Showing posts with label उदासी. Show all posts
Showing posts with label उदासी. Show all posts

Saturday, December 18, 2021

ज़िन्दगी की तलाश जारी है

ज़िन्दगी की तलाश जारी है
इक ख़ुशी की तलाश जारी है।

हर तरफ़ ज़ुल्मतों के मौसम में
रौशनी की तलाश जारी है।

(ज़ुल्मत = अंधेरा)

इस उदासी के ढेर के नीचे
इक हँसी की तलाश जारी है।

जो बचा ले सज़ा से हाक़िम को
उस गली की तलाश जारी है।

(हाक़िम  = न्यायाधिश, जज, स्वामी, मालिक, राजा, हुक्म करने वाला)

जो परख ले हमें यहां ऐसे
जौहरी की तलाश जारी है।

खो गया है कहीं कोई मुझमें
बस उसी की तलाश जारी है।

मिल गए हैं ख़ुदा कई लेकिन
आदमी की तलाश जारी है।

- विकास जोशी "वाहिद"  १३/१२/१९

Wednesday, April 15, 2020

ज़िन्दगी इक तलाश है, क्या है?

ज़िन्दगी इक तलाश है, क्या है?
दर्द इसका लिबास है क्या है?

फिर हवा ज़हर पी के आई क्या,
सारा आलम उदास है, क्या है?

एक सच के हज़ार चेहरे हैं,
अपना-अपना क़यास है, क्या है

(क़यास = अन्दाज़ा)

जबकि दिल ही मुकाम है रब का,
इक जमीं फिर भी ख़ास है, क्या है

राम-ओ-रहमान की हिफ़ाज़त में,
आदमी! बदहवास है, क्या है?

सुधर तो सकती है दुनियाँ, लेकिन
हाल, माज़ी का दास है, क्या है?

(माज़ी = अतीत्, भूतकाल)

मिटा रहा है ज़माना इसे जाने कब से,
इक बला है कि प्यास है, क्या है?

गौर करता हूँ तो आती है हँसी,
ये जो सब आस पास है क्या है?

-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

Saturday, July 27, 2019

हँसी में छुप न सकी आँसुओं से धुल न सकी
अजब उदासी है जिस का कोई सबब भी नहीं

बुरा न मान 'ज़िया' उस की साफ़-गोई का
जो दर्द-मंद भी है और बे-अदब भी नहीं

(सबब = कारण), (दर्द-मंद = हमदर्द, सहानुभूति प्रकट करनेवाला)

-ज़िया जालंधरी

Sunday, May 12, 2019

मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी

मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी
कहीं कहीं पे छुपे थे मगर सवेरे भी

निकल पड़े थे तो फिर राह में ठहरते क्या
यूँ आस-पास कई पेड़ थे घनेरे भी

ये शहर-ए-सब्ज़ है लेकिन बहुत उदास हुए
ग़मों की धूप में झुलसे हुए थे डेरे भी

(शहर-ए-सब्ज़ = जीवंत/ ज़िंदादिल शहर)

हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं
सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी

(हुदूद-ए-शहर = शहर की हदों)

समुंदरों के ग़ज़ब को गले लगाए हुए
कटे-फटे थे बहुत दूर तक जज़ीरे भी

(जज़ीरे = द्वीप)

-खलील तनवीर

Wednesday, April 10, 2019

उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है

उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है
अजीब दिल है गिरूँ तो सँभाल लेता है

ये कैसा शख़्स है कितनी ही अच्छी बात कहो
कोई बुराई का पहलू निकाल लेता है

ढले तो होती है कुछ और एहतियात की उम्र
कि बहते बहते ये दरिया उछाल लेता है

बड़े-बड़ों की तरह-दारियाँ नहीं चलतीं
उरूज तेरी ख़बर जब ज़वाल लेता है

(उरूज = बुलंदी, ऊँचाई), (ज़वाल = हृास, पतन)

जब उस के जाम में इक बूँद तक नहीं होती
वो मेरी प्यास को फिर भी सँभाल लेता है

-वसीम बरेलवी

Thursday, January 17, 2019

न दीद है, न सुख़न, अब न हर्फ़ है, न पयाम
कोई भी हीला-ए-तस्कीं नहीं, और आस बहुत है
उम्मीद-ए-यार, नज़र का मिजाज़, दर्द का रंग
तुम आज कुछ भी न पूछो कि दिल उदास बहुत है
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

(दीद= दर्शन, दीदार), (सुख़न = बात-चीत, संवाद, वचन),  (हर्फ़ = अक्षर),  (पयाम = सन्देश), (हीला-ए-तस्कीं = तसल्ली देने का बहाना), (आस = आशा)

Friday, January 11, 2019

हम फ़क़ीरों की सूरतों पे न जा
हम कई रूप धार लेते हैं

ज़िंदगी के उदास लम्हों को
मुस्कुरा कर गुज़ार लेते हैं

-साग़र सिद्दीक़ी

Sunday, December 30, 2018

यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है

यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है
वो कौन है जो है भी नहीं और उदास है

मुमकिन है लिखने वाले को भी ये ख़बर न हो
क़िस्से में जो नहीं है वही बात ख़ास है

माने न माने कोई हक़ीक़त तो है यही
चर्ख़ा है जिस के पास उसी की कपास है

इतना भी बन-सँवर के न निकला करे कोई
लगता है हर लिबास में वो बे-लिबास है

छोटा बड़ा है पानी ख़ुद अपने हिसाब से
उतनी ही हर नदी है यहाँ जितनी प्यास है

-निदा फ़ाज़ली

Tuesday, October 16, 2018

हरा शजर न सही ख़ुश्क घास रहने दे

हरा शजर न सही ख़ुश्क घास रहने दे
ज़मीं के जिस्म पे कोई लिबास रहने दे

(शजर = पेड़, वृक्ष), (ख़ुश्क घास = सूखी घास)

कहीं न राह में सूरज का क़हर टूट पड़े
तू अपनी याद मिरे आस-पास रहने दे

तसव्वुरात के लम्हों की क़द्र कर प्यारे
ज़रा सी देर तो ख़ुद को उदास रहने दे

(तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद)

-सुल्तान अख़्तर

Monday, March 19, 2018

नहीं ! ऐसा नहीं है हम सभी को भूल जाते हैं

नहीं ! ऐसा नहीं है हम सभी को भूल जाते हैं
हमें जो भूल जाता है , उसी को भूल जाते हैं

सभी को याद रखना भी कभी मुमकिन नहीं होता
किसी को याद रखते हैं, किसी को भूल जाते हैं

कुछ ऐसे लोग हैं जिन को भुला देने की कोशिश में
कभी ख़ुद को कभी हम ज़िन्दगी को भूल जाते हैं

हमें औरों की खामी तो हमेशा याद रहती है
बुरा ये हैं कि हम अपनी कमी को भूल जाते हैं

हमारी बेसबब गहरी उदासी का सबब ये है
कि हम ग़म याद रखते हैं ख़ुशी को भूल जाते हैं

चमकती शाहराहों में कशिश ऐसी है कुछ आलम
कि लोग अपना नगर, अपनी गली को भूल जाते हैं

-आलम खुर्शीद

Sunday, March 18, 2018

नव वर्ष के दोहेे

अब खूँटी पर टाँग दे, नफ़रत-भरी कमीज़ ।
बोना है नव वर्ष में, मुस्कानों के बीज ।।

घर में या परदेस में ,सबसे मुझको प्यार ।
सबके आँगन में खिले, फूलों का संसार ।।

नए साल से हम कहें-करलो दुआ कुबूल ।
माफ़ करें हर एक की, जो-जो खटकी भूल ।।

मुड़-मुड़कर क्या देखना, पीछे उड़ती धूल ।
फूलों की खेती करो, हट जाएँगे शूल ।।

अधरों पर मुस्कान ले, कहता है नव वर्ष ।
छोड़ उदासी को यहाँ, आ पहुँचा है हर्ष ।।

-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

Friday, July 28, 2017

रफ़ाक़तों में पशेमानियाँ तो होती हैं

रफ़ाक़तों में पशेमानियाँ तो होती हैं
कि दोस्तों से भी नादानियाँ तो होती हैं

(रफ़ाक़त = मित्रता, मेलजोल), (पशेमानियाँ = लज्जा, शर्मिंदगी, संकोच,पश्चाताप)

बस इस सबब से, कि तुझ पर बहुत भरोसा था
गिले न हों भी तो, हैरानियाँ तो होती हैं

(सबब = कारण), (गिले = शिकायतें)

उदासियों का सबब क्या कहें बजुज़ इसके
ये ज़िन्दगी है, परेशानियाँ तो होती हैं

(सबब = कारण), (बजुज़ = अलावा, सिवाय, अतिरिक्त)

'फ़राज़' भूल चुका है तेरे फ़िराक़ के दुःख
कि शायरों में तनासानियाँ तो होती हैं

(फ़िराक़ - वियोग, विरह, जुदाई), (तनासानी = आरामतलबी, आलस, सुस्ती)

-अहमद फ़राज़

Thursday, February 25, 2016

ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से

ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से
मैं जी उठा हूँ ज़रा ताज़गी के आने से

उदास हो गये यकलख़्त शादमां चेहरे
मेरे लबों पे ज़रा सी हँसी के आने से

(यकलख़्त = एक बारगी, आकस्मिक, अचानक, एकदम से), (शादमां = प्रसन्न, ख़ुश)

दुखों के यार बिछड़ने लगे हैं अब मुझ से
ये सानेहा भी हुआ है खुशी के आने से

(सानेहा = आपत्ति, मुसीबत, दुर्घटना)

करख़्त होने लगे हैं बुझे हुए लहजे
मिरे मिजाज़ में शाइस्तगी के आने से

(करख़्त = कड़ा, कठोर), (शाइस्तगी = शिष्टता, सभ्यता)

बहुत सुकून से रहते थे हम अँधेरे में
फ़साद पैदा हुआ रौशनी के आने से

यक़ीन होता नहीं शहर-ए-दिल अचानक यूँ
बदल गया है किसी अजनबी के आने से

मैं रोते रोते अचानक ही हंस पड़ा 'आलम'
तमाशबीनों में संजीदगी के आने से

- आलम खुर्शीद

Wednesday, February 24, 2016

सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना

सुलगती रेत पे रौशन सराब रख देना
उदास आँखों में खुशरंग ख़्वाब रख देना

(सराब = मृगतृष्णा)

सदा से प्यास ही इस ज़िन्दगी का हासिल है
मेरे हिसाब में ये बेहिसाब रख देना

वफ़ा, ख़ुलूस, मुहब्बत, सराब ख़्वाबों के
हमारे नाम ये सारे अज़ाब रख देना

(ख़ुलूस = सरलता और निष्कपटता, सच्चाई, निष्ठां), (सराब = मृगतृष्णा), (अज़ाब = कष्ट, यातना, पीड़ा, दुःख, तकलीफ)

सुना है चाँद की धरती पे कुछ नहीं उगता
वहाँ भी गोमती, झेलम, चिनाब रख देना

क़दम क़दम पे घने कैक्टस उग आए हैं
मेरी निगाह में अक्से-गुलाब रख देना

(अक्से-गुलाब = गुलाब का प्रतिबिम्ब/ तस्वीर)

मैं खो न जाऊँ कहीं तीरगी के जंगल में
किसी शजर के तले आफ़ताब रख देना

(तीरगी = अन्धकार), (शजर = पेड़, वृक्ष), (आफ़ताब = सूरज)

- आलम खुर्शीद

क्या सेह्र तेरे आरिज़-ओ-लब के नहीं रहे

क्या सेह्र तेरे आरिज़-ओ-लब के नहीं रहे
अब रंग ही वो शेर-ओ-अदब के नहीं रहे

(सेह्र = जादू), (आरिज़-ओ-लब = गाल और होंट)

बाक़ी नहीं है हिज्र के नग़मों में वो कसक
वो ज़मज़मे भी वस्ल की शब के नहीं रहे

(हिज्र = जुदाई, वियोग), (ज़मज़मे = गीत), (वस्ल = मिलन), (शब = रात)

वहशत में कोई ख़ाक उड़ाये भी क्यूँ भला
जब मसअले ही तर्क-ओ-तलब के नहीं रहे

(तर्क-ओ-तलब = त्याग और माँग/ इच्छा)

ऐश-ओ-तरब की शर्त पे ज़िंदा हैं राबिते
रिश्ते कहीं भी दर्द-ओ-तअब के नहीं रहे

(ऐश-ओ-तरब = भोगविलास और आनंद), (राबिते = मेल-जोल, सम्बन्ध), (दर्द-ओ-तअब = दर्द और तकलीफ़)

ताबीर किस को ढूँढने आई है अब यहाँ
आँखों के सारे ख़्वाब तो कब के नहीं रहे

(ताबीर = स्वप्नकाल बताना, स्वप्न का फल)

ऐ शहरे-बदहवास ! मैं तन्हा नहीं उदास
अब चैन और क़रार तो सब के नहीं रहे

मेरी ज़बां तराश के 'आलम' वो खुश है यूँ
इम्कान् जैसे शोर-ओ-शग़ब के नहीं रहे

(इम्कान् = सम्भावना, सामर्थ्य), (शोर-ओ-शग़ब = कोलाहल, शोरगुल)

- आलम खुर्शीद

Wednesday, May 20, 2015

हम धुएँ में जब ज़रा उतरे, धुआँ खुलने लगा

हम धुएँ में जब ज़रा उतरे, धुआँ खुलने लगा
राख में मलबा कुरेदा तो मकाँ खुलने लगा

जैसे-जैसे उस तआल्लुक़ का गुमाँ खुलने लगा
क्या नहीं था और क्या था दरमियाँ खुलने लगा

हमने तो उसके इक आँसू को ज़रा खोला था बस
फिर तो अपने आप ही वो बेज़ुबाँ खुलने लगा

नाउमीदी, अश्क़, तनहाई, उदासी, हसरतें
रफ़्ता-रफ़्ता ज़िन्दगी का हर निशाँ खुलने लगा

हमने जब छोड़ा उसे दैरो-हरम में ढूँढ़ना
बन्द पलकों में हमारी लामकाँ खुलने लगा

(दैरो-हरम = मंदिर और मस्जिद), (लामकाँ = वो जो रहने की जगह से पर हो, ईश्वर, ख़ुदा)

हमने अपनी ज़ात से बाहर रखा पहला क़दम
और हमारे सामने सारा जहाँ खुलने लगा

जैसे-जैसे दोस्तों से दोस्ती गहरी हुई
पीठ के हर ज़ख्म का इक-इक निशाँ खुलने लगा

उम्र ढलने पर समझ में ज़िन्दगी आने लगी
जब सिमटने लग गए पर, आसमाँ खुलने लगा

-शायर: राजेश रेड्डी

Saturday, November 8, 2014

उसी मक़ाम पे कल मुझको देखकर तनहा
बहुत उदास हुए फूल बेचने वाले
-जमाल एहसानी

(मक़ाम = ठहरने की जगह, स्थान)

शाम भी थी धुआँ धुआँ, हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ, याद सी आके रह गईं
-फ़िराक़ गोरखपुरी

Thursday, October 23, 2014

मौज़ू-ए-सुखन

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ए-महताब से रात
और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी,
और उन हाथों से मस होंगे ये तरसे हुए हाथ

(गुल हुई जाती है = बुझ रही है), (अफ़सुर्दा = उदास), (चश्म-ए-महताब = चन्द्रमा की आँख),
(मुश्ताक = उत्सुक, अभिलाषी), (मस = छूना, स्पर्श)


उनका आँचल है कि रुख़सार के पैराहन हैं
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छांवों में
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं

(रुख़सार = कपोल, गाल), (पैराहन = लिबास), (मौहूम = भ्रामक, कल्पित), (आवेज़ा = कान का झुमका)


आज फिर हुस्न-ए-दिलारा की वही धज होगी
वो ही ख़्वाबिदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर
रंग-ए-रुख़सार पे हल्का-सा वो गाज़े का गुबार
संदली हाथ पे धुंधली-सी हिना की तहरीर

(हुस्न-ए-दिलारा = मनमोहक सौंदर्य), (ख़्वाबिदा = स्वप्निल), (रंग-ए-रुख़सार = गालों का रंग), (गाज़ा = मुँह पर मलने वाला सुगन्धित रोगन), (संदली = चन्दन जैसा), (हिना = मेंहदी), (तहरीर = लेख, लिखावट)


अपने अफ़कार की अश'आर की दुनिया है यही
जान-ए-मज़मूं है यही, शाहिद-ए-माना है यही

(अफ़कार = फ़िक्र का बहुवचन, चिंताएँ),  (अश'आर = शेर का बहुवचन), (जान-ए-मज़मूं = विषय की जान), (शाहिद-ए-माना = अर्थों की सुंदरता)


आज तक सुर्ख़-ओ-सियह सदियों के साए के तले
आदम-ओ-हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है
मौत और ज़ीस्त की रोज़ाना सफ़आराई में
हम पे क्या गुज़रेगी, अजदाद पे क्या गुज़री है

(सुर्ख़-ओ-सियह = सफ़ेद और काली), (ज़ीस्त = जीवन), (सफ़आराई = मोर्चाबंदी), (अजदाद = पुरखे)


इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़लूक़
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है
यह हसीं खेत फटा पड़ता है जोबन जिनका
किस लिए इनमें फ़क़त भूख उगा करती है

(फ़रावाँ - प्रचुर, बहुसंख्यक),  (मख़लूक़ = जनता), (फ़क़त = सिर्फ़)


यह हर इक सम्त, पुर-असरार कड़ी दीवारें
जल बुझे जिनमें हज़ारों की जवानी के चराग़
यह हर इक गाम पे उन ख़्वाबों की मक़्तल गाहें
जिनके परतौ से चराग़ाँ हैं हज़ारों के दिमाग़

(सम्त = ओर), (पुर-असरार = रहस्यपूर्ण), (गाम = पग), (मक़्तल गाहें = क़त्लगाहें, वध स्थल), (परतौ = प्रतिबिम्ब, अक्स), (चराग़ाँ = दीप्तिमान)


यह भी हैं, ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे
लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से ख़ुलते हुए होंठ
हाय उस जिस्म के कमबख़्त, दिलावेज़ ख़ुतूत !
आप ही कहिए, कहीं ऐसे भी अफ़्सूँ होंगे

(मज़मूँ = विषय), (दिलावेज़ ख़ुतूत = मनोहर/ हृदयाकर्षक रेखाएं (बनावट)), (अफ़्सूँ = जादू)



अपना मौज़ू-ए-सुखन इन के सिवा और नही
तब-ए-शायर का वतन इनके सिवा और नही

 (मौज़ू-ए-सुखन = काव्य का विषय), (तब-ए-शायर = शायर की प्रकृति)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


आबिदा परवीन/ Abida Parveen

Wednesday, October 15, 2014

बना गुलाब तो कांटे चुभा गया इक शख़्स
हुआ चिराग़ तो घर ही जला गया इक शख़्स

तमाम रंग मेरे और सारे ख़्वाब मेरे
फ़साना थे कि फ़साना बना गया इक शख़्स

(फ़साना = कहानी, कथा, वृतांत, हाल)

मैं किस हवा में उड़ूँ किस फ़ज़ा में लहराऊँ
दुखों के जाल हर इक सू बिछा गया इक शख़्स

(फ़ज़ा = वातावरण, बहार, रौनक), (हर इक सू = हर एक तरफ़)

पलट सकूँ मैं न आगे बढ़ सकूँ जिस पर
मुझे ये कौन से रस्ते लगा गया इक शख़्स

मुहब्बतें भी अजब उसकी नफ़रतें भी कमाल
मेरी ही तरह का मुझ में समां गया इक शख़्स

वो माहताब था मरहम-बदस्त आया था
मगर कुछ और सिवा दिल दुखा गया इक शख़्स

(माहताब = चन्द्रमा, चाँद), (मरहम-बदस्त = हाथ के ज़ख्मों में मलहम लगाए हुए)

मुहब्बतों ने किसी की भुला रखा था उसे
मिले वो ज़ख़्म कि फिर याद आ गया इक शख़्स

खुला ये राज़ के आइना-खाना है दुनिया
और उसमें मुझ को तमाशा बना गया इक शख़्स

(आइना-खाना = शीश महल)

-उबैदुल्लाह अलीम



रूना लैला 


आबिदा परवीन