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Wednesday, July 3, 2024

नहीं हम में कोई अनबन नहीं है
बस इतना है की अब वो मन नहीं है।

मैं अपने आपको सुलझा रहा हूँ,
उन्हें लेकर कोई उलझन नहीं है।

मुझे वो गैर भी क्यूँ कह रहे हैं,
भला क्या ये भी अपनापन नहीं है।

किसी के मन को भी दिखला सके जो
कहीं ऐसा कोई दर्पण नहीं है।

मैं अपने दोस्तों के सदके लेकिन
मेरा क़ातिल कोई दुश्मन नहीं है।

-मंगल 'नसीम'

Monday, September 2, 2019

क़ातिल की यह दलील मुंसिफ़ ने मान ली
मक़्तूल ख़ुद गिरा था ख़ंजर की नोक पर
-आमिर जब्बार

(मुंसिफ़ = जज, न्यायाधीश). (मक़तूल = जिसका क़त्ल हुआ हो, जो मार डाला गया हो)

Monday, February 25, 2019

कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद

कौन उठाएगा तुम्हारी ये जफ़ा मेरे बाद
याद आएगी बहुत मेरी वफ़ा मेरे बाद

(जफ़ा = सख्ती, जुल्म, अत्याचार)

है वसीयत मेरी मरक़द पे ये लिख दे अहबाब
के करे कोई किसी से न वफ़ा मेरे बाद

(मरक़द = कब्र), (अहबाब = स्वजन, दोस्त, मित्र)

शुक्र है कुछ तो मुहब्बत में हुआ रंग-ए-असर
तीन दिन उसने लगाई न हिना मेरे बाद

खूं मेरा करके बहुत हाथ मले क़ातिल ने
न जमा पर न जमा रंग-ए-हिना मेरे बाद

-अमीर मीनाई





Friday, August 4, 2017

दुनिया इक दरिया है, पार उतरना भी तो है

दुनिया इक दरिया है, पार उतरना भी तो है
बेईमानी कर लूँ लेकिन मरना भी तो है

पत्थर हूँ भगवान बना रह सकता हूँ कब तक
रेज़ा-रेज़ा हो के मुझे बिखरना भी तो है

ऐसे मुझको मारो कि क़ातिल भी ठहरूँ मैं
आखिर ये इल्ज़ाम किसी पे धरना भी तो है

दिल से तुम निकले हो तो कोई और सही कोई और
ये जो ख़ालीपन है इसको भरना भी तो है

बाँध बनाने वालों को मालूम नहीं शायद
पानी जो ठहरा है उसे गुज़रना भी तो है

साहिल वालों! अभी तमाशा ख़त्म नही मेरा
डूब रहा हूँ लेकिन मुझे उभरना भी तो है

(साहिल = किनारा)

अच्छी है या बुरी है चाहे जैसी है दुनिया
आया हूँ तो कुछ दिन यहाँ ठहरना भी तो है

-शकील आज़मी

Friday, March 18, 2016

दुआ मरने की माँगी ज़ीस्त की ख़्वाहिश निकल आयी

दुआ मरने की माँगी ज़ीस्त की ख़्वाहिश निकल आयी
न जाने कैसे तपती धूप में बारिश निकल आयी

(ज़ीस्त = जीवन, ज़िंदगी)

समझते थे हम अपनी मौत को इक हादसा अब तक
मगर तफ़्तीश में वो क़त्ल की साजिश निकल आयी

चले थे घर से समझा कर बहुत इस दिल को हम, लेकिन
नये मेले में दुनिया के नयी ख़्वाहिश निकल आयी

कहा है ज़िन्दगी ने फिर किसी दिन मिल के बैठेंगे
चलो फिर कुछ मुलाकातों की गुंजाइश निकल आयी

बड़ी मुश्किल से हम घर के लिए कुछ लेने निकले थे
कलेजा चीरती बच्चों की फ़रमाइश निकल आयी

-राजेश रेड्डी

Saturday, February 27, 2016

जल बुझा हूँ मैं मगर सारा जहाँ ताक में है

जल बुझा हूँ मैं मगर सारा जहाँ ताक में है
कोई तासीर तो मौजूद मिरी ख़ाक में है

(ताक = दर्शन, परीक्षा, निरीक्षण ), (तासीर = प्रभाव, असर)

खेंचती रहती है हर लम्हा मुझे अपनी तरफ़
जाने क्या चीज़ है जो पर्दा-ए-अफ़्लाक में है

(पर्दा-ए-अफ़्लाक = आसमानों का नक़ाब), (अफ़्लाक = फ़लक (आसमान) का बहुवचन)

कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में
कूज़ा-गर कैसा करिश्मा तिरे इस चाक में है

(कूज़ा-गर = कुम्हार, मिट्टी के बर्तन बनाने वाला)

कैसे ठहरूँ कि किसी शहर से मिलता ही नहीं
एक नक़्शा जो मिरे दीदा-ए-नमनाक में है

(दीदा-ए-नमनाक = आँसू भरी आँखें)

ये इलाका भी मगर दिल ही के ताबे ठहरा
हम समझते थे अमाँ गोशा-ए-इदराक में है

(ताबे = वशीभूत, आधीन), (अमाँ = सुरक्षा, हिफाज़त, पनाह), (गोशा-ए-इदराक = बोध/ ज्ञान की दिशा/ कोना)

क़त्ल होते हैं यहाँ नारा-ए-एलान के साथ
वज़अ-दारी तो अभी आलम-ए-सफ़्फ़ाक में है

(वज़अ-दारी = परंपरा), (आलम-ए-सफ़्फ़ाक = बेरहम/ अत्याचारी दुनिया)

कितनी चीज़ों के भला नाम तुझे गिनवाऊँ
सारी दुनिया ही तो शामिल मिरी इम्लाक में है

(इम्लाक = स्वामित्व, वस्तुओं का मालिक बनाना)

रायगाँ कोई भी शै होती नहीं है 'आलम'
ग़ौर से देखिये क्या क्या ख़स-ओ-ख़ाशाक में है

(रायगाँ = व्यर्थ, बरबाद), (ख़स-ओ-ख़ाशाक = सूखी घास और कूड़ा-करकट)

- आलम खुर्शीद

Monday, May 11, 2015

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

(रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी)

वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मुक़ाम किस का था

(मुक़ीम = निवासी, ठहरा हुआ), (मुक़ाम =ठहरने का स्थान, पड़ाव)

न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम किस का था

(बज़्म = महफ़िल, सभा), (एहतमाम = प्रबन्ध)

हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था

(बा-दिल = दिल से), (पयाम = सन्देश)

इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था

(सिफ़ात = गुणों)

तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमाम किसका था

(मुश्ताक़ = उत्सुक, अभिलाषी), (तज़्किरा-ए-नातमाम = अधूरा ज़िक्र)

गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था

अगर्चे देखने वाले तेरे हज़ारों थे
तबाह हाल बहुत ज़ेर-ए-बाम किसका था

(अगर्चे = अगरचे = यद्यपि, हालाँकि), (ज़ेर-ए-बाम = छत के नीचे)

हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला
ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था

-दाग़

ग़ुलाम अली/ Ghulam Ali 
 
 
 
जगजीत सिंह/ Jagjit Singh 
 
 

Saturday, December 20, 2014

एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा

एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा था ख़ुदा हो बैठा

(संग = पत्थर)

उठ के मंज़िल ही अगर आये तो शायद कुछ हो
शौक़-ए-मंज़िल तो मेरा आबला-पा हो बैठा

(आब्ला-पा = छाले वाले पाँव)

मसलह्त छीन गई क़ुव्वत-ए-ग़ुफ़्तार मगर
कुछ न कहना ही मेरा मेरी ख़ता हो बैठा

(मस्लहत = समझदारी), (क़ुव्वत-ए-ग़ुफ़्तार = बात करने की ताकत)

शुक्रिया ऐ मेरे क़ातिल ऐ मसीहा मेरे
ज़हर जो तूने दिया था वो दवा हो बैठा

जान-ए-शहज़ाद को मिन-जुम्ला-ए-आदा पा कर
हूक वो उट्ठी कि जी तन से जुदा हो बैठा

(मिन-जुम्ला-ए-आदा = दुश्मनों में से एक)

-फ़रहत शहज़ाद

मेहदी हसन/ Mehdi Hassan

आबिदा परवीन/ Abida Parveen

Saturday, August 16, 2014

पीड़ितों के बीच से तलवार लेकर आ गये
आप नाटक में नया किरदार लेकर आ गये |

मैं समझता था हर इक शै है बहुत सस्ती यहाँ
एक दिन बाबा मुझे बाज़ार लेकर आ गये |

माँ के हाथों की बनी स्वेटर थमाई हाथ में
आप बच्चे के लिए संसार लेकर आ गये |

क़त्ल, चोरी, घूसखोरी, खुदखुशी बस, और क्या
फिर वही मनहूस सा अख़बार लेकर आ गये |

दोस्तों से अब नहीं होती हैं बातें राज़ की
चन्द लम्हे बीच में दीवार लेकर आ गये |

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Wednesday, July 16, 2014

जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ
दस्त-ए-क़ातिल बे-हुनर है क्या करूँ

(दस्त-ए-क़ातिल = क़ातिल का हाथ)

चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को
शहर में इन का भी घर है क्या करूँ

वो तो सौ सौ मर्तबा चाहें मुझे
मेरी चाहत में कसर है क्या करूँ

पाँव में ज़ंजीर काँटे आबले
और फिर हुक्म-ए-सफ़र है क्या करूँ

(आबले = छाले)

‘कैफ़’ का दिल ‘कैफ़’ का दिल है मगर
वो नज़र फिर वो नज़र है क्या करूँ

‘कैफ़’ मैं हूँ एक नूरानी किताब
पढ़ने वाला कम-नज़र है क्या करूँ

(नूरानी = प्रकाशमान)

-कैफ़ भोपाली

Sunday, May 18, 2014

किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ

किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूँ

वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूँ

दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूँ

ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूँ

-अहमद नदीम क़ासमी


Wednesday, January 15, 2014

जैसे बाज़ परिन्दों में
मेरा क़ातिल अपनों में

अब इंसानी रिश्ते हैं
सिर्फ़ कहानी-किस्सों में

पढ़ना-लिखना सीखा तो
अब हूँ बंद क़िताबों में

मौसम को महसूस करूँ
ख़बरों से अख़बारों में

मेरे पैर ज़मीं पर हैं
ख़ुद हूँ चांद-सितारों में!

-विज्ञान व्रत

Saturday, December 7, 2013

जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है
आपके पीछे तेज़ हवा है आगे मुकद्दर आपका है

उस के क़त्ल पे मैं भी चुप था मेरा नम्बर अब आया
मेरे क़त्ल पे आप भी चुप है अगला नम्बर आपका है
-नवाज़ देवबंदी
मैंने तो एक लाश की, दी थी ख़बर "फ़राज़"
उलटा मुझी पे क़त्ल का इल्ज़ाम आ गया
-ताहिर फ़राज़

Sunday, October 6, 2013

अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं
पागल हैं हम अपनी नींद उड़ा लेते हैं

जीवन अमृत कब हमको अच्छा लगता है
ज़हर हमें अच्छा लगता है खा लेते हैं

क़त्ल किया करते हैं कितनी चालाकी से
हम ख़ंजर पर नाम अपना लिखवा लेते हैं

रास नहीं आता है हमको उजला दामन
रुसवाई के गुल-बूटे बनवा लेते हैं

पंछी हैं लेकिन उड़ने से डर लगता है
अक्सर अपने बाल-ओ-पर कटवा लेते हैं

(बाल-ओ-पर = बाजू और पँख)

सत्ता की लालच ने धरती बाँटी लेकिन
अपने सीने पर तमगा लटका लेते हैं

याद नहीं है मुझको भी अब दीन का रस्ता
नाम मुहम्मद का लेकिन अपना लेते हैं

औरों को मुजरिम ठहरा कर अब हम 'आलम'
अपने गुनाहों से छुटकारा पा लेते हैं

-आलम खुर्शीद

Saturday, October 5, 2013

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे, ए आसमाँ
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है

ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा ये टशन में थ्रिल में है

आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के तिल में है

आज के जलसों में बिस्मिल एक गूँगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है

हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्ढी भी सिलती इंगलिसों की मिल में है
-पीयूष मिश्रा


Sunday, July 21, 2013

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता

(बशर = इंसान, आदमी)

वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मिरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता

(तेग़ = तलवार)

वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले, धुआँ नहीं मिलता

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
मुझे ख़ुद अपने क़दम का निशाँ नहीं मिलता

खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता

-कैफ़ी आज़मी

[मास्को, सितंबर 1974]

Thursday, July 4, 2013

बीज डाल दे फल निकलेगा

बीज डाल दे फल निकलेगा,
हर मुश्किल का हल निकलेगा |

मोम बनेगा हर पत्थर जब,
तू ज्वाला बन जल निकलेगा

जब भागीरथ बन जाएगा
उस दिन गंगाजल निकलेगा

तानसेन बन जब गाएगा
हर इक दीपक जल निकलेगा

तू जो पानी समझ रहा है
मत जाना दलदल निकलेगा

अपने भीतर झाँक ज़रा सा
काजल ही काजल निकलेगा

सूरत से मासूम दिखेगा
पर वो ही क़ातिल निकलेगा

अक्षर अक्षर जोड़ “आरसी”
इक दिन तू भी चल निकलेगा

- आर० सी० शर्मा “आरसी”

Thursday, June 27, 2013

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है , बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है , टपकेगा तो जम जाएगा

ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क-ए-इन्साफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
तेग़-ए-बेदाद पे या लाश-ए-बिस्मिल पे जमे
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा

[(ख़ाक-ए-सहरा = मरुस्थल की रेत), (कफ़-ए-क़ातिल = हत्यारे की हथेली), (फ़र्क-ए-इन्साफ़ = न्याय के सिर),  (पा-ए-सलासिल = बेड़ियों के पैरों पर), (तेग़-ए-बेदाद = अत्याचार की तलवार), (लाश-ए-बिस्मिल = घायल देह)]

लाख बैठे कोई छुप छुप के कमींगाहों में
ख़ून ख़ुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग़
साजिशें लाख उढ़ाती रहें ज़ुल्मत का नक़ाब
लेके हर बूँद निकलती है हथेली पे चिराग़

[(कमींगाहों = वह स्थान जहां से छुपकर वार किया जाए), (जल्लाद = कसाई), (मस्कन = ठिकाना, रहने की जगह), (सुराग़ = पता), (ज़ुल्मत = अँधेरा)]

ज़ुल्म की किस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुसवा से कहो
जब्र की हिक्मत-ए-पुरकार के ईमा से कहो
महमिले-मजलिसे-अक़वाम की लैला से कहो
ख़ून दीवाना है, दामन पे लपक सकता है
शोलए-तुंद है , ख़िरमन पे लपक सकता है

[(किस्मत-ए-नाकारा-ओ-रुसवा =  व्यर्थ और अपमानित भाग्य), (जब्र = क्रूरता), (हिक्मत-ए-पुरकार के ईमा = चतुरतापूर्ण उपाय), (महमिले-मजलिसे-अक़वाम की लैला = संयुक्त राष्ट्र संघ), (शोलए-तुंद= भीषण ज्वाला), (ख़िरमन = अन्न का ढेर)]

तुम ने जिस ख़ून को मक़तल में दबाना चाहा
आज वो कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बन के
ख़ून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से
सर जो उठता है तो दबता नहीं आईनों से

[(मक़तल = वधस्थल), (आईन = विधान, क़ानून)]

ज़ुल्म की बात ही क्या, ज़ुल्म की औकात ही क्या
ज़ुल्म बस ज़ुल्म है , आग़ाज़ से अंजाम तलक
ख़ून फिर ख़ून है , सौ शक्ल बदल सकता है-
ऐसी शक्लें के मिटाओ तो मिटाए न बने
ऐसे शोले, कि बुझाओ तो बुझाए न बने
ऐसे नारे, कि दबाओ तो दबाये न बने ।

(आग़ाज़ से अंजाम = आरंभ से अंत तक)

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है , बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है , टपकेगा तो जम जाएगा

-साहिर लुधियानवी 

Friday, May 31, 2013

शायद मैं ज़िन्दगी की सहर लेके आ गया
क़ातिल को आज अपने ही घर लेके आ गया

ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र लेके आ गया

नश्तर है मेरे हाथ में, कांधों पे मैक़दा
लो मैं इलाज-ए-दर्द-ए-जिगर लेके आ गया

'फ़ाकिर' सनमकदे में न आता मैं लौटकर
इक ज़ख़्म भर गया था इधर लेके आ गया
-सुदर्शन फ़ाकिर