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Friday, May 10, 2013


वे ख़ाम-ख़्वाह हथेली पे जान रखते हैं
अजीब लोग हैं मुँह में ज़ुबान रखते हैं

ख़ुशी तलाश न कर मुफ़लिसों की बस्ती में
ये शय अभी तो यहाँ हुक़्मरान रखते हैं

यहँ की रीत अजब दोस्तो, रिवाज अजब
यहाँ ईमान फक़त बे-ईमान रखते हैं

चबा-चबा के चबेने-सा खा रहे देखो
वो अपनी जेब में हिन्दोस्तान रखते हैं

ग़मों ने दिल को सजाया, दुखों ने प्यार किया
ग़रीब हम हैं मगर क़द्रदान रखते हैं

वे जिनके पाँव के नीचे नहीं ज़मीन कोई
वे मुठ्ठियों में कई आसमान रखते हैं

सजा के जिस्म न बेचें यहाँ, कहाँ बेचें
ग़रीब लोग हैं, घर में दुकान रखते हैं।
-नूर मुहम्मद `नूर'

Sunday, February 3, 2013

उधर इस्लाम ख़तरे में, इधर है राम ख़तरे में,
मगर मैं क्या करूँ, है मेरी सुबहो-शाम ख़तरे में।

वो ग़म वाले से बम वाले हुए उनको पता क्यूँ हो,
के मुश्किल में मेरी रोटी, है मेरा जाम ख़तरे में।

ये क्या से क्या बना डाला है हमने मुल्क को अपने,
कहीं हैरी, कहीं हामिद, कहीं हरनाम ख़तरे में।

ग़ज़लगोई, ये अफ़साने, रिसाले और तहरीकें,
किताबत, सचकलामी, हाय सारे काम ख़तरे में।

(रिसाला = पत्र, पुस्तकें), (तहरीक = आंदोलन/ प्रस्ताव), (किताबत = लिखना)

न बोलो सच ज़ियादा 'नूर' वर्ना लोग देखेंगे,
तुम्हारी जान जोख़िम में तुम्हारा नाम ख़तरे में।

-नूर मुहम्मद नूर