Wednesday, May 20, 2015

हम धुएँ में जब ज़रा उतरे, धुआँ खुलने लगा

हम धुएँ में जब ज़रा उतरे, धुआँ खुलने लगा
राख में मलबा कुरेदा तो मकाँ खुलने लगा

जैसे-जैसे उस तआल्लुक़ का गुमाँ खुलने लगा
क्या नहीं था और क्या था दरमियाँ खुलने लगा

हमने तो उसके इक आँसू को ज़रा खोला था बस
फिर तो अपने आप ही वो बेज़ुबाँ खुलने लगा

नाउमीदी, अश्क़, तनहाई, उदासी, हसरतें
रफ़्ता-रफ़्ता ज़िन्दगी का हर निशाँ खुलने लगा

हमने जब छोड़ा उसे दैरो-हरम में ढूँढ़ना
बन्द पलकों में हमारी लामकाँ खुलने लगा

(दैरो-हरम = मंदिर और मस्जिद), (लामकाँ = वो जो रहने की जगह से पर हो, ईश्वर, ख़ुदा)

हमने अपनी ज़ात से बाहर रखा पहला क़दम
और हमारे सामने सारा जहाँ खुलने लगा

जैसे-जैसे दोस्तों से दोस्ती गहरी हुई
पीठ के हर ज़ख्म का इक-इक निशाँ खुलने लगा

उम्र ढलने पर समझ में ज़िन्दगी आने लगी
जब सिमटने लग गए पर, आसमाँ खुलने लगा

-शायर: राजेश रेड्डी

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