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Sunday, July 18, 2021

निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले 
मज़े की चीज़ है ये ज़ौक़-ए-जुस्तुजू मेरा 
-वहशत रज़ा अली कलकत्वी

(निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ = प्रियतम की मंज़िल का पता), (ज़ौक़-ए-जुस्तुजू = खोज/ तलाश का आनंद)

Saturday, March 27, 2021

समंदर हो ज़मीं हो इसको दफ़नाया नहीं जाता।
मियां हरगिज़ कभी भी सच को झुठलाया नहीं जाता।।

अकेले ही पहुंचना है हमें उस आख़री मंज़िल
किसी का चाह कर भी साथ में साया नहीं जाता।

पहेली सा बुना है ज़िन्दगी ने हर हसीं रिश्ता
उलझ जाए सिरा कोई तो सुलझाया नहीं जाता।

हमारे ख़ून में शामिल है हरदम ये रविश "वाहिद"
पनाहों में कोई आए तो ठुकराया नहीं जाता।

(रविश =  गति, रंग-ढंग, बाग़ की क्यारियों के बीच का छोटा मार्ग)

- विकास वाहिद
26/03/21

Thursday, April 23, 2020

धोखा है इक फ़रेब है मंज़िल का हर ख़याल
सच पूछिए तो सारा सफ़र वापसी का है
-राजेश रेड्डी

Thursday, April 16, 2020

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ

ब-ज़ाहिर खूब सोना चाहता हूँ
हक़ीक़त है कि रोना चाहता हूँ

(ब-ज़ाहिर = प्रत्यक्ष स्पष्ट रूप से)

अश्क़ आँखों को नम करते नहीं अब
ज़ख़्म यादों से धोना चाहता हूँ

वक़्त बिखरा गया जिन मोतियों को
उन्हे फिर से पिरोना चाहता हूँ

कभी अपने ही दिल की रहगुज़र में
कोई खाली सा कोना चाहता हूँ

नई शुरूआत करने के लिये फिर
कुछ नये बीज बोना चाहता हूँ।

गये जो आत्मविस्मृति की डगर पर
उन्ही में एक होना चाहता हूँ।

भेद प्रायः सभी के खुल चुके हैं
मैं जिन रिश्तों को ढोना चाहता हूँ

नये हों रास्ते मंज़िल नई हो
मैं इक सपना सलोना चाहता हूँ।

'अमित' अभिव्यक्ति की प्यासी जड़ो को
निज अनुभव से भिगोना चाहता हूँ।

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Saturday, July 20, 2019

भले मुख़्तसर है

भले मुख़्तसर है
सफ़र फिर सफ़र है।

(मुख़्तसर = थोड़ा, कम, संक्षिप्त)

जो हासिल नहीं है
उसी पर नज़र है।

यहां भीड़ में भी
अकेला बशर है।

(बशर = इंसान)

है कब लौट जाना
किसे ये ख़बर है।

ख़ता है अगर इश्क़
ख़ता दरगुज़र है।

(दरगुज़र = क्षमा योग्य)

तेरी मौत मंज़िल
वहीं तक सफ़र है।

- विकास"वाहिद"
१८/०७/२०१९

Wednesday, May 22, 2019

क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं

क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
कितनी आज़ादी से हम अपनी हदों में क़ैद हैं

(क़ुर्बतें = नज़दीकियाँ, सामीप्य)

कौन सी आँखों में मेरे ख़्वाब रौशन हैं अभी
किस की नींदें हैं जो मेरे रतजगों में क़ैद हैं

शहर आबादी से ख़ाली हो गए ख़ुश्बू से फूल
और कितनी ख़्वाहिशें हैं जो दिलों में क़ैद हैं

पाँव में रिश्तों की ज़ंजीरें हैं दिल में ख़ौफ़ की
ऐसा लगता है कि हम अपने घरों में क़ैद हैं

ये ज़मीं यूँही सिकुड़ती जाएगी और एक दिन
फैल जाएँगे जो तूफ़ाँ साहिलों में क़ैद हैं

(साहिल = किनारा)

इस जज़ीरे पर अज़ल से ख़ाक उड़ती है हवा
मंज़िलों के भेद फिर भी रास्तों में क़ैद हैं

(जज़ीरा = द्वीप, टापू), (अज़ल = सृष्टि का आरम्भ, अनादिकाल)

कौन ये पाताल से उभरा किनारे पर 'सलीम'
सर-फिरी मौजें अभी तक दायरों में क़ैद हैं

-सलीम कौसर

Friday, May 17, 2019

जिस ने किए हैं फूल निछावर कभी कभी

जिस ने किए हैं फूल निछावर कभी कभी
आए हैं उस की सम्त से पत्थर कभी कभी

(सम्त = तरफ़, दिशा, ओर)

हम जिस के हो गए वो हमारा न हो सका
यूँ भी हुआ हिसाब बराबर कभी कभी

याँ तिश्ना-कामियाँ तो मुक़द्दर हैं ज़ीस्त में
मिलती है हौसले के बराबर कभी कभी

(तिश्ना-कामियाँ = प्यास, दुर्भाग्य, बदक़िस्मती), (ज़ीस्त = जीवन)

आती है धार उन के करम से शुऊर में
दुश्मन मिले हैं दोस्त से बेहतर कभी कभी

(शुऊर = समझ, सलीका, चेतना)

मंज़िल की जुस्तुजू में जिसे छोड़ आए थे
आता है याद क्यूँ वही मंज़र कभी कभी

(जुस्तुजू = खोज, तलाश)

माना ये ज़िंदगी है फ़रेबों का सिलसिला
देखो किसी फ़रेब के जौहर कभी कभी

 (जौहर = गुण, दक्षता)

यूँ तो नशात-ए-कार की सरशारियाँ मिलीं
अंजाम-ए-कार का भी रहा डर कभी कभी

(नशात-ए-कार = उन्मादपूर्ण, मग्न करने वाला, चित्ताकर्षक, अति आनंदित), (सरशारियाँ = परमानन्द)

दिल की जो बात थी वो रही दिल में ऐ 'सुरूर'
खोले हैं गरचे शौक़ के दफ़्तर कभी कभी

-आल-ए-अहमद सूरूर

Monday, April 15, 2019

एक दरवेश की दुआ हूँ मैं
आज़मा ले मुझे वफ़ा हूँ मैं।

(दरवेश = फ़क़ीर/ साधू)

अपनी धड़कन में सुन ज़रा मुझको
मुद्दतों से तेरी सदा हूँ मैं।

(सदा = आवाज़)

वक़्त की धूप का शजर हूँ पर
देख ले के अभी हरा हूँ मैं।

(शजर = पेड़)

ठोकरों में रहा हूँ सदियों से
तेरी मंज़िल का रास्ता हूँ मैं।

चाह कर भी भुला न पाएगा
उसकी तक़दीर में लिखा हूँ मैं।

जो भी चाहे ख़रीद ले मुझको
सिर्फ़ मुस्कान में बिका हूँ मैं।

- विकास वाहिद १५/०४/१९

Friday, March 15, 2019

गो आबले हैं पाँव में फिर भी ऐ रहरवो
मंज़िल की जुस्तुजू है तो जारी रहे सफ़र
-नूर क़ुरैशी

(आबले = छाले), (रहरवो = यात्रियों), (जुस्तुजू = खोज, तलाश)

Wednesday, February 6, 2019

मंज़िलें न भूलेंगे राह-रौ भटकने से
शौक़ को तअल्लुक़ ही कब है पाँव थकने से
-अदीब सहारनपुरी

(राह-रौ = सहयात्री)

Tuesday, January 22, 2019

अहल-दैर-ओ-हरम रह गए

अहल-दैर-ओ-हरम रह गए
तेरे दीवाने कम रह गए

(अहल-दैर-ओ-हरम  = मंदिर और मस्जिद वाले लोग)

मिट गए मंज़िलों के निशाँ
सिर्फ़ नक़्श-ए-क़दम रह गए

(नक़्श-ए-क़दम = पैरों के निशान, पदचिन्ह)

हम ने हर शय सँवारी मगर
उन की ज़ुल्फ़ों के ख़म रह गए

बे-तकल्लुफ़ वो औरों से हैं
नाज़ उठाने को हम रह गए

रिंद जन्नत में जा भी चुके
वाइ'ज़-ए-मोहतरम रह गए

(रिंद = शराबी), (वाइज़ = धर्मोपदेशक)

देख कर तेरी तस्वीर को
आइना बन के हम रह गए

ऐ 'फ़ना' तेरी तक़दीर में
सारी दुनिया के ग़म रह गए

-फ़ना निज़ामी कानपुरी

Wednesday, January 9, 2019

दिल में अब यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं

दिल में अब यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं

एक इक कर के हुए जाते हैं तारे रौशन
मेरी मंज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं

रक़्स-ए-मय तेज़ करो साज़ की लय तेज़ करो
सू-ए-मय-ख़ाना सफ़ीरान-ए-हरम आते हैं

(रक़्स-ए-मय = शराब का नृत्य), ( सू-ए-मय-ख़ाना = मैखाने की ओर/ तरफ़), (सफ़ीरान-ए-हरम = मक्का के दूत)

कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग़
वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं

(माइल-ब-करम = दयालुता/ करुणा की इच्छा लिए)

और कुछ देर न गुज़रे शब-ए-फ़ुर्क़त से कहो
दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं

(शब-ए-फ़ुर्क़त = जुदाई की रात)


-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Saturday, December 22, 2018

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है
सोते नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है

जब से तू ने हल्की हल्की बातें कीं
यार तबीअत भारी भारी रहती है

पाँव कमर तक धँस जाते हैं धरती में
हाथ पसारे जब ख़ुद्दारी रहती है

वो मंज़िल पर अक्सर देर से पहुँचे हैं
जिन लोगों के पास सवारी रहती है

छत से उस की धूप के नेज़े आते हैं
जब आँगन में छाँव हमारी रहती है

(नेज़े = तीर)

घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है

-राहत इंदौरी

Wednesday, February 28, 2018

रह-ए-तलब में किसे आरज़ू-ए-मंज़िल है
शुऊर हो तो सफ़र ख़ुद सफ़र का हासिल है
-ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

(रह-ए-तलब = इच्छाओं की राह), (आरज़ू-ए-मंज़िल = मंज़िल की चाहत), (शुऊर = समझ, सलीका, चेतना)

Friday, January 26, 2018

एक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हमने

एक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हमने
पहले यार बनाया, फिर समझाया हमने

ख़ुद भी आख़िरकार उन्हीं वादों से बहले
जिनसे सारी दुनिया को बहलाया हमने

भीड़ ने यूं ही रहबर मान लिया है वरना
अपने अलावा किसको घर पहुंचाया हमने

(रहबर = रास्ता दिखाने वाला, पथप्रदर्शक)

मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली
ऐसा मरने का माहौल बनाया हमने

घर से निकले, चौक गए, फिर पार्क में बैठे
तन्हाई को जगह जगह बिखराया हमने

भूले भटकों सा अपना हुलिया था लेकिन
दश्त को अपनी वहशत से चौंकाया हमने

(दश्त = जंगल)

जब 'शारिक़' पहचान गए मंज़िल की हक़ीक़त
फिर रस्ते को रस्ते भर उलझाया हमने

-शारिक़ कैफ़ी 

Monday, February 6, 2017

मंज़िलों की हर कहानी बे-असर हो जायेगी

मंज़िलों की हर कहानी बे-असर हो जायेगी
हम न होंगे तो ये दुनिया दर-ब-दर हो जायेगी

ज़िन्दगी भी काश मेरे साथ रहती सारी उम्र
खैर अब जैसी भी होनी है बसर हो जायेगी

जुगनुओं को साथ लेकर रात रौशन कीजिये
रास्ता सूरज का देखा तो सहर हो जायेगी

पाँव पत्थर कर के छोड़ेगी अगर रुक जाइये
चलते रहिये तो ज़मीं भी हमसफ़र हो जायेगी

तुमने खुद ही सर चढ़ाई थी सो अब चक्खो मज़ा
मै न कहता था दुनिया दर्द-ऐ-सर हो जायेगी

-राहत इन्दौरी

Friday, November 4, 2016

इस बार मिले हैं ग़म, कुछ और तरह से भी
आँखें है हमारी नम, कुछ और तरह से भी

शोला भी नहीं उठता, काजल भी नहीं बनता
जलता है किसी का ग़म, कुछ और तरह से भी

हर शाख़ सुलगती है, हर फूल दहकता है
गिरती है कभी शबनम, कुछ और तरह से भी

मंज़िल ने दिए ताने, रस्ते भी हँसे लेकिन
चलते रहे अक़्सर हम, कुछ और तरह से भी

दामन कहीं फैला तो, महसूस हुआ यारों
क़द होता है अपना कम, कुछ और तरह से भी

उसने ही नहीं देखा, ये बात अलग वरना
इस बार सजे थे हम, कुछ और तरह से भी

-हस्तीमल ‘हस्ती’

Thursday, November 3, 2016

उस मरहले को मौत भी कहते हैं दोस्तों
इक पल में टूट जाए जहाँ उम्र भर का साथ
-शकेब जलाली

(मरहले = ठिकाने, मंज़िलें, पड़ाव)

Tuesday, October 25, 2016

ना मुँह छुपा के जियो और ना सर झुका के जियो

ना मुँह छुपा के जियो और ना सर झुका के जियो
ग़मों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो

घटा में छुप के सितारे फ़ना नहीं होते
अंधेरी रात के दिल में दीये जला के जियो

ना जाने कौन सा पल मौत की अमानत हो
हर एक पल की ख़ुशी को गले लगा के जियो

ये ज़िन्दगी किसी मंज़िल पे रूक नहीं सकती
हर इक मक़ाम से आगे क़दम बढ़ा के जियो

-साहिर लुधियानवी


न मुँह छुपा के जिये हम न सर झुका के जिये
सितमगरों की नज़र से नज़र मिला के जिये
अब एक रात अगर कम जिये तो कम ही सही
यही बहुत है कि हम मिशअलें जला के जिये
-साहिर लुधियानवी
(मिशअलें = मशालें)

na muñh chhupā ke jiye ham na sar jhukā ke jiye
sitamgaroñ kī nazar se nazar milā ke jiye
ab ek raat agar kam jiye to kam hī sahī
yahī bahut hai ki ham mish.aleñ jalā ke jiye
-Sahir Ludhianvi



Na munh chhupaa ke jio, aur naa sar jhukaa ke jio
Gamon kaa daur bhi aaye to muskuraa ke jio

Ghataa mein chhup ke sitaare fanaa nahin hote
Andheri raat ke dil mein diye jalaa ke jio

Na jaane kaun saa pal maut ki amaanat ho
Har ek pal ki khushi ko gale lagaa ke jio

Ye zindagi kisi manzil pe ruk nahin sakati
Har ek makaam se aage kadam badhaa ke jio

-Sahir Ludhianvi

Thursday, October 20, 2016

हादसे राह में ज़ंजीर बक़फ हैं लेकिन
मंज़िलों का ये तक़ाजा है के चलते रहिये
-राहत इंदौरी

(बक़फ = हाथ में)