उधर इस्लाम ख़तरे में, इधर है राम ख़तरे में,
मगर मैं क्या करूँ, है मेरी सुबहो-शाम ख़तरे में।
वो ग़म वाले से बम वाले हुए उनको पता क्यूँ हो,
के मुश्किल में मेरी रोटी, है मेरा जाम ख़तरे में।
ये क्या से क्या बना डाला है हमने मुल्क को अपने,
कहीं हैरी, कहीं हामिद, कहीं हरनाम ख़तरे में।
ग़ज़लगोई, ये अफ़साने, रिसाले और तहरीकें,
किताबत, सचकलामी, हाय सारे काम ख़तरे में।
मगर मैं क्या करूँ, है मेरी सुबहो-शाम ख़तरे में।
वो ग़म वाले से बम वाले हुए उनको पता क्यूँ हो,
के मुश्किल में मेरी रोटी, है मेरा जाम ख़तरे में।
ये क्या से क्या बना डाला है हमने मुल्क को अपने,
कहीं हैरी, कहीं हामिद, कहीं हरनाम ख़तरे में।
ग़ज़लगोई, ये अफ़साने, रिसाले और तहरीकें,
किताबत, सचकलामी, हाय सारे काम ख़तरे में।
(रिसाला = पत्र, पुस्तकें), (तहरीक = आंदोलन/ प्रस्ताव), (किताबत = लिखना)
न बोलो सच ज़ियादा 'नूर' वर्ना लोग देखेंगे,
तुम्हारी जान जोख़िम में तुम्हारा नाम ख़तरे में।
-नूर मुहम्मद नूर
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