज़ारा = दृश्य की सुंदरता देखने में तल्लीन), (तग़ाफ़ुल = उपेक्षा, बेरुख़ी)

हमारे सीने में रह गई थी आतिश-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल भी उसको न हम-कनार किया

(आतिश-ए-हिज्र = विरह की चिंगारी), (शब-ए-विसाल = मिलन की रात), (हम-कनार = बाँहों में भरना)

रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है
वो और इश्क़ भला तुमने एतबार किया

(शेवा-ए-उल्फ़त = प्यार की आदत)

ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह
जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया

(ज़बान-ए-ख़ार = काँटों भरी ज़ुबान), (सदा-ए-बिस्मिल्लाह = ख़ुदा के नाम से शुरू करने की आवाज़), (सर-ए-शोरीदा = उन्मुक्तता)

तेरी निगह के तसव्वुर में हमने ए क़ातिल
लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया

(तसव्वुर = कल्पना, ख़याल)

गज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैंने धोके में
हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया

(कसरत-ए-महफ़िल = सभा की भीड़), (रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी), (हम-कनार = गले लगाना)

हुआ है कोई मगर उसका चाहने वाला
कि आसमां ने तेरा शेवा इख़्तियार किया

(शेवा = आदत, तरीक़ा)

न पूछ दिल की हक़ीकत मगर ये कहते हैं
वो बेक़रार रहे जिसने बेक़रार किया

उन को तर्ज-ए-सितम आ गए तो होश आया
बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होशियार आया

(तर्ज-ए-सितम = अत्याचार, ज़ुल्म करने का तरीक़ा)

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को एक कहानी थी
कुछ ऐतबार किया और कुछ ना-ऐतबार किया

(फ़साना-ए-शब-ए-ग़म = दुःख भरी रात की कहानी)

असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही
तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया

(असीरी = क़ैद), (दिल-ए-आशुफ़्ता = आतुर/ बेचैन दिल), (तुर्रा-ए-तर्रार = बल खाए हुए बाल), (तार तार = छिन्न-भिन्न)

कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मेरे कहने का ऐतबार किया

(दावर-ए-महशर = ख़ुदा)

किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बदगुमानी थी
कि डरते डरते खुदा पर भी आशकार किया

(इश्क़-ए-निहाँ = छुपा हुआ प्यार), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे
आख़िर अब मुझे आशोब-ए-रोज़गार किया

(फ़लक = आसमान), (आशोब-ए-रोज़गार = रोज़गार की हलचल/ उपद्रव)

वो बात कर जो कभी आसमां से हो न सके
सितम किया तो बड़ा तूने इफ़्तिख़ार किया

(इफ़्तिख़ार = गौरव, मान)

बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी खाल-ए-सियाह
जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आशकार किया

(मेहर-ए-क़यामत = क़यामत के दिन का सूरज), (खाल-ए-सियाह = काला तिल, Beauty spot), ( 'दाग़'-ए-सियह-रू = शायर के काले चेहरे पर निशान), (आशकार = प्रकट, ज़ाहिर)

-दाग़


मेहदी हसन/ Mehdi Hasan 
 
 
 
मोहम्मद रफ़ी/ Mohammad Rafi
 
 
पंकज उधास/ Pankaj Udhaas
 
राजकुमारी/ Rajkumaari 
 
कविता कृष्णामूर्ति/ Kavita Krishnamurti 
 
फ़रीदा ख़ानुम/ Fareeda Khanum 
 

Saturday, December 13, 2014

उसने कहा सुन

उसने कहा सुन
अहद निभाने की ख़ातिर मत आना                (अहद = प्रतिज्ञा, वचन)
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं                 (महजूरी = विरह, वियोग, जुदाई)
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ
जिन आँखों में डूबो
जिस दिल में भी उतरो
मेरी तलब आवाज़ न देगी
लेकिन जब मेरी चाहत
और मेरी ख़्वाहिश की लौ
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये
जब दिल रो दे
तब लौट आना

-अहमद फ़राज़

Thursday, November 13, 2014

हमने सब शेर में सँवारे थे

हमने सब शेर में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न तुम्हारे थे

(सुख़न = बात-चीत, संवाद, वचन)

रंग-ओ-ख़ुश्बू के, हुस्न-ओ-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे थे

(इस्तिआरे = रूपक, काव्य में अमूर्त का मानवीकरण)

तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे

(क़ौल-ओ-क़रार = वचन और प्रतिज्ञा)

जब वो लाल-ओ-गुहर हिसाब किए
जो तिरे ग़म ने दिल पे वारे थे

(लाल-ओ-गुहर = हीरे-मोती)

मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्त-ए-फ़लक में तारे थे

(तश्त-ए-फ़लक = आसमान की तश्तरी)

उम्र-ए-जाविदाँ की दुआ करते थे
‘फ़ैज़’ इतने वो कब हमारे थे

(उम्र-ए-जाविदाँ = लम्बी उम्र, अमरता)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़



Monday, October 20, 2014

तेरे इश्क़ की इन्तहा चाहता हूँ

तेरे इश्क़ की इन्तहा चाहता हूँ
मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूँ

(वादा-ए-बेहिजाबी = बिना परदे में रहने का वादा)

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ

(ज़ाहिदों = जितेन्द्रिय या संयमी व्यक्ति)

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ

(अहल-ए-महफ़िल = महफ़िल के लोग), (चिराग़-ए-सहर = सुबह का दीपक)

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बे-अदब हूँ, सज़ा चाहता हूँ

(बज़्म = महफ़िल)

- अल्लामा इक़बाल

Rahat Fateh Ali Khan/ राहत फ़तेह अली ख़ान 

Dr. Radhika Chopda/ डा राधिका चोपड़ा 

Saturday, October 18, 2014

नहीं निगाह में मंज़िल, तो जुस्तजू ही सही

नहीं निगाह में मंज़िल, तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर, तो आरज़ू ही सही

(जुस्तजू = तलाश, खोज), (विसाल = मिलन), (मयस्सर = प्राप्त, उपलब्ध)

न तन में ख़ून फ़राहम, न अश्क़ आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही

(फ़राहम = संग्रहीत, इकठ्ठा), (अश्क़ = आँसू), (वाज़िब = मुनासिब, उचित, ठीक)

किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदे वालों
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही

(बज़्म = महफ़िल), (हा-ओ-हू = दुःख और शून्य/ सुनसान)

गर इंतज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तगू ही सही

(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा)

दयार-ए-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

(दयार-ए-ग़ैर = अजनबी का घर), (महरम = अंतरंग मित्र, सुपरिचित, वह जिसके साथ बहुत घनिष्टता हो)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


आबिदा परवीन/ Abida Parveen




Tuesday, September 30, 2014

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो

वो नये गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो के न याद हो

(हिकायतें = कहानियाँ, किस्से)

कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो के न याद हो

(बयाँ = वर्णन, ज़िक्र)

सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का
वो निभाने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना, तुम्हें याद हो के न याद हो

(आश्ना = 1. मित्र/ दोस्त, 2. प्रेमी/ प्रेमिका 3. परिचित)

हुए इत्तेफ़ाक़ से गर बहम, वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अर्क़बा, तुम्हें याद हो के न याद हो

(बहम = एक जगह, परस्पर, आपस में)

वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेश्तर, वो करम के हाथ मेरे हाथ पर
मुझे सब हैं याद ज़रा ज़रा, तुम्हें याद हो के न याद हो

(बेश्तर = अधिकतर, प्रायः, बहुधा)

कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तगू
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो के न याद हो

(इशारतों = इशारों या संकेतों), (बरमला = खुलेआम, सबके सामने)

वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हर आन अदा, तुम्हें याद हो के न याद हो

[(वस्ल = मिलन), (हर आन = हर पल)]

जिसे आप गिनते थे आश्ना, जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ 'मोमिन'-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो

(आश्ना = 1. मित्र/ दोस्त, 2. प्रेमी/ प्रेमिका 3. परिचित), (मुब्तला  = फँसा हुआ, ग्रस्त)

-मोमिन खाँ 'मोमिन'










Tuesday, June 3, 2014

अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता

न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता

ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता

तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िन्दगी का हमें ऐतबार होता
-दाग़ देहलवी



Sunday, December 1, 2013

वादे का उनके आज ख़याल आ गया मुझे
शक और ऐतबार के दिन याद आ गये
-ख़ुमार बाराबंकवी

Friday, November 1, 2013

ज़बाँ से गर किया भी वादा तूने, तो यक़ीं किसको
निगाहें साफ़ कहती हैं कि देखो यूँ मुकरते हैं
-दाग़

तसल्ली ख़ाक़ हो वादों से उनके, चितवनें उनकी
इशारों से यूँ कहती हैं, कि देखो यूँ मुकरते हैं
-अमीर मीनाई