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Friday, April 19, 2019

आँखों में आँसुओं को उभरने नहीं दिया

आँखों में आँसुओं को उभरने नहीं दिया
मिट्टी में मोतियों को बिखरने नहीं दिया

जिस राह पर पड़े थे तिरे पाँव के निशाँ
इस राह से किसी को गुज़रने नहीं दिया

चाहा तो चाहतों की हदों से गुज़र गए
नश्शा मोहब्बतों का उतरने नहीं दिया

हर बार है नया तिरे मिलने का ज़ाइक़ा
ऐसा समर किसी भी शजर ने नहीं दिया

(समर = फल), (शजर = पेड़)

ये हिज्र है तो इस का फ़क़त वस्ल है इलाज
हम ने ये ज़ख़्म-ए-वक़्त को भरने नहीं दिया

(हिज्र = जुदाई), (वस्ल = मिलन)

इतने बड़े जहान में जाएगा तू कहाँ
इस इक ख़याल ने मुझे मरने नहीं दिया

साहिल दिखाई दे तो रहा था बहुत क़रीब
कश्ती को रास्ता ही भँवर ने नहीं दिया

(साहिल = किनारा), (कश्ती = नाव)

जितना सकूँ मिला है तिरे साथ राह में
इतना सुकून तो मुझे घर ने नहीं दिया

इस ने हँसी हँसी में मोहब्बत की बात की
मैं ने 'अदीम' उस को मुकरने नहीं दिया

-अदीम हाशमी

Wednesday, January 23, 2019

बिखरे हैं सारे ख़्वाब और अरमान इधर-उधर

बिखरे हैं सारे ख़्वाब और अरमान इधर-उधर
ये कौन कर गया मेरा सामान इधर-उधर

खु़द में कहीं- कहीं ही नज़र आ रहा हूँ मैं
ह़ालात कर गए मिरी पहचान इधर-उधर

मिलता नहीं कहीं भी कोई हमनवा मुझे
दिल में छुपाए फिरता हूँ तूफ़ान इधर-उधर

ना-पैद होके रह गया दुनिया में अब सुकून
हर कोई फिर रहा है परेशान इधर-उधर

(ना-पैद = विनष्ट, अप्राप्य, जो अब पैदा न होता हो। जो इतना अप्राप्य या दुर्लभ हो कि मानों कहीं पैदा ही न होता हो)

सज्दागुज़ार हूँ मगर इस दिल का क्या करूँ
भटकाए जा रहा है मिरा ध्यान इधर-उधर

हम आईना नहीं थे सो बस में न रह सके
देखा उन्हें तो हो गया ईमान इधर-उधर

आँसू मिरे समेट के रक्खे न जा सके
होता चला गया मिरा दीवान इधर-उधर

- राजेश रेड्डी

Monday, December 31, 2018

ऐ 'राज़' सुकून-ए-दिल क्यों-कर हो तुझे हासिल
आबाद तेरे दिल में, उम्मीद की दुनिया है
-राज़ चांदपुरी

Friday, November 18, 2016

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है
जो दर्द है वो रूह की गहराइयों में है

जिस को कभी ख़याल का पैकर न मिल सका
वो अक्स मेरे ज़ेहन की रानाइयों में है

(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख), (अक्स = प्रतिबिम्ब, छाया, चित्र), (रानाई/ रअनाई = बनाव-श्रृंगार)

कल तक तो ज़िंदगी थी तमाशा बनी हुई
और आज ज़िंदगी भी तमाशाइयों में है

है किस लिए ये वुसअत-ए-दामान-ए-इल्तिफ़ात
दिल का सुकून तो इन्ही तन्हाइयों में है

(वुसअत-ए-दामान-ए-इल्तिफ़ात = प्यार/ कृपा का विस्तार)

ये दश्त-ए-आरज़ू है यहाँ एक एक दिल
तुझ को ख़बर भी है तिरे सौदाइयों में है

(दश्त-ए-आरज़ू = तमन्ना/ ख़्वाहिश का जंगल), (सौदाई = पागल, बावला)

तन्हा नहीं है ऐ शब-ए-गिर्यां दिए की लौ
यादों की एक शाम भी परछाइयों में है

(शब-ए-गिर्यां = दुःख/ रोने की रात)

'गुलनार' मस्लहत की ज़बाँ में न बात कर
वो ज़हर पी के देख जो सच्चाइयों में है

(मस्लहत = समझदारी, हित, भलाई)

-गुलनार आफ़रीन

Tuesday, November 8, 2016

हरे पत्ते भी थे, सरसब्ज़ थी, शादाब थी टहनी
तसल्ली तब हुई जब शाख़ पे इक फूल आया
-गुलज़ार

(सरसब्ज़ = हरी-भरी, लहलहाती हुई, प्रसन्न और संतुष्ट), (शादाब = हरी-भरी, प्रफुल्लित)

एक मुलाक़ात

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल, लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं
ये जान कर तुझे जाने कितना ग़म पहुँचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

किसी की हो के तू इस तरह मेरे घर आई
कि जैसे फिर कभी आए तो घर मिले न मिले
नज़र उठाई, मगर ऐसी बे-यकीनी से
कि जिस तरह कोई पेशे-नज़र मिले न मिले
तू मुस्कुराई, मगर मुस्कुरा के रुक सी गई
कि मुस्कुराने से ग़म की खबर मिले न मिले
रुकी तो ऐसे, कि जैसे तिरी रियाज़त को
अब इस समर से ज़ियादा समर मिले न मिले
गई तो सोग में डूबे क़दम ये कह के गए
सफ़र है शर्त, शरीके-सफ़र मिले न मिले

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल,लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं
ये जान कर तुझे क्या जाने कितना ग़म पहुंचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

-साहिर लुधियानवी


(पेशे-नज़र = नज़र/ आँखों के सामने), (रियाज़त = तपस्या, साधना), (समर = फल, नतीजा), (शरीके-सफ़र = सहयात्री, यात्रा का साथी)

Thursday, October 6, 2016

हर इक शै में हर इक शै का असर कम हो रहा है

हर इक शै में हर इक शै का असर कम हो रहा है
दरो-दीवार में लगता है घर कम हो रहा है

(शै = वस्तु, पदार्थ, चीज़)

तेरे अन्दर को घेरे जा रहा है तेरा बाहर
तू अपने आपमें ऐ बेख़बर ! कम हो रहा है

वो जिस के नाम पर सब को डराते फिर रहें हैं
उसी के नाम का ख़ुद उनमें डर कम हो रहा है

सफ़र इस जिस्म में जाँ का तो जारी बदस्तूर
अगरचे जिस्म का हर दिन सफ़र कम हो रहा है

(अगरचे = यद्यपि, यदि)

ये किस आसेब का साया पड़ा है इस शजर पर
परिन्दा रोज़ इक क्यों शाख़ पर कम हो रहा है

(आसेब = भूत-प्रेत, विपत्ति), (शजर = पेड़)

बहुत आसानियाँ जीने की बढ़ती जा रही हैं
सुकूने-दिल यहाँ हर दिन मगर कम हो रहा है

बदल कर रह गयी है या तो लोगों की समाअत
या फिर मेरे ही कहने का हुनर कम हो रहा है

(समाअत = सुनने की क्रिया, सुनने की शक्ति)

- राजेश रेड्डी

Thursday, February 25, 2016

ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से

ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से
मैं जी उठा हूँ ज़रा ताज़गी के आने से

उदास हो गये यकलख़्त शादमां चेहरे
मेरे लबों पे ज़रा सी हँसी के आने से

(यकलख़्त = एक बारगी, आकस्मिक, अचानक, एकदम से), (शादमां = प्रसन्न, ख़ुश)

दुखों के यार बिछड़ने लगे हैं अब मुझ से
ये सानेहा भी हुआ है खुशी के आने से

(सानेहा = आपत्ति, मुसीबत, दुर्घटना)

करख़्त होने लगे हैं बुझे हुए लहजे
मिरे मिजाज़ में शाइस्तगी के आने से

(करख़्त = कड़ा, कठोर), (शाइस्तगी = शिष्टता, सभ्यता)

बहुत सुकून से रहते थे हम अँधेरे में
फ़साद पैदा हुआ रौशनी के आने से

यक़ीन होता नहीं शहर-ए-दिल अचानक यूँ
बदल गया है किसी अजनबी के आने से

मैं रोते रोते अचानक ही हंस पड़ा 'आलम'
तमाशबीनों में संजीदगी के आने से

- आलम खुर्शीद

Saturday, May 23, 2015

खोज

खोजियों, तुम नहीं मानोगे,
लेकिन संतों का कहना सही है ।
जिस घर में हम घूम रहे हैं,
उससे निकलने का रास्ता नहीं है ।

शून्य और दीवार, दोनों एक हैं ।
आकार और निराकार, दोनों एक हैं ।

जिस दिन खोज शांत होगी,
तुम आप-से-आप यह जानोगे

कि खोज पाने की नहीं,
खोने की थी ।
यानी तुम सचमुच में जो हो,
वही होने की थी ।

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

पुस्तक: भग्न वीणा

शांति की कामना

पानी का अचल होना
मन की शांति और आभा का प्रतीक है ।

पानी जब अचल होता है,
उसमें आदमी का
मुख दिखलाई पड़ता है ।
हिलते पानी का बिम्ब भी हिलता है ।

मन जब अचल पानी के
समान शांत होता है,
उसमें रहस्यों का रहस्य मिलता है ।

मन रे, अचल सरोवर के समान
शांत हो जा ।

जग कर तूने जो भी खेल खेले,
सब गलत हो गया ।
अब सब कुछ भूल कर
नींद में सो जा ।  

-रामधारी सिंह 'दिनकर'

पुस्तक: भग्न वीणा

जो कहीं था ही नहीं उसको कहीं ढूँढना था

जो कहीं था ही नहीं उसको कहीं ढूँढना था
हम को इक वहम के जंगल में यकीं ढूँढना था

पहले तामीर हमें करना था अच्छा सा मकां
फिर मकां के लिए अच्छा सा मकीं ढूँढना था

 (तामीर = निर्माण, बनाना, मकान बनाने का काम), (मकीं = मकान में रहने वाला, निवासी)

सब के सब ढूँढ़ते फिरते थे उसे बन के हुजूम
जिस को अपने में कहीं अपने तईं ढूँढना था

(अपने तईं =  अपने अंदर, अपनी ओर)

जुस्तजू का इक अजब सिलसिला ता-उम्र रहा
ख़ुद को खोना था कहीं और कहीं ढूँढना था

(जुस्तजू = तलाश, खोज)

नींद को ढूँढ के लाने की दवाएँ थीं बहुत
काम मुश्किल तो कोई ख़्वाब हसीं ढूँढना था

दिल भी बच्चे की तरह ज़िद पे अड़ा था अपना
जो जहाँ था ही नहीं उसको वहीं ढूँढना था

हम भी जीने के लिए थोड़ा सुकूँ थोड़ा सा चैन
ढूँढ सकते थे मगर हमको नहीं ढूँढना था

-राजेश रेड्डी

 

Wednesday, May 20, 2015

अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम

अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम
ख़ुद को समेटते हैं यहाँ से वहाँ से हम

क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकून
नाराज़ हैं ज़मीं से ख़फ़ा आसमाँ से हम

अब तो सराब ही से बुझाने लगे हैं प्यास
लेने लगें हैं काम यक़ीं का गुमाँ से हम

(सराब = मृगतृष्णा), (गुमाँ = भ्रम, वहम)

लेकिन हमारी आँखों ने कुछ और कह दिया
कुछ और कहते रह गए अपनी ज़बाँ से हम

आईने से उलझता है जब भी हमारा अक्स
हट जाते हैं बचा के नज़र दरमियाँ से हम

मिलते नहीं हैं अपनी कहानी में हम कहीं
गायब हुए हैं जब से तेरी दास्ताँ से हम

क्या जाने किस निशाने पे जाकर लगेंगे कब
छोड़े तो जा चुके हैं किसी के कमां से हम

ग़म बिक रहे थे मेले में ख़ुशियों के नाम पर
मायूस होक लौटे हैं हर इक दुकाँ से हम

कुछ रोज़ मंज़रों से जब उट्ठा नहीं धुआं
गुज़रे हैं सांस रोक के अम्न-ओ-अमां से हम

-राजेश रेड्डी

https://youtu.be/4iu6QRriOV4

 

Sunday, December 7, 2014

नज़्म - इकीसवीं सदी

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

दादा हैं आते थे जब, मिटटी का एक घर था
चोरों का कोई खटका न डाकुओं का डर था
खाते थे रूखी-सूखी, सोते थे नींद गहरी
शामें  भरी-भरी थीं, आबाद थी दुपहरी
संतोष था दिलों को माथे पे बल नहीं था
दिल में कपट नहीं था आँखों में  छल नहीं था
थे लोग भोले-भाले लेकिन थे प्यार वाले
दुनिया से कितनी जल्दी सब हो गए रवाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

अब्बा का वक़्त आया तालीम घर में आई                       (तालीम = शिक्षा)
तालीम साथ अपने  ताज़ा  विचार  लाई
आगे रवायतों से बढ़ने का  ध्यान  आया                         (रवायत =परम्परा)
मिटटी का घर हटा तो पक्का  मकान आया
दफ्तर की नौकरी थी, तनख्वाह का सहारा
मालिक पे था भरोसा हो जाता था गुज़ारा
पैसा अगरचे  कम था  फिर भी न कोई ग़म था
कैसा भरा-पूरा था अपना  गरीब-खाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

अब मेरा  दौर है ये कोई नहीं किसी का
हर आदमी अकेला हर चेहरा अजनबी-सा
आँसूं न मुस्कराहट जीवन का हाल ऐसा
अपनी ख़बर नहीं है माया का जाल ऐसा
पैसा है,  मर्तबा है, इज्ज़त, वक़ार भी है                     (वक़ार = विक़ार = शान-शौक़त, वैभव)
नौकर है और चाकर बंगला है  कार भी है
ज़र पास है, ज़मीं है, लेकिन सुकूं नहीं है                    (ज़र = धन, पैसा)
पाने के वास्ते कुछ क्या-क्या पड़ा गंवाना

दुःख सुख था एक सबका अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना

ए आने वाली नस्लों, ए आने वाले लोगों
भोगा है हमने जो कुछ वो तुम कभी न भोगो
जो दुःख था साथ अपने तुम से करीब न हो
पीड़ा जो हम ने झेली तुमको नसीब न हो
जिस तरह भीड़ में हम तन्हा रहे अकेले
वो जिंदगी की महफ़िल तुमसे न कोई ले ले
तुम जिस तरफ़ से गुजरो मेला हो रौशनी का
रास आये तुमको मौसम इक्कीसवी सदी का
हम तो सुकूं को तरसे तुम पर सुकून बरसे
आनंद हो दिलों में जीवन लगे सुहाना

-ज़फर गोरखपुरी

पंकज उधास/ Pankaj Udhas  

Monday, November 24, 2014

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में

मिसाल इसकी कहाँ है ज़माने में 
कि सारे खोने के ग़म पाए हमने पाने में 

वो शक्ल पिघली तो हर शै में ढल गई जैसे 
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में 

जो मुंतज़िर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा 
कि हमने देर लगा दी पलट के आने में 

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत)

लतीफ़ था वो तख़य्युल से, ख़्वाब से नाज़ुक 
गँवा दिया उसे हमने ही आज़माने में 

(लतीफ़ = मज़ेदार), (तख़य्युल = कल्पना)

समझ लिया था कभी एक सराब को दरिया
पर एक सुकून था हमको फ़रेब खाने में

(सराब = मृगतृष्णा, मरीचिका)

झुका दरख़्त हवा से, तो आँधियों ने कहा 
ज़ियादा फ़र्क़ नहीं झुक के टूट जाने में

(दरख़्त = पेड़)

-जावेद अख़्तर
सुकून-ए-दिल जहान-ए-बेश-ओ-कम में ढूँढने वाले
यहाँ हर चीज़ मिलती है, सुकून-ए-दिल नहीं मिलता
-जगन्नाथ आज़ाद

(सुकून-ए-दिल = दिल की शांति), (जहान-ए-बेश-ओ-कम = ज्यादा और कम की दुनिया)