Sunday, January 13, 2013

शामे-ग़म तुझ से जो डर जाते हैं,
शब गुज़र जाये तो घर जाते हैं।

यूँ नुमाया हैं तेरे कूचे में,
हम झुकाए हुए, सर जाते हैं।

अब अना का भी हमें बास नहीं,
वो बुलाते नहीं पर जाते हैं।

[(अना  = आत्मसम्मान), (बास =  दुख, ग़म)]

वक़्त रुखसत उन्हें रुखसत करने,
हम भी ताहद-ए-नज़र जाते हैं।

याद करते नहीं जिस दिन तुझे हम,
अपनी नज़रों से उतर जाते हैं।

वक़्त से पूछ रहा है कोई,
ज़ख्म क्या वाकई भर जाते हैं।

ज़िन्दगी तेरे तआकुब में हम,
इतना चलते हैं कि मर जाते हैं।

(तआकुब = पीछा करना)

मुझको तन्कीद भली लगती है,
आप तो हद से गुज़र जाते हैं।

(तन्कीद = परख, पड़ताल, समीक्षा, समालोचना)

-ताहिर फ़राज़ 

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