Showing posts with label -शायर: ताहिर फ़राज़. Show all posts
Showing posts with label -शायर: ताहिर फ़राज़. Show all posts

Friday, October 24, 2014

काश ऐसा कोई मंज़र होता

काश ऐसा कोई मंज़र होता
मेरे कांधे पे तेरा सर होता

जमा करता जो मैं आए हुए संग
सर छुपाने के लिये घर होता

(संग = पत्थर)

इस बुलंदी पे बहुत तन्हा हूँ
काश मैं सबके बराबर होता

उस ने उलझा दिया दुनिया में मुझे
वरना इक और क़लंदर होता

(क़लंदर = साधू, त्यागी, मस्त मौला)

-ताहिर फ़राज़

हरिहरन/ Hariharan


Saturday, December 7, 2013

नज़र बचाके गुज़रते हो तो गुज़र जाओ
मैं आईना हूँ मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है
-ताहिर फ़राज़
बाँध रखा है ज़हन में जो ख़याल ,
उसमे तरमीम क्यूँ नहीं करते

बे-सबब उलझनों में रहते हो,
मुझको तसलीम क्यूँ नहीं करते
-ताहिर फ़राज़

( तरमीम = संशोधन, सुधार), (तसलीम = स्वीकारना)

मत घबरा ऐ प्यासे दरिया सूरज आने वाला है
बर्फ़ पहाड़ों से पिघलेगी, जल ही जल हो जाएगा
-ताहिर फ़राज़
थे जो अपने हुए वो पराये
रंग किस्मत ने ऐसे दिखाये

हम जो मोती किसी हार के थे
ऐसे बिखरे के फिर जुड़ न पाये
-ताहिर फ़राज़
पहले कुछ दूर तक साथ चलके परख
फिर मुझे हमसफ़र, हमसफ़र बोलना

उम्रभर को मुझे बेसदा कर गया
तेरा एक बार मुँह फेरकर बोलना
-ताहिर फ़राज़
मैंने तो एक लाश की, दी थी ख़बर "फ़राज़"
उलटा मुझी पे क़त्ल का इल्ज़ाम आ गया
-ताहिर फ़राज़

Friday, January 18, 2013

इतना भी करम उनका कोई कम तो नहीं है,
ग़म दे वो  पूछें हैं, कोई ग़म तो नहीं है।

नक्शा जो मुझे ख़ुल्द में दिखलाया गया था,
ए साहिबे-आलम, ये वो आलम तो नहीं है।

[(ख़ुल्द = स्वर्ग, बहिश्त), (आलम = दुनिया, संसार, अवस्था, दशा)]

हालात मेरे इन दिनों पेचीदा बहुत हैं,
ज़ुल्फ़ों में कहीं तेरी कोई ख़म तो नहीं है।

सीने से हटाता ही नहीं हाथ वो लड़का,
देखो तो सही दिल में वोही ग़म तो नहीं है।

चल मान लिया तेरा कोई दोष नहीं था,
हालांकी दलीलों में तेरी दम तो नहीं है।

-ताहिर फ़राज़

Monday, January 14, 2013

खुद को पढ़ता हूँ, छोड़ देता हूँ,
एक वर्क रोज़ मोड़ देता हूँ।

इस कदर ज़ख्म हैं निगाहों में,
रोज़ इक आईना तोड़ देता हूँ।

मैं पुजारी बरसते फूलों का,
छू के शाखों को छोड़ देता हूँ।

कासा-ए-शब में खून सूरज का,
कतरा कतरा निचोड़ देता हूँ।

कांपते होंठ भीगती पलकें,
बात अधूरी ही छोड़ देता हूँ।

रेत के घर बना बना के 'फ़राज़',
जाने क्यों खुद ही तोड़ देता हूँ।
-ताहिर फ़राज़ 


http://www.youtube.com/watch?v=wRwuqjeMDrs

 

Sunday, January 13, 2013

शामे-ग़म तुझ से जो डर जाते हैं,
शब गुज़र जाये तो घर जाते हैं।

यूँ नुमाया हैं तेरे कूचे में,
हम झुकाए हुए, सर जाते हैं।

अब अना का भी हमें बास नहीं,
वो बुलाते नहीं पर जाते हैं।

[(अना  = आत्मसम्मान), (बास =  दुख, ग़म)]

वक़्त रुखसत उन्हें रुखसत करने,
हम भी ताहद-ए-नज़र जाते हैं।

याद करते नहीं जिस दिन तुझे हम,
अपनी नज़रों से उतर जाते हैं।

वक़्त से पूछ रहा है कोई,
ज़ख्म क्या वाकई भर जाते हैं।

ज़िन्दगी तेरे तआकुब में हम,
इतना चलते हैं कि मर जाते हैं।

(तआकुब = पीछा करना)

मुझको तन्कीद भली लगती है,
आप तो हद से गुज़र जाते हैं।

(तन्कीद = परख, पड़ताल, समीक्षा, समालोचना)

-ताहिर फ़राज़