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Sunday, May 29, 2016

हर तरफ़ जिस्म का छलावा है
रूह मिलती नहीं ज़माने में
- आशीष नैथानी

Tuesday, May 24, 2016

तितलियाँ बाग़-बाग़ उड़ती हैं
तितलियाँ हैं ज़नाब, क्या कीजै

ग़म कोई उम्रभर नहीं रहता
थोड़ा-थोड़ा सही हँसा कीजै

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Thursday, April 21, 2016

ज़िन्दगी है और मैं हूँ

ज़िन्दगी है और मैं हूँ
बस यही है और मैं हूँ

शोर के दोनों सिरों पर
ख़ामुशी है और मैं हूँ

बंद इक कमरे में बैठी
ख़ुदकुशी है और मैं हूँ

शहर में यादों की तेरी
इक नदी है और मैं हूँ

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Saturday, August 16, 2014

चन्द सिक्के दिखा रहे हो क्या
तुम मुझे आज़मा रहे हो क्या ?

मैं सिपाही हूँ कोई नेता नहीं
मेरी क़ीमत लगा रहे हो क्या ?

शहर लेता है इम्तिहान कई
लौटकर गाँव जा रहे हो क्या ?

फिर चली गोलियाँ उधर से जनाब
फिर कबूतर उड़ा रहे हो क्या ?

पत्रकारों ! ये ख़ामुशी कैसी
चापलूसी की खा रहे हो क्या ?

-आशीष नैथानी 'सलिल'
पीड़ितों के बीच से तलवार लेकर आ गये
आप नाटक में नया किरदार लेकर आ गये |

मैं समझता था हर इक शै है बहुत सस्ती यहाँ
एक दिन बाबा मुझे बाज़ार लेकर आ गये |

माँ के हाथों की बनी स्वेटर थमाई हाथ में
आप बच्चे के लिए संसार लेकर आ गये |

क़त्ल, चोरी, घूसखोरी, खुदखुशी बस, और क्या
फिर वही मनहूस सा अख़बार लेकर आ गये |

दोस्तों से अब नहीं होती हैं बातें राज़ की
चन्द लम्हे बीच में दीवार लेकर आ गये |

-आशीष नैथानी 'सलिल'
बागवाँ को कुछ जैसे तितलियाँ समझती हैं
मायके को भी वैसे बेटियाँ समझती हैं |

चीख गोलियों की हो, शोर हो धमाकों का
हेर-फेर मौसम का खिड़कियाँ समझती हैं |

सायबान है, घर है और है जहाँभर भी
कीमत उन दरख्तों की पंछियाँ समझती हैं |

लोग सब अचंभित हैं देखकर धुँआ काला
रंग स्वेद का ऊँची चिमनियाँ समझती हैं |

जिस्म बेधकर कुन्दन टाँगना सजावट को
दर्द ऐसी रस्मों का बच्चियाँ समझती हैं |

रंग-रूप पाने को, ज़ायका बनाने को
किस डगर से गुजरी हैं रोटियाँ समझती हैं |

वक़्त की कलाकारी आदमी के चेहरे पर
कैनवास पर बिखरी झुर्रियाँ समझती हैं |

आग देने वालों को इल्म भी नहीं होता
ज़िस्म की जलन जलती लकड़ियाँ समझती हैं |

-आशीष नैथानी 'सलिल'
पहाड़ों पर सुनामी थी या था तूफ़ान पानी में
बहे बाज़ार घर-खलिहान और इन्सान पानी में।

बड़ा वीभत्स था मंज़र जो देखा रूप गंगा का
किसी तिनके की माफ़िक बह रहा सामान पानी में।

बहुत नाज़ुक है इन्सानी बदन इसका भरोसा क्या
भरोसा किसपे हो जब डूबते भगवान पानी में।

इधर कुछ तैरती लाशें उधर कुछ टूटते सपने
न जाने लौटकर आएगी कैसे जान पानी में।

बहुत मुश्किल है अपनी आँख के पानी को समझाना
अचानक कैसे हो जाती दफ़न मुस्कान पानी में।

-आशीष नैथानी 'सलिल'
सहर को सहर, रात को रात लिख
सुखनवर हमेशा सही बात लिख।

(सहर = सुबह)

ज़रूरी नहीं झूठ का हो बखान
नज़र में हैं जैसे वो हालात लिख।

अगर धूप है तो लिखी जाय धूप
नहीं तो तू मौसम को बरसात लिख।

अधूरी रही या मुकम्मल हुई
थी जैसी भी वैसी मुलाकात लिख।

ये अच्छा है चलती रहे लेखनी
मगर बेवजह मत खुरापात लिख।

-आशीष नैथानी 'सलिल'
शहर जाना तो बस इक बहाना हुआ
वाकई गाँव मेरा पुराना हुआ |

बज रही साँकलें, गा रही कोयलें
ऐसे सपनों को भी अब ज़माना हुआ |

ये तकाज़ा है इस दर्द का जानकर
मेरा अंदाज़ भी शायराना हुआ |

हो गया कुछ इज़ाफ़ा मेरी अक्ल में
"जब से गैरों के घर आना-जाना हुआ |"

भूख ने रातभर आँख लगने न दी
एक मासूम जल्दी सयाना हुआ |

अपने बच्चे को कहता है बेकार कौन
आखिर अपना खज़ाना, खज़ाना हुआ |

वक्त के साथ हम भी बदल जाएँगे
हम परिंदों का कब इक ठिकाना हुआ |

-आशीष नैथानी 'सलिल'
दर्द में आपने कमी कर दी
अपनी यादें जो अजनबी कर दी ।

आँखभर इश्क का समंदर था
रूठकर कैसी तिश्नगी कर दी ।

(तिश्नगी = प्यास)

मामला घर में ही सुलझ जाता
बात छोटी सी थी, बड़ी कर दी ।

फैसला जब दिया तो मक़्तल में
जान आफ़त में थी, बरी कर दी ।

(मक़्तल = वह स्थान जहाँ लोग क़त्ल किये जाते हों, वधस्थल)

और क्या देंगे मुफ़लिसी में उन्हें
नाम जिनके ये ज़िन्दगी कर दी ।

(मुफ़लिसी = गरीबी)

-आशीष नैथानी 'सलिल'
एक बीमार की दवा जैसे
तुम मेरे पास हो ख़ुदा जैसे |

साँस-दर-साँस ज़िन्दगी का सफ़र
और तुम आखिरी हवा जैसे |

उनकी आँखों में बस मेरा चेहरा
आइनों से हो सामना जैसे |

रूह ! बेकार है बदन तुझ बिन
इक लिफ़ाफ़ा है बिन पता जैसे |

आपकी मुस्कुराहटों की कसम
हो गया जन्म दूसरा जैसे |

-आशीष नैथानी 'सलिल'
क्या हुआ कोशिश अगर ज़ाया गई
दोस्ती हमको निभानी आ गई |

(ज़ाया = बेकार, व्यर्थ)

बाँधकर रखता भला कैसे उसे
आज पिंजर तोड़कर चिड़िया गई |

चूड़ियों की खनखनाहट थी सुबह
शाम को लौटी तो घर तन्हा गई |

लहलहाते खेत थे कल तक यहाँ
आज माटी गाँव की पथरा गई |

कैस तुमको फ़ख्र हो माशूक पर
पत्थरों के बीच फिर लैला गई |

आज फिर आँखों में सूखा है 'सलिल'
ज़िन्दगी फिर से तुम्हें झुठला गई |

-आशीष नैथानी 'सलिल'

बेमुनव्वर ज़िन्दगी होने लगी
दोस्तों से दुश्मनी होने लगी।

(बेमुनव्वर = अंधकारमय)

देखकर मेरी तरक्की ये हुआ
शहर भर में खलबली होने लगी।

कैसे बदली मुल्क की आबोहवा
हर गली में ख़ुदकुशी होने लगी।

आज ऐसे खटखटाती है किवाड़
साँस जैसे अजनबी होने लगी।

लौट आईं पंछियाँ वापस वतन
फिर हवा संजीवनी होने लगी।

स्वाद माँ के हाथ के पकवान का
मेरी ये आदत बुरी होने लगी।

इतने बरसे हैं कि अब सूखे से हैं
इश्क़ में फिर तिश्नगी होने लगी।

(तिश्नगी = प्यास)

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Saturday, July 6, 2013

शहर में

अँधेरी रात में,
रोशन सुबह का ख़्वाब अच्छा है ।
बच्चे के चेहरे पे हँसीं है
शहर में,
कुछ तो जनाब अच्छा है ।

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Tuesday, June 25, 2013

मज़हबों के नाम पर जब तक सितम होते रहेंगे
दो दिलों के बीच रिश्ते यूँ ही कम होते रहेंगे ।

प्यार के इस खेत में जो बीज बोया नफ़रतों का
आज लाठी, कल तमंचे और बम होते रहेंगे ।

माँ की साड़ी रक्त-रंजित, बाप-भाई रो रहे सब
और कितनी बेटियों पर ये जखम होते रहेंगे ।

ऐ सियासत ! शर्म कर, तू अपनी रोटी सेंकती है
कैसे-कैसे घर जले, कैसे करम होते रहेंगे ।

तुम 'सलिल' अब हो कहाँ, ठण्डी फुहारें तो बिखेरो
कब तलक अंगार भट्टी में गरम होते रहेंगे ।

-आशीष नैथानी 'सलिल'

Friday, June 21, 2013

शहर हर रोज हादिसा लाया
जान अपनी मैं फिर बचा लाया ॥

मुफ़लिसी में बिके हुए कंगन
आज बाज़ार से उठा लाया ||

ख़त लिखा था तुम्हें जवानी में
कल जवाब उसका डाकिया लाया ॥

और थोड़ी सी बढ़ गयी साँसें
एक बच्चे को मैं घुमा लाया ||

देखकर फेर दी नज़र उसने
वक़्त कैसा ये, फ़ासला लाया ||

लाख कोशिश करो बिछुड़ने की
"फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया" ||

रात चुप थी, सितारे भी गुमसुम
चाँद जलती हुई शमा लाया ॥

-आशीष नैथानी 'सलिल'