उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है
अजीब दिल है गिरूँ तो सँभाल लेता है
ये कैसा शख़्स है कितनी ही अच्छी बात कहो
कोई बुराई का पहलू निकाल लेता है
ढले तो होती है कुछ और एहतियात की उम्र
कि बहते बहते ये दरिया उछाल लेता है
बड़े-बड़ों की तरह-दारियाँ नहीं चलतीं
उरूज तेरी ख़बर जब ज़वाल लेता है
(उरूज = बुलंदी, ऊँचाई), (ज़वाल = हृास, पतन)
जब उस के जाम में इक बूँद तक नहीं होती
वो मेरी प्यास को फिर भी सँभाल लेता है
-वसीम बरेलवी
Thursday, January 17, 2019
न दीद है, न सुख़न, अब न हर्फ़ है, न पयाम
कोई भी हीला-ए-तस्कीं नहीं, और आस बहुत है
उम्मीद-ए-यार, नज़र का मिजाज़, दर्द का रंग
तुम आज कुछ भी न पूछो कि दिल उदास बहुत है
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ए-महताब से रात
और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी,
और उन हाथों से मस होंगे ये तरसे हुए हाथ
(गुल हुई जाती है = बुझ रही है), (अफ़सुर्दा = उदास), (चश्म-ए-महताब = चन्द्रमा की आँख),
(मुश्ताक = उत्सुक, अभिलाषी), (मस = छूना, स्पर्श)
उनका आँचल है कि रुख़सार के पैराहन हैं
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छांवों में
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं
आज फिर हुस्न-ए-दिलारा की वही धज होगी
वो ही ख़्वाबिदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर
रंग-ए-रुख़सार पे हल्का-सा वो गाज़े का गुबार
संदली हाथ पे धुंधली-सी हिना की तहरीर
(हुस्न-ए-दिलारा = मनमोहक सौंदर्य), (ख़्वाबिदा = स्वप्निल), (रंग-ए-रुख़सार = गालों का रंग), (गाज़ा = मुँह पर मलने वाला सुगन्धित रोगन), (संदली = चन्दन जैसा), (हिना = मेंहदी), (तहरीर = लेख, लिखावट)
अपने अफ़कार की अश'आर की दुनिया है यही
जान-ए-मज़मूं है यही, शाहिद-ए-माना है यही
(अफ़कार = फ़िक्र का बहुवचन, चिंताएँ), (अश'आर = शेर का बहुवचन), (जान-ए-मज़मूं = विषय की जान), (शाहिद-ए-माना = अर्थों की सुंदरता)
आज तक सुर्ख़-ओ-सियह सदियों के साए के तले आदम-ओ-हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है मौत और ज़ीस्त की रोज़ाना सफ़आराई में हम पे क्या गुज़रेगी, अजदाद पे क्या गुज़री है (सुर्ख़-ओ-सियह = सफ़ेद और काली), (ज़ीस्त = जीवन), (सफ़आराई = मोर्चाबंदी), (अजदाद = पुरखे)
यह भी हैं, ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से ख़ुलते हुए होंठ हाय उस जिस्म के कमबख़्त, दिलावेज़ ख़ुतूत ! आप ही कहिए, कहीं ऐसे भी अफ़्सूँ होंगे (मज़मूँ = विषय), (दिलावेज़ ख़ुतूत = मनोहर/ हृदयाकर्षक रेखाएं (बनावट)), (अफ़्सूँ = जादू)
अपना मौज़ू-ए-सुखन इन के सिवा और नही
तब-ए-शायर का वतन इनके सिवा और नही
(मौज़ू-ए-सुखन = काव्य का विषय), (तब-ए-शायर = शायर की प्रकृति)
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आबिदा परवीन/ Abida Parveen
Wednesday, October 15, 2014
बना गुलाब तो कांटे चुभा गया इक शख़्स
हुआ चिराग़ तो घर ही जला गया इक शख़्स
तमाम रंग मेरे और सारे ख़्वाब मेरे
फ़साना थे कि फ़साना बना गया इक शख़्स
(फ़साना = कहानी, कथा, वृतांत, हाल)
मैं किस हवा में उड़ूँ किस फ़ज़ा में लहराऊँ
दुखों के जाल हर इक सू बिछा गया इक शख़्स
(फ़ज़ा = वातावरण, बहार, रौनक), (हर इक सू = हर एक तरफ़)
पलट सकूँ मैं न आगे बढ़ सकूँ जिस पर
मुझे ये कौन से रस्ते लगा गया इक शख़्स
मुहब्बतें भी अजब उसकी नफ़रतें भी कमाल
मेरी ही तरह का मुझ में समां गया इक शख़्स
वो माहताब था मरहम-बदस्त आया था
मगर कुछ और सिवा दिल दुखा गया इक शख़्स
(माहताब = चन्द्रमा, चाँद), (मरहम-बदस्त = हाथ के ज़ख्मों में मलहम लगाए हुए)
मुहब्बतों ने किसी की भुला रखा था उसे
मिले वो ज़ख़्म कि फिर याद आ गया इक शख़्स
खुला ये राज़ के आइना-खाना है दुनिया
और उसमें मुझ को तमाशा बना गया इक शख़्स