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Sunday, April 19, 2020

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते

हम अपने हक़ से जियादा नज़र नहीं रखते
चिराग़ रखते हैं, शम्स-ओ-क़मर नहीं रखते।

 (शम्स-ओ-क़मर = सूरज और चन्द्रमा)

हमने रूहों पे जो दौलत की जकड़ देखी है
डर के मारे ये बला अपने घर नहीं रखते।

है नहीं कुछ भी प ग़ैरत प आँच आये तो
सबने देखा है के कोई कसर नहीं रखते।

इल्म रखते हैं कि इंसान को पहचान सकें
उनकी जेबों को भी नापें, हुनर नहीं रखते।

बराह-ए-रास्त बताते हैं इरादा अपना
मीठे लफ़्जों में छुपा कर ज़हर नहीं रखते।

(बराह-ए-रास्त = सीधे - सीधे)

हम पहर-पहर बिताते हैं ज़िन्दगी अपनी
अगली पीढ़ी के लिये माल-ओ-ज़र नहीं रखते।

(माल-ओ-ज़र = धन-संपत्ति)

दिल में आये जो उसे कर गु़जरते हैं अक्सर
फ़िज़ूल बातों के अगरो-मगर नहीं रखते।

गो कि आकाश में उड़ते हैं परिंदे लेकिन
वो भी ताउम्र हवा में बसर नहीं रखते।

अपने कन्धों पे ही ढोते हैं ज़िन्दगी अपनी
किसी के शाने पे घबरा के सर नहीं रखते।

(शाने = कन्धे)

कुछ ज़रूरी गुनाह होते हैं हमसे भी कभी
पर उसे शर्म से हम ढाँक कर नहीं रखते।

हर पड़ोसी की ख़बर रखते हैं कोशिश करके
रूस-ओ-अमरीका की कोई ख़बर नहीं रखते।

हाँ ख़ुदा रखते हैं, करते हैं बन्दगी पैहम
मकीन-ए-दिल के लिये और घर नहीं रखते।

(पैहम = लगातार),  (मकीन-ए-दिल = दिल का निवासी)

घर फ़िराक़ और निराला का, है अक़बर का दियार
'अमित' के शेर क्या कोई असर नहीं रखते।

(दियार = इलाका)

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Friday, May 10, 2019

पहले अपना मुआयना करना

पहले अपना मुआयना करना
फिर ज़माने पे तब्सरा करना

(तब्सरा = आलोचना, समीक्षा, तन्कीद)

एक सच्ची पुकार काफ़ी है
हर घड़ी क्या ख़ुदा-खुदा करना

ग़ैर मुमकिन भी है गुनाह भी है
पर को परवाज़ से जुदा करना

अहमियत वे अना की क्या जानें
ख़ूँ में जिनके है याचना करना

(अना = आत्मसम्मान)

आप ही अपने काम आएँगे
सीखिए ख़ुद से मशवरा करना

-हस्तीमल 'हस्ती'

Thursday, January 31, 2019

सिर्फ़ पहला गुनाह मुश्किल था
फिर तो आदत में ढल गया सब-कुछ
-  राजेश रेड्डी

Tuesday, March 28, 2017

शिकवा-ए-इज़्तिराब कौन करे

शिकवा-ए-इज़्तिराब कौन करे
अपनी दुनिया ख़राब कौन करे

(इज़्तिराब = व्याकुलता, बेचैनी, आतुरता), (शिकवा-ए-इज़्तिराब = बेचैनी की शिकायत)

गिन तो लेते हैं उँगलियों पे गुनाह
रहमतों का हिसाब कौन करे

इश्क़ की तल्ख़-कामियों के निसार
ज़िंदगी कामयाब कौन करे

(तल्ख़-कामियों = खराब अनुभव), (निसार = न्यौछावर करना)

हम से मय-कश जो तौबा कर बैठें
फिर ये कार-ए-सवाब कौन करे

(कार-ए-सवाब = पुण्य का काम)

ग़र्क़-ए-जाम-ए-शराब हो के 'शकील'
शग़्ल-ए-जाम-ओ-शराब कौन करे

(ग़र्क़-ए-जाम-ए-शराब = शराब के प्याले में डूबना), (शग़्ल-ए-जाम-ओ-शराब = प्याले और शराब का शौक़)

-शकील बदायुनी

Saturday, December 7, 2013

जो बाग़ के फूलों की हिफ़ाज़त नहीं करते

जो बाग़ के फूलों की हिफ़ाज़त नहीं करते
हम ऐसे उजालों की हिमायत नहीं करते

जूड़े में ही सजने का फ़क़त शौक़ है जिनको
हम ऐसे गुलाबों से मुहब्बत नहीं करते

ज़िंदा हैं मेरे शहर में क्यों ज़ुल्म अभी तक
मुंसिफ तो गुनाहों की वकालत नहीं करते

(मुंसिफ़ = इन्साफ या न्याय करने वाला)

होने लगी शालाओं में ये कैसी पढ़ाई
अब बच्चे बुज़ुर्गों की भी इज़्ज़त नहीं करते

-हस्तीमल 'हस्ती'

Sunday, October 6, 2013

अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं
पागल हैं हम अपनी नींद उड़ा लेते हैं

जीवन अमृत कब हमको अच्छा लगता है
ज़हर हमें अच्छा लगता है खा लेते हैं

क़त्ल किया करते हैं कितनी चालाकी से
हम ख़ंजर पर नाम अपना लिखवा लेते हैं

रास नहीं आता है हमको उजला दामन
रुसवाई के गुल-बूटे बनवा लेते हैं

पंछी हैं लेकिन उड़ने से डर लगता है
अक्सर अपने बाल-ओ-पर कटवा लेते हैं

(बाल-ओ-पर = बाजू और पँख)

सत्ता की लालच ने धरती बाँटी लेकिन
अपने सीने पर तमगा लटका लेते हैं

याद नहीं है मुझको भी अब दीन का रस्ता
नाम मुहम्मद का लेकिन अपना लेते हैं

औरों को मुजरिम ठहरा कर अब हम 'आलम'
अपने गुनाहों से छुटकारा पा लेते हैं

-आलम खुर्शीद

Saturday, July 27, 2013

नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद

मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता ख़ुद को
किसी की चाह न थी दिल में, तिरी चाह के बाद

ज़मीर काँप तो जाता है, आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले, कि हो गुनाह के बाद

कहीं हुई थीं तनाबें तमाम रिश्तों की
छुपाता सर मैं कहाँ तुम से रस्म-ओ-राह के बाद

(तनाब = खेमा बाँधने की रस्सी)

गवाह चाह रहे थे, वो मिरी बेगुनाही का
जुबाँ से कह न सका कुछ, 'ख़ुदा गवाह' के बाद

-कृष्ण बिहारी 'नूर'

Wednesday, July 10, 2013

नाकर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद,
या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सज़ा है ।
-मिर्ज़ा ग़ालिब

(कर्दा = किया हुआ)

जो गुनाह हमने किये हैं, अगर उनकी सज़ा मिलना ज़रूरी है तो जो गुनाह अपनी प्रवृति के कारण हम नहीं कर सके और उनकी हसरत दिल में रह गई, उनकी शाबाशी भी मिलनी चाहिए।

Friday, May 31, 2013

दुनिया से वफ़ा करके सिला ढूँढ रहे हैं
हम लोग भी नादाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं

कुछ देर ठहर जाईये बंदा-ए-इन्साफ़
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं

ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ
क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं

दुनिया की तमन्ना थी कभी हम को भी 'फ़ाकिर'
अब ज़ख़्म-ए-तमन्ना की दवा ढूँढ रहे हैं
-सुदर्शन फ़ाकिर

Wednesday, May 15, 2013

डूबा हो जब अँधेरे में हमसाए का मकान,
अपने मकां में शम्आ जलाना गुनाह है।
-खुमार बाराबंकवी

Friday, February 22, 2013

जो गुनाहों में लगे हैं उनकी क्यों चर्चा करें,
जो गुनाहों से बचे हैं उनको हम सजदा करें।
-नित्यानंद 'तुषार'

Wednesday, February 20, 2013

हर कोई पारसाई की उम्दा मिसाल था,
दिल ख़ुश हुआ है एक गुनाहगार देख कर।
- अदीम हाशमी

(पारसाई = संयम, सदाचार)



 
सब्र हर बार अख्तियार किया
हम से होता नहीं हज़ार किया


आदतन तुम ने कर दिये वादे
आदतन हम ने ऐतबार किया


हमने अक्सर तुम्हारी राहों में
रुक के अपना ही इन्तज़ार किया


अब ना माँगेंगे ज़िन्दगी या रब
ये गुनाह हम ने एक बार किया
-गुलज़ार





Saturday, November 17, 2012

गुनहगारों में शामिल हैं, गुनाहों से नहीं वाक़िफ़,
सज़ा को जानते हैं हम, ख़ुदा जाने ख़ता क्या है?
-चकबस्त

Saturday, October 13, 2012

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं

ज़िन्दगी को भी सिला कहते हैं कहनेवाले
जीनेवाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं

फ़ासले उम्र के कुछ और बढा़ देती है
जाने क्यूँ लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं

चंद मासूम से पत्तों का लहू है "फ़ाकिर"
जिसको महबूब के हाथों की हिना कहते हैं
-सुदर्शन फ़ाकिर

Saturday, October 6, 2012

रौशनी का सुराग़ गायब है
रास्ते का चिराग़ गायब है

आज सब से बड़ा ज़हीन है वो
जिस के सर से दिमाग़ गायब है
उम्र जिन की गुनाह में गुज़री
उन के दामन से दाग़ गायब है

रह रहे हैं मशीनी दौर में हम
ज़िंदगी से फ़राग़ गायब है
(फ़राग़ = निश्चिंतता, बेफिक्री)
 
तश्ना लब हैं तमाम बादा कश
मयकदे से अयाग़ गायब है
[(तश्ना लब = प्यासे होंट); (अयाग़ = प्याला)]

हर तरफ़ हैं ग़नीम सफ़-बस्ता
दोस्तों का सुराग़ गायब है
[(ग़नीम = दुश्मन); (सफ़-बस्ता = कतारबन्द)]
 
किस की जादूगरी है ये 'रहबर`
फल तो हाज़िर हैं बाग़ गायब है
- राजेन्द्र नाथ ‘रहबर’

Tuesday, October 2, 2012

गुलशन परस्त हूँ, मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किये जा रहा हूँ मैं
यूँ ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
- जिगर मुरादाबादी
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फुर्सत
हमे गुनाह भी करने को ज़िन्दगी कम है
-आनंद नारायण मुल्ला

Thursday, September 27, 2012

एक-एक सांस उसके लिए कत्लगाह थी,
उसका गुनाह ये था कि वो बेगुनाह थी

वो एक मिटी हुई सी इबारत बनी रही,
चेहरा खुली किताब था, किस्मत सियाह थी
शहनाईयां-उसे भी बुलाती रही मगर,
हर मोड़ पर दहेज़ की कुर्बानगाह थी

वो चाहती थी कि रूह उसे सौंप दे मगर,
उस आदमी की सिर्फ बदन पर निगाह थी
-शायर: नामालूम